
रांची- झारखंड के गुमला जिले की आदिवासी नेत्री निशा भगत ने हाल ही में अपना सिर मुंडवा लिया है। यह कदम धर्मांतरण के खिलाफ उनकी मुहिम का हिस्सा है। निशा भगत का कहना है कि जो आदिवासी अपना धर्म बदल चुके हैं, उन्हें आरक्षण नहीं मिलना चाहिए। वे उरांव समुदाय से हैं और आदिवासी अस्मिता, जल-जंगल-जमीन की रक्षा के लिए संघर्ष कर रही हैं। उनका मुख्य मुद्दा है- धर्मांतरित आदिवासियों को आरक्षण से डीलिस्टिंग। उनका तर्क है कि ईसाई या अन्य धर्म अपनाने वाले आरक्षण का लाभ लेते हैं, लेकिन आदिवासी अस्मिता को ठेस पहुंचाते हैं।
निशा भगत गुमला की रहने वाली हैं। उनके पिता हांडू भगत झारखंड आंदोलन के कार्यकर्ता रहे, जिन्होंने आंदोलन के दौरान आधा जीवन जेल में बिताया। निशा ने 15 साल की उम्र से ही सामाजिक मुद्दों पर काम शुरू किया। वे झारखंड लोकतांत्रिक क्रांतिकारी मोर्चा (जेएलकेएम) से जुड़ी रहीं और 2024 में गुमला से विधानसभा चुनाव लड़ा। लेकिन पार्टी से मतभेद के बाद वे अलग हो गईं। जेएलकेएम ने उन्हें 'बीमार' बताकर आलोचना की, जिसका जवाब देते हुए निशा ने कहा, "एक समय वे मुझे 'दीदी' कहते थे, आज अनर्गल बयान दे रहे हैं।"
निशा ने एक स्थानीय मीडिया को अपने साक्षात्कार में बताया कि मुंडन का विचार उनके पुरखों की प्रेरणा से आया। वे कहती हैं, "आदिवासी परिवार में पैदा हुई हूं, इसलिए समाज, अस्तित्व, जल-जंगल-जमीन बचाने का दायित्व है।" उनकी मुख्य मांगें हैं:
पेशा अधिनियम (PESA Act) लागू करना।
सरना कोड का अलग कॉलम।
1961 की जनगणना के बाद हटाए गए आदिवासी कॉलम को बहाल करना।
धर्मांतरित आदिवासियों को आरक्षण से डीलिस्टिंग।
वे मिशनरियों पर आरोप लगाती हैं कि वे चंगाई के नाम पर अंधविश्वास फैला रहे हैं और सरना झंडे का अपमान कर रहे हैं। CNT-SPTP एक्ट के उल्लंघन और जमीन हड़पने के खिलाफ वे रांची पैदल यात्रा कर चुकी हैं। दिल्ली के जंतर-मंतर पर भी प्रदर्शन किया। CNT-SPTP एक्ट (छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908 और संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम 1949) झारखंड के आदिवासी समुदायों की भूमि और पहचान की रक्षा के लिए बनाए गए महत्वपूर्ण कानून हैं, जो जनजातीय भूमि को गैर-आदिवासियों को हस्तांतरित करने पर रोक लगाते हैं और उनके अधिकारों की रक्षा करते हैं, हालांकि समय-समय पर इनमें संशोधन की कोशिशों को लेकर विवाद भी होता रहा है, जैसा कि 2016-17 में हुआ था।
निशा पर बीजेपी-आरएसएस से फंडिंग के आरोप लगते रहे हैं। उनका जवाब: "जांच कराइए, मैं अकेली लड़ रही हूं। आदिवासी बेटी सर्वाइव कैसे कर रही, यही हजम नहीं हो रहा।" उन्हें जान से मारने की धमकियां मिलीं, जिनके खिलाफ उन्होंने डीजीपी, डीसी, एसपी और गृह मंत्री को पत्र लिखा। वेटिकन तक उनका फोटो भेजा गया। वे कहती हैं, "डर हमारे संस्कार में नहीं। हम जंगल के वासी, निडर हैं।"
निशा के परिवार ने उन्हें समाज के लिए समर्पित होने का मौका दिया। उनकी मां की परवरिश ईसाई परिवार में हुई, लेकिन निशा सरना हैं। वे कहती हैं, "पैदाइश सरना में हुई, वही रहूंगी।" घर-परिवार से भी विरोध झेल रही हैं।
सरना धर्म को उसके अनुयायी एक अलग धार्मिक समूह के रूप में स्वीकार करते हैं, जो मुख्य रूप से प्रकृति के उपासकों से बना है। सरना आस्था के मूल सिद्धांत "जल (जल), जंगल (जंगल), ज़मीन (जमीन)" के इर्द-गिर्द घूमते हैं, जिसमें अनुयायी वन क्षेत्रों के संरक्षण पर जोर देते हुए पेड़ों और पहाड़ियों की पूजा करते हैं। पारंपरिक प्रथाओं के विपरीत, सरना विश्वासी मूर्ति पूजा में शामिल नहीं होते हैं और वर्ण व्यवस्था या स्वर्ग- नरक की अवधारणाओं में विश्वास नहीं करते हैं। सरना के अधिकांश अनुयायी ओडिशा, झारखंड, बिहार, पश्चिम बंगाल और असम जैसे आदिवासी बेल्ट में केंद्रित हैं।
2011 की जनगणना में प्रकृति-उन्मुख सरना धर्म के लगभग 50 लाख भक्तों ने अपनी आस्था घोषित की फिर भी सरना धर्म संहिता आधिकारिक स्वीकृति का इंतजार कर रही है।
जैनियों की संख्या 44 लाख है, जिन्हें पहले से ही एक अलग धार्मिक समुदाय के रूप में मान्यता दी जा चुकी है। सरना धर्म कोड की मांग पर सेंगल अभियान ने कई जनजातीय संगठनों के साथ 2022 से 2024 के बीच धरना प्रदर्शन और रेल रोको-चक्का जाम किया था। कोलकाता और रांची में भी सरना धर्म संहिता की मान्यता की वकालत करते हुए प्रदर्शनों की एक श्रृंखला चलाई गई।
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