ग्राउंड रिपोर्ट राजस्थान: जिनके पास खेलने के जूते भी नहीं थे, उन बेटियों ने बढ़ाया देश का मान

राजस्थान के सवाईमाधोपुर जिले के रावल गांव की बेटियां अभावों से लड़ते हुए अंतरराष्ट्रीय स्तर तक पहुंची, हैंडबॉल में कांस्य पदक जीतीं
ज्योति मीना और एरंता मीना
ज्योति मीना और एरंता मीना

जयपुर। भारत गांवों में बसता है और गांवों में प्रतिभाएं। जरूरत है प्रतिभाओं को खोज निकालने की। हाल ही राजस्थान के सवाईमाधोपुर जिले के एक छोटे गांव से दो आदिवासी बालिकाओं ने कजाकिस्तान में हुए एशियन चैम्पियनशिप में हैंडबॉल में भारत को कांस्य पदक दिलाने में अहम भूमिका निभाई है। इन बालिकाओं की हर तरफ तारीफ हो रही है। घर पर बधाई देने वालों का तांता लगा है। 

देश को कांस्य पद दिलाने वाली आदिवासी बालिका ज्योति मीना और एरंता मीना छोटे से गांव में सुविधाओं के अभाव में अथक संघर्ष कर अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक पहुंची। भारतीय हैण्डबॉल टीम को कांस्य पदक दिला कर गांव और देश का नाम रोशन किया। द मूकनायक ने ग्राउंड जीरो पर जाकर इनके संघर्ष को जाना। 

द मूकनायक की टीम राजधानी जयुपर से 150 किलोमीटर दूर सवाईमाधोपुर जिले के रावल गांव की ढाणी जगनपुरा पहुंची। जगनपुरा रणथ्म्भौर राष्ट्रीय उद्यान की सीमा के नजदीक बसा है। मुख्य डामर सड़क से ग्रेवल सड़क गांव तक बनी है। ग्रेवल सड़क से द मूकनायक टीम ज्योति मीना के घर पहुंची। ज्योति गांव से वापस एकेडमी जा चुकी थी। द मूकनायक ने ज्योति से दूरभाष पर बात की तो गांवों में खेलों को लेकर अरुचि की बात निकल कर सामने आई। 

प्रतिभाओं की नहीं, खेल मैदानों की कमी

ज्योति ने द मूकनायक को बताया कि गांव में खेल मैदानों की आज भी कमी है। उसने कहा कि मेरे पास बचपन में खेलने के लिए शूज तक नहीं थे। नंगे पैर कच्चे मैदान पर दौड़ती थी। कभी पैरो में कंकर लगते तो कभी कांटा भी लगता, लेकिन दर्द सहते हुए मेरी निगाहें बस बॉल पर रहती। वह कहती है कि मेरा सपना था मैं देश के लिए खेलूं। आज मेरा सपना पूरा हो गया। 

ज्योति कहती है कि सवाई माधोपुर के गांवों में प्रतिभाओं की कमी नहीं है। बस उन्हें अच्छा प्लेटफॉर्म देने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि मेरे गांव में भी कई प्रतिभाएं है, लेकिन अब उन्हें मौका नहीं मिल रहा है। मैं चाहती हूं सवाई माधोपुर में अच्छे खेल मैदान बनाए जाए। गांवों में भी खेल मैदान बने। अच्छे प्रशिक्षकों की व्यवस्था की जाए ताकि अब किसी मां-बाप को बेटियों को खेलों के लिए कर्ज लेकर बाहर नहीं भेजना पड़े। उन्हें स्थानीय स्तर पर ही बेस्ट ट्रेनिंग मिले। ज्योति ने गांव के खेल मैदान की दशा सुधारकर अच्छा ट्रेनर लगाने की भी बात कही। 

ज्योति मीणा
ज्योति मीणा

ज्योति ने आगे कहा कि मुझे मेरे घर वालों ने कभी खेलने से नहीं रोका। शुरुआत में मम्मी मेरे खेल के विरोध में थी। वह कहती खेल में क्या रखा है? घर का काम करना सीख ले। ससुराल जाएगी तो मुझे ताने मिलेंगे। ज्योति कहती हैं कि पढ़ाई के साथ खेल में व्यस्त रहती थी। मां के घर के काम में हाथ नहीं बटा पाती थी। जब मेरी मां खेतों पर काम करती थी तब मैं कक्षा 6 में पढ़ाई और खेल प्रैक्टिस के साथ खाना बना लेती थी। मेरी मेहनत को देखकर फिर मम्मी ने सपोर्ट करना शुरू किया। 

ज्योति ने बताया कि खेल मेरा सपना था। मैं सपने के पीछे भागती रही। ज्योति कहती हैं कि बेटियों का जिस क्षेत्र में काम करने का मन करे वो काम करें, पढ़ाई या खेल। जो भी आपका सपना हो अपने सपने के पीछे भागो। आज सपने के पीछे भागोगी, सपना सच होगा तो दुनिया आपके पीछे भागेगी।

उसने गांव की बेटियों को कहा कि उन्हें सफल होना है, तो घर वालों से कह दो कि अभी शादी नहीं करना। पहले सपना सच करना है। एक लड़की को सेल्फ रेसपेक्ट के लिए सफल होना जरूरी है। ज्योति ने उन परिजनों से अपील की है, कि बेटियों को मौका दें आगे बढ़ने का। उन्हें रोके नहीं। गांव की लड़कियां अभी बहुत पीछे हैं। गांव में प्रतिभाएं बहुत हैं, लेकिन उन्हें प्रतिभा दिखाने का मौका नहीं मिलता। उनकी प्रतिभा मन में रह जाती है। बेटी सफल होगी तो घर वालों को भी सपोर्ट  मिलेगा। जॉब लग जाती है तो कोई आपसे दहेज भी नहीं मांगेगा। बड़ी प्लेयर बन जाओगी तो दुनिया पीछे भागेगी। मेरा सपना है कि मेहनत करके सपना पूरा करो। कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।  

ज्योति की तरह ही रावल गांव की एरंता मीना भी अभावों से लड़ते हुए अंतरराष्ट्रीय स्तर तक पहुंची है।

द मूकनायक की टीम ने ज्योति के पिता श्यामलाल मीना से बात कर उनकी सफलता के संघर्ष की कहानी जानी। पिता श्यालाल मीना ने बताया कि मुझे बहुत अच्छा लगा रहा है। आज मेरी बेटी ने देश के लिए कुछ किया है। यह ज्योति की मेहनत और सबकी दुआओं से संभव हो सका है। पिता कहते हैं कि ज्योति का बचपन से खेल में कुछ बड़ा करने का सपना था। आज वो सपना पूरा हो गया। मैं चाहता हूं कि हमारे गांव की और बालिकाएं भी गांव से निकलकर देश के लिए खेले। 

"परिवार की आजीविका के लिए डेढ़ एकड़ जमीन है। इसके अलावा घोड़ी पाल कर शादियों में दूल्हों की निकासी से होने वाली आमदनी से ही घर खर्च चल रहा था। आर्थिक तंगी की वजह से ही बच्चों को गांव में एक एनजीओ के माध्यम से चलने वाली शिक्षण संस्थान में निशुल्क पढ़ाया था। इस संस्था में पढ़ाई के साथ खेल व अन्य गतिविधियां भी होती थी", पिता ने कहा कि कक्षा पांच से ही ज्योति में खेलों के प्रति जुनून था। यहां के शिक्षकों ने उसकी प्रतिभा को समझा और उस पर मेहनत की। शिक्षकों के कहने पर हमने भी बच्ची को आगे बढ़ाने में सहयोग किया।

उन्होंने कहा, गांव से बाहर जिला या स्टेट लेवल पर खेल के लिए जाने पर पैसों की जरूरत पड़ती तो वह कर्ज लेकर भी बेटी को खेलने भेजते। अब उन्हें अपनी बेटी पर गर्व है। पिता ने कहा कि सपने सब देखते हैं, लेकिन खुद मेहनत करने से ही सपने सच होते हैं। ज्योति ने अपनी मेहनत से सपना सच किया।  

'मैं खेलने से रोकती थी, लेकिन अब मुझे खुशी हो रही है'

द मूकनायक ने ज्योति की मां मथुरा देवी बात की। उन्होंने कहा कि मुझे खूब खुशी हो रही है। गांव के स्कूल में जब ज्योति खेलती थी तो मुझे बुरा लगता था। मैं कहती कि खेल में क्या रखा है। घर का काम करवाया कर, लेकिन बेटी कहती मां मैं खेलने और पढ़ाई के साथ काम कर लूंगी। मथुरा देवी बताती हैं कि ज्योति स्कूल में पहले पढ़ती फिर खेलती इन सब के बीच वह खेती के काम में भी हाथ बटाती। मेरी ज्योति फसल की लावणी (कटाई) भी कराती। निराई व गुड़ाई भी करती थी। भैंसों को चारा डालने के साथ दूध भी निकालती। घर में काम भी करती। मेरी बेटी अभी देश के लिए जीत कर गांव आई तो सबसे पहले खेतों पर जाकर उसने बाजरे की निराई करवाई। 

बड़े भाई दीपक ने बताया कि वह बचपन से खेल में रुचि रखती थी। ज्योति ने कभी हार नहीं मानी। कोशिश करती रही। ज्योति के शारीरिक शिक्षक ने उसकी प्रतिभा के बारे में घर वालों को बताया। तथा कक्षा 8 वीं पास करने के बाद 2012 में खेल के बड़े स्कूल में दाखिला दिलाने की सलाह दी। इस पर एक बार तो घर वालों ने मना कर दिया, लेकिन बाद में पिता ने हिम्मत दिखाते हुए ज्योति को जयपुर भेज दिया। जहां पहले ही प्रयास में उसका खेल ऐकेडमी में सलेक्शन हो गया। दीपक कहते हैं, कक्षा 8वीं के दौरान ही ज्योति ने 2012 में झारखंड में नेशनल खेला। उसने 27 बार नेशनल प्रतियोगिता में भाग लिया। राजस्थान की हैंडबॉल टीम की कप्तान रही। राजस्थान की सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी भी चुनी गई। 

एरंता के घर तक जाने को सड़क ही नहीं

इसके बाद द मूकनायक की टीम वापस रावल गांव पहुंची। एरंता मीना का घर खेतों पर बना है, लेकिन वहां तक जाने का कोई रास्ता नहीं है। वाहन को मुख्य सड़क पर छोड़ कर द मूकनायक की टीम खेतों के बीच से तारबंदियों की पार करते हुए एक किलोमीटर से अधिक पैदल चल कर एरंता मीना के घर पहुंची। जहां एरंता के मां-बाप अपने खेत में बाजरे की फसल निराई करते मिले। 

एरंता मीणा
एरंता मीणा

हैंडबॉल की नेशनल खिलाड़ी एरंता के पिता कजोड़ मीना से द मूकनायक ने खेतों में जाकर बात की। पिता कजोड़ मीना ने द मूकनायक से कहा कि मेरी बेटी ने देश का नाम रोशन किया है। उन्होंने कहा कि परेशानियां तो खूब आई है। गरीब हैं, लेकिन बेटी को सपने को पूरा करने के लिए मेहनत मजदूरी करता रहा। हमारे पास तीन बीघा जमीन है। मेहनत मजदूरी करके बेटी को इस मुकाम पर पहुंचाया है। मैं चाहता हूं कि सरकार हमारे घर तक रास्ता बनवा दे। इससे ज्यादा कुछ नहीं चाहिए। 

भाई प्रकाश मीना ने बताया कि मेरी बहन एरंता अंतर्राष्ट्रीय गेम खेलने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा। उसने ज्योति की तरह ही गांव के एनजीओ के माध्यम से चलने वाले शिक्षा केन्द्र में कक्षा पांचवी से आठवीं तक पढ़ाई की। इसके बाद 2013 में जयपुर चली गई। हमारे पास जयपुर भेजने के लिए भी पैसा नहीं था। कर्ज लेकर बहन को जयपुर खेल एकेडमी में दाखिला दिलाया था।

बड़े भाई पहलवान मीना ने बताया कि हमारे गांव के लिए यह बड़ी बात है। मेरी बहन ने हैण्डबॉल में अच्छा प्रदर्शन किया है। वह टीम में गोलकीपर की भूमि में है। उन्होंने बताया कि भारतीय टीम में चयन होने के बाद एशियन चैम्पियनशिप के लिए विदेश जाने के लिए उसने पैसो की जरुरत बताई। हमने उससे पूछा कितना खर्च आएगा। इसके बाद डेढ़ लाख रुपया कर्ज लेकर विदेश खेलने के लिए भेजा है। हम उम्मीद करते हैं आगे बढ़कर स्वर्ण पदक जीते और देश का गौरव बढ़ाए।  

उबड़ खाबड़ ग्राउंड में नंगे पैर खेली

एरंता और ज्योति गांव के जिस मैदान से प्रैक्टिस करके निकली है द मूकनायक उस मैदान को भी देखा। रावल गांव में सड़क के पास झोपड़ी नुमा कमरे बने हैं। बाहर बड़ा सा खैल मैदान है। यहां पहुंचने पर एरंता और ज्योति के शिक्षक भोलाशंकर वर्मा एक कमरे में बैठे मिले। हमने शिक्षक से जब ज्योति और एरंता के बारे में बात की तो उन्होंने बताया कि दोनों लड़कियां इसी मैदान से निकली हैं। हालांकि मैदान में गढड़े और घास उगी है। वर्मा ने कहा कि यहां एक एनजीओ के माध्यम से शिक्षण केन्द्र संचालित होता है। पहले यहां जीवन कौशल की विभिन्न गतिविधियों के साथ ही कक्षा पांच से आठवीं तक पढ़ाई भी होती है। अभी भी गांव की बेटियां यहां जीवन कौशल का प्रशिक्षण लेने आती हैं, लेकिन अब पहले जैसी सुविधाएं नहीं है। उन्होंने कहा जब एरंता और ज्योति यहां खेलती थी तो कोई खास सुविधा नहीं थी, लेकिन इसके बावजूद वह यहां उबड़ खाबड़ ग्राउंड में नंगे पैर खेली। पढ़ाई के साथ खेल में रूचि थी। उनका सपना था। वह स्कूल से जिला और स्टेट लेवल पर खेली और सफलता के झंडे गाड़ती चली गई। अब वह भारत के लिए कांस्य पदक जीत कर आई है। 

द मूकनायक ने एरंता मीना से दूरभाष पर बात की तो उसने कहा कि मेरा संघर्ष बयां नहीं किया जा सकता। बस में इतना कहूंगी कि आप मेहनत करें। सफलता कदम चूमेगी। उन्होंने भी जिला मुख्यालय और ग्राम पंचायत स्तर पर खैल मेदान बनाने जरूरत बताई।

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