MP: पन्ना में सिलिकोसिस बीमारी की चपेट में हजारों आदिवासी खनन मजदूर!- ग्राउंड रिपोर्ट

पत्थर खदानों मेंं काम करने वाले मजदूर 35 से 40 साल में ही वृद्ध दिखने लगते हैं। 45 से 50 साल की आयु में अधिकांश की मौत हो जाती है।
सिलिकोसिस से पीड़ित खनन श्रमिक लच्छू लाल आदिवासी.
सिलिकोसिस से पीड़ित खनन श्रमिक लच्छू लाल आदिवासी.द मूकनायक

भोपाल। बेशकीमती हीरे और पत्थर देने वाले मध्य प्रदेश के पन्ना जिले में सैकड़ों की संख्या में मजदूर बिना उचित और प्रभावी इलाज के असमय मरने को मजबूर हैं। आलम यह है कि सिलिकोसिस नामक बीमारी से पीड़ित एक आदिवासी मजदूर के पास इलाज कराने तक को पैसे नहीं हैं।

पन्ना जिले के बड़ौर गांव के 45 वर्षीय लच्छूलाल आदिवासी को सिलिकोसिस है। इलाज के कागजात द मूकनायक प्रतिनिधि को दिखाते हुए वह कहते हैं, "मैं खदानों में पिछले 17 वर्षों से पत्थर तोड़ने का काम करता रहा हूँ, तीन साल पहले सांस लेने में परेशानी हुईं, खांसी भी आती थी। धीरे-धीरे तकलीफ बढ़ रही थी। कुछ दिनों बाद सांस फूलने लगी। पत्नी के साथ पन्ना के सरकारी अस्पताल गया, डॉक्टर ने कहा तुम्हे टीबी हुई है और दवाई शुरू कर दी।"

"एक महीने बाद भी कोई आराम नहीं मिला, समस्या और बढ़ गई। हम फिर अस्पताल गए। डॉक्टर ने कहा कि सीटी स्कैन करना पड़ेगा। जब जांच हुई तो पता लगा कि मुझे सिलिकोसिस बीमारी हो गई है। डॉक्टर कहते है कि अच्छे इलाज की जरूरत है। भोपाल जाओ, हमारे पास पैसे नहीं हैं। अधिकारियों ने कहा मुआवजा मरने के बाद मिलता है। अब मरने का इंतजार कर रहा हूँ।"लच्छूलाल ने कहा।

इलाज के कागजात दिखाते लच्छू लाल आदिवासी,
इलाज के कागजात दिखाते लच्छू लाल आदिवासी,फोटो: अंकित पचौरी, द मूकनायक

पन्ना जिले के बड़ौर गाँव के एक कोने में लच्छू लाल आदिवासी का घर है। मिट्टी की कच्ची दीवारें और लकड़ी के टपरे में इनका परिवार रहता है। लच्छू के दो बेटे है और दो बेटियां हैं।

आंखों में आंसूभर लच्छू लाल आदिवासी ने कहा- "हमारे पास तीन एकड़ खेती की जमीन है। सोचा कि थोड़ी सी जमीन बेच देंगे। कलेक्टर की जनसुनवाई में एक एकड़ जमीन बेचने के लिए अनुमति मांगी। कलेक्टर ने यह कह कर आवेदन खारिज कर दिया कि आदिवासी जमीन नहीं बेच सकते। सरकार न तो इलाज के लिए मदद कर रही है और न ही जमीन बेचने दे रही।"

जिले के ही गांधी ग्राम की त्रसिया आदिवासी के पति और ससुर की जान भी सिलिकोसिस बीमारी ने ली है, आठ साल पहले त्रसिया के ससुर बीरन आदिवासी की मौत हो गई थी। कुछ सालों बाद उनके पति इमरतलाल की मौत हो गई। कच्चे और खपरेल के घर में रह रही त्रसिया की आर्थिक हालत काफी खराब है।

त्रासिया ने द मूकनायक को बताया कि उनके सुसर और पति लंबे समय से खदान श्रमिक थे। ससुर की बीमारी का पता लग गया, लेकिन पति के इलाज और जांच के लिए पैसे नहीं थे, इसलिए उन्हें सर्फ ससुर बीरन सिंह की मौत का मुआवजा मिल सका है।

मृतक इमरतलाल आदिवासी.
मृतक इमरतलाल आदिवासी.

त्रासिया ने आगे कहा- "मेरे पति के मौत की जिम्मेदार पत्थर खदान है, सिलिकोसिस बीमारी के कारण ही उनकी मौत हुई थी पर सरकार यह नहीं मानती। हमें यह सब पता है कि खदान में काम करना खतरनाक है, लेकिन रोजगार के लिए मेरे दोनों बेटे खदान में पत्थर फोड़ रहे हैं।"

घर के बाहर बैठी त्रसिया आदिवासी.
घर के बाहर बैठी त्रसिया आदिवासी.फोटो: अंकित पचौरी, द मूकनायक

हमने त्रासिया से पूछा कि उन्हें अब डर नहीं लगता की उनके परिवार में खदान की मजदूरी से दो लोगों की मौत हो चुकी है? हमारे सवाल के जवाब में बुंदेलखंडी बोलचाल में त्रासिया ने कहा- "हर बेर चिंता बनी राहत के जे बच्चन को खदान में काम करे से कछु हो न जाबे, अब का करें जे काम न करें तो घर को चूल्हों कैसे जलें।"

गांधी ग्राम स्थित त्रसिया आदिवासी का घर.
गांधी ग्राम स्थित त्रसिया आदिवासी का घर. फोटो: अंकित पचौरी, द मूकनायक.

पन्ना जिले में हजारों लोगों के सिलिकोसिस पीड़ित होने की आशंका है। सबसे ज्यादा पीड़ित इस क्षेत्र के आदिवासी ही हैं। पत्थर की खदानों में यह वर्षों से मजदूरी कर रहे हैं। हालात यह है कि सिलिकोसिस बीमारी होने के बाद भी जिले में इसकी पहचान करने वाले उपकरणों की सुविधा और विशेषज्ञों की उपलब्धता नहीं है। साल 2021 में जिला अस्पताल में सिटी स्कैन मशीन लगाई गई है, जिससे इस बीमारी का पता लगाया जा रहा है।

जिले में खनन मजूदरों के लिए काम रहे पृथ्वी ट्रस्ट की संचालिका समीना यूसुफ ने द मूकनायक से बताया कि सरकार खदानों में काम कर रहे मजदूरों के लिए गंभीर नहीं है। उन्होंने कहा- "सरकारी आंकड़ों में अब तक 26 लोगों की मौत इस बीमारी से हुई है, लेकिन इन आंकड़ों पर हम भरोसा नहीं कर सकते।"

"फील्ड पर काम के अनुभव से हम यह कह सकते हैं कि हज़ारों मजदूरों ने सिलिकोसिस बीमारी की चपेट में आकर अपनी जान गंवाई है। सरकार मदद के तौर पर इस बीमारी के कारण मरने वालों को तीन लाख रुपए की आर्थिक मदद करती है। इनमें भी सिर्फ 18 लोगों को ही मुआवजा मिल पाया है।" समीना ने कहा।

12 वर्षों में सिर्फ तीन कैम्प लगे

पृथ्वी ट्रस्ट से मिली जानकारी के अनुसार पिछले 12 वर्षों में स्वास्थ्य विभाग में खनन मजदूरों की स्वास्थ्य जांच और उपचार के लिए अभी तक तीन कैम्प आयोजित किए है। साल 2012 में पृथ्वी ट्रस्ट और जिला चिकित्सालय के संयोजन से एक कैम्प लगाया गया, जिसमें सिलिकोसिस के 27 मरीज सामने आए। वर्ष 2017 में एक कैम्प आयोजित किया गया, जिसमें 14 मरीज चिन्हित हुए। 2022 में एक कैम्प लगाया गया था।

समीना ने कहा- "पहले तो स्वास्थ्य विभाग यह मानने को तक तैयार नहीं हुआ था। इस क्षेत्र के आदिवासी मजदूर सिलिकोसिस बीमारी से पीड़ित होंगे। जिन्हें समस्या होती थी, उनका टीबी की दवाइयों से उपचार किया जाता था। इस बीमारी के लक्षण टीबी की तरह ही हैं। जांच की संख्या कम है, इसलिए केस सामने नहीं आते हैं। वर्षों से खदानों में काम कर रहा लगभग हर एक मजदूर इस घातक बीमारी से ग्रसित है।"

पन्ना के मुख्य चिकित्सा अधिकारी डॉक्टर बी एस उपाध्याय ने द मूकनायक को बताया कि सिलिकोसिस से निपटने के लिए समय-समय पर कैम्प लगाए जा रहे है। जांच भी की जा रही है, खनन मजदूरों का उपचार अस्पताल में मुफ्त किया जाता है। फिलहाल लगभग 30 मरीज इस बीमारी के हमारे पास दर्ज हैं। हमने सीएमएचओ से पूछा कि जिला अस्पताल में इस बीमारी के विशेषज्ञ हैं? उन्होंने कहा, "जो डॉक्टर्स है, वही इलाज करते है।"

आंकड़ों को छुपाने का प्रयास!

पन्ना जिले में खदानों का बड़ा कारोबार है। बुंदेलखंड क्षेत्र के आदिवासी इन्हीं खदानों में मजदूरी कर रोजगार कमा रहे हैं, लेकिन लंबे समय तक खदानों में काम करने से यह सिलिकोसिस बीमारी की चपेट में आ जाते हैं।

जिला प्रशासन और स्वास्थ्य विभाग की लापरवाही के कारण यहां अधिकांश खनन मजदूरों की मौत 35 से 45 वर्ष की आयु में हो रही है। यहां गाँव के लोगों का कहना है कि सैकड़ों की संख्या में लोग मर चुके हैं और सिलिकोसिस से मौत का सिलसिला जारी है। यह आंकड़े सरकारी कागजों में नहीं हैं।

बड़ौर गाँव की सरपंच अल्पना सिंह ने बताया कि उनके गाँव में अबतक 8 से 10 मजदूरों की मौत सिलिकोसिस बीमारी से हो चुकी है। ये बात अलग है कि सिर्फ कुछ मौतें ही सरकारी आंकड़ों में दर्ज हो पाईं, खदानों में काम कर रहे अधिकांश लोग बीमार रहते हैं।

200 से ज्यादा खदानें!

जिले के स्थानीय पत्रकार अजीत खरे ने बताया कि इस क्षेत्र में आदिवासियों के स्वास्थ्य की स्थिति बेहद नाजुक है। जागरूकता की कमी, बेरोजगारी के कारण यह कुपोषित हैं। अजीत ने कहा- "जिले में हीरे और पत्थर की मिलाकर करीब दो सौ से अधिक खदानें होंगी, इनमें हज़ारों मजदूर काम करते हैं। कुछ खदानें अवैध भी है। खासकर लीगल खदानों के पास ही अवैध खनन हो रहा है। सिलिकोसिस के हजारों मरीज हो सकते हैं, लेकिन सरकारी आंकड़ों में यह दर्ज नहीं हैं।"

ऐसे होता है सिलिकोसिस

वर्षों तक पत्थर खदानों में काम करने वाले मजदूरों के फेफड़ों में पत्थरों की धूल सांस के माध्यम से पहुंचकर जमने लगती है। धीरे-धीरे फेफड़े पत्थर जैसे कठोर हो जाते हैं। इस बीमारी का अभी तक कोई इलाज खोजा नहीं जा सका है। पत्थर खदानों मेंं काम करने वाले मजदूर 35 से 40 साल में ही वृद्ध दिखने लगते हैं। 45 से 50 साल की आयु में अधिकांश की मौत हो जाती है। खदानों में काम करने वाले मजदूरों के सेहत की जांच नहीं कराई जाती है।

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