देश में पहली बार किसी दलित महिला की पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग में अध्यक्ष पद पर हुई नियुक्ति

20 साल पहले बीएचयू में बतौर सहायक प्रोफेसर के रूप में काम शुरू किया था। 10 साल तक होता रहा जातीय भेदभाव। अनुसूचित जाति से आने के कारण बड़ी थीं चुनौतियां।
डॉ. शोभना नार्लीकर (Dr. Shobhana Narlikar)
डॉ. शोभना नार्लीकर (Dr. Shobhana Narlikar)सत्य प्रकाश भारती, द मूकनायक

उत्तर प्रदेश। यूपी के वाराणसी के काशी हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) में 10 साल तक अपने ही साथियों द्वारा किये जा रहे जातीय भेदभाव की लड़ाई लड़कर पहली बार एक दलित महिला को पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग का अध्यक्ष नियुक्त किया गया है। आजादी के 75 साल बाद विश्वविद्यालय में पहली बार एक दलित महिला को विभाग का अध्यक्ष बनाया गया है। लंबे संघर्ष और आंदोलन के बाद डॉ. शोभना ने यह मुक़ाम हासिल किया है। बीएचयू के पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग में इन्हें अध्यक्ष बनाए जाने की अधिसूचना संयुक्त कुल सचिव ने जारी की है। इस पद पर पहुंचने से रोकने के लिए लगातार उनके खिलाफ साजिशें रची जाती रहीं। दलित होने के कारण महिला प्रोफेसर का जमकर उत्पीड़न भी किया गया। प्रत्येक चुनौती का उन्होंने डटकर सामना किया। पत्रकारिता शिक्षण के क्षेत्र में आने से पहले वह करीब पांच वर्ष तक लोकमत समाचार और आईबीएन में बतौर पत्रकार काम कर चुकी हैं। उनका कहना है कि, "लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई है, इससे लड़ना आखिरी सांस तक जारी रहेगा।"

विस्तार से जानिए पूरा मामला

यूपी के वाराणसी के काशी हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) में 27 दिसम्बर 2022 को अधिसूचना जारी करके बीएचयू की शिक्षिका डॉ. शोभना नार्लीकर (Dr. Shobhana Narlikar) को विश्वविद्यालय में पत्रकारिता विभाग का विभागाध्यक्ष बना दिया। डॉ. शोभना अनुसूचित जाति की महिला हैं। वह मूल रूप से महाराष्ट्र की रहने वाली हैं। यह पहली बार हुआ है कि आजादी के 75 साल बाद देश में पहली बार दलित महिला को विश्वविद्यालय के पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग का अध्यक्ष बनाया गया है।

विभाग में मुश्किल भरा सफर रहा

डॉ.. शोभना बताती हैं, शिक्षण के दौरान इनका सफ़र हमेशा मुश्किलों से भरा रहा। इस मुक़ाम को हासिल करने के लिए डॉ. नार्लीकर ने विश्वविद्यालय में चल रही धांधली के खिलाफ न सिर्फ़ धरना दिया, बल्कि मनुवादी सोच रखने वालों को बुरी तरह झकझोरा और उनसे मुक़ाबला किया। वह कहती हैं, "साल 2017 से मेरा प्रमोशन रोका गया है। प्रोफेसर बनाने के लिए जब भी इंटरव्यू रखा जाता है तो उसी वक्त पर कैंसिल कर दिया जाता है। सभी मानकों को पूरा करने के बावजूद हमें आज तक प्रोफेसर नहीं बनाया गया। पत्रकारिता एवं जनसंपर्क विभाग का अध्यक्ष भी तब बनाया गया जब उनके सामने दांव-पेंच खेलने का कोई रास्ता बचा ही नहीं था। हमारी जीत से यह साबित हुआ है कि सत्य परेशान हो सकता है, पर पराजित नहीं हो सकता।"

कुल सचिव ने अधिसूचना जारी कर दी जानकारी

काशी हिंदू विश्वविद्यालय के संयुक्त कुल सचिव डॉ. नंदलाल ने 27 दिसंबर 2022 को अधिसूचना जारी कर बताया कि काशी हिंदू विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. एसके जैन ने डॉ. शोभना राजेश नार्लीकर को एक जनवरी 2023 से अगले तीन साल के लिए पत्रकारिता और जनसंचार विभाग, कला संकाय के विभागाध्यक्ष पद पर नियुक्त किया गया है।

किसान परिवार में जन्म लिया, बचपन से हर राह थी मुश्किल

डॉ. शोभना कहती हैं, "मैं किसान की बेटी हूं। जब से मैंने पढ़ाई में क़दम रखा है तभी से संघर्ष कर रही हूं। ख़ुद को खड़ा करने के लिए मैंने बहुत लंबा संघर्ष किया है। हमें घर के बाहर और घर के अंदर भी संघर्ष करना पड़ा है। दलित जाति के होने की वजह से मुझे बार-बार प्रताड़ित किया गया। जब मेरे साथ कोई नहीं था, तब अकेली लड़ती रही।"

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एक दशक पुराना डॉ. शोभना का संघर्ष

काशी हिंदू विश्वविद्यालय के पत्रकारिता व जनसंचार विभाग की प्रोफेसर डॉ. शोभना इंसाफ़ के लिए साल 2013 से ही मनुवादी सोच वाले लोगों का विरोध कर रही थीं। न्याय के लिए वह सात बार धरना दे चुकी हैं। हर बात को साफ़गोई से कहने वाली इस शिक्षक को मनुवादियों ने "लड़ाकू महिला" का ख़िताब दे दिया था, लेकिन उनका दिल गरीबों और शोषितों के उत्थान के लिए धड़कता है। वह कहती हैं, "मेरा नेता गरीब आदमी है, गांव का आदमी है। गांव में ही मेरी आत्मा बसती है। भूखे नंगे लोगों की आहें, कराहें हमें सोने नहीं देती। जिस दिन यह तबक़ा समाज की मुख्य धारा में शामिल हो जाएगा, समझूंगी कि मेरा संघर्ष पूरा हो गया।"

डॉ. शोभना अपने साथ हो रहे भेदभाव और उत्पीड़न के खिलाफ धरना देती हुईं।
डॉ. शोभना अपने साथ हो रहे भेदभाव और उत्पीड़न के खिलाफ धरना देती हुईं। फोटो- सत्य प्रकाश भारती, द मूकनायक

अकेले धरना दे रहीं डॉ. शोभना नार्लीकर

दलित शिक्षिका डॉ. शोभना अपने साथ हो रहे भेदभाव और उत्पीड़न के खिलाफ अकेले दम पर लड़ाई लड़ रही हैं। बीएचयू में जातीय भेदभाव का मुद्दा तब गरमाया जब फरवरी 2021 में डॉ. शोभना सेंट्रल ऑफ़िस के सामने धरने पर बैठ गईं। उनका आरोप था कि "साल 2013 में लिए गए मातृत्व अवकाश की आड़ में बीएचयू में मनुवादी प्रवृत्ति के कर्मचारियों ने मेरी सर्विस पुस्तिका में पूरी तरह हेरफेर कर डाली। वरिष्ठता को कनिष्टता में बताने के लिए उनकी हाज़िरी तक घटा दी गई। उन लोगों को इस बात का ख़ौफ़ था कि पदोन्नति होने पर मैं विभागाध्यक्ष के पद की दावेदार हो जाऊँगी। दलित शिक्षिका का प्रोफेसर और पत्रकारिता विभाग का अध्यक्ष बनना कुछ लोगों के दिलों में सूल की तरह चुभ रहा था। शिक्षकों और कर्मचारियों की गहरी साज़िशों का नतीजा यह रहा कि विश्वविद्यालय प्रशासन कोई न कोई आपत्ति लगाकर वरिष्ठता को प्रभावित करता रहा।"

मौजूदा कुलपति ने संघर्ष को समझा और सराहा

डॉ. नार्लीकर आगे बताते हुए कहती हैं, "दलित होने के कारण बीएचयू में मेरा मानसिक शोषण हुआ। मौजूदा कुलपति प्रो. एसके जैन ने मेरी योग्यता और हालात को सही समझा और पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग का अध्यक्ष बनाया।"

2013 में प्रशानसिक अफसर ने दलित होने के कारण किया मानसिक रूप से परेशान

प्रो. शोभना के मुताबिक़, "बीएचयू में मनुवादी प्रवृत्ति के प्रशासनिक अफ़सर साल 2013 से हमारा मानसिक उत्पीड़न सिर्फ़ इस वजह से कर रहे थे क्योंकि मैं उसी समुदाय से आती हूँ, जिस जाति के डॉ. भीम राव अंबेडकर आते हैं। रोजाना काम पर आने के बावजूद मुझे अनुपस्थित कर दिया गया। इस कारण वरिष्ठता सूची में मेरा नाम पीछे होता गया।"

जब कहीं नहीं हुई सुनवाई तो अकेले धरने पर बैठ गईं

डॉ बताती हैं, "मैंने विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार से लेकर कई अफसरों को इस घटना की जानकारी दी। अपनी फरियाद दर्ज कराई, लेकिन मेरी शिकायतों को जानकर अनसुना कर दिया गया। इस गैरकानूनी ढंग से लगातार मेरी वरिष्ठता को प्रभावित किया जा रहा था। मनुवादी ताकतों से लड़ने के लिए मैंने आंदोलन का सहारा लिया और 1 मार्च 2021 को केंद्रीय कार्यालय में धरने पर बैठी रही। इसके बावजूद मेरी समस्या का समाधान नहीं किया गया। दो मार्च को हमने दोबारा केंद्रीय कार्यालय के सामने धरना शुरू किया। तब कई स्टूडेंट्स और शिक्षक भी मुझे न्याय दिलाने के लिए मेरे साथ आए।"

20 साल पहले बनी थी सहायक प्रोफेसर

डॉ. शोभना नेर्लीकर कहती हैं, "आज से 20 साल पहले मैंने बीएचयू के पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग में 19 अगस्त 2002 को सहायक प्रोफेसर के पद पर कार्यभार संभाला था। उस समय भी हमारे पास पत्रकारिता में पीएचडी की उपाधि थी। बीएचयू में जिस रोज हमने कार्यभार संभाला, उसके दो दिन बाद ब्राह्मण समुदाय के डॉ. अनुराग दवे ने पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग में बतौर असिस्टेंट प्रोफेसर ज्वाइन किया। उनके पास पीएचडी की उपाधि तक नहीं थी। इसी दौरान ब्राह्मण समुदाय के शिशिर बासु ने भी यहां प्रोफेसर पद पर कार्यभार संभाला। विभागाध्यक्ष प्रो. बलदेव राज गुप्ता के रिटायर होने के बाद साल 2003 में वह विभागाध्यक्ष बने। प्रो. शिशिर ने तभी से हमारा मानसिक उत्पीड़न शुरू कर दिया।"

मनमानी का चला लंबा दौर

डॉ. शोभना कहती हैं, "शिशिर बासु 2003-2009 तक लगातार दो बार विभागाध्यक्ष रहे, लेकिन उन्होंने शोध कराने के लिए हमें एक भी शोधार्थी आवंटित नहीं की। सवर्ण शिक्षकों की जातीय गोलबंदी के चलते अनुराग दवे पीएचडी कराने लगे। साल 2009 में मैं मातृत्व अवकाश पर चली गई। एसोसिएट प्रोफेसर की योग्यता रखने के बावजूद जातीय भेदभाव के चलते हमें न प्रोन्नति नहीं दी गई और न ही कोई शोधार्थी आवंटित किया गया। प्रो. बासु का कार्यकाल समाप्त होने पर पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग में सबसे वरिष्ठ शिक्षक होने के बावजूद हमें विभागाध्यक्ष नहीं बनाया गया। साल 2009 से 2011 तक पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष का प्रभार हमें सौंपने के बजाय संकाय के अध्यक्ष ने अपने पास रखा।"

"साल 2011 से 2013 तक के लिए फिर प्रो. शिशिर बासु को विभागाध्यक्ष बना दिया गया। जब उन्हें दोबारा यह कुर्सी मिली तो उन्होंने हमें शोधार्थी आवंटित करने बंद कर दिए। साथ ही जातीय आधार पर भेदभाव और मानसिक प्रताड़ना दी जाने लगी। इस दौरान डॉ. अनुराग दवे को पीएचडी की उपाधि मिल गई। साल 2013 से 2017 तक फिर विभागाध्यक्ष का प्रभार संकायाध्यक्ष के पास चला गया। इस दौरान डॉ. अनुराग दवे को एसोसिएट प्रोफेसर बना दिया गया, लेकिन उनकी प्रोन्नति एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर नहीं की गई," डॉ. शोभना ने बताया।

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