
कोकराझार/गुवाहाटी: असम में छह प्रमुख जातीय समुदायों को अनुसूचित जनजाति (ST) की सूची में शामिल करने के प्रस्ताव पर विवाद गहरा गया है। 'ऑल असम ट्राइबल स्टूडेंट्स यूनियन' (AATSU) ने इस कदम का कड़ा विरोध करते हुए राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को एक याचिका भेजी है। संगठन का कहना है कि बिना किसी ठोस मूल्यांकन के एसटी सूची का विस्तार करना राज्य की मौजूदा जनजातियों के हकों पर डाका डालने जैसा होगा।
क्या है पूरा मामला?
दरअसल, 29 नवंबर को असम विधानसभा में मंत्रियों के एक समूह (GoM) की रिपोर्ट पेश की गई थी। इस रिपोर्ट में राज्य के छह समुदायों—आदिवासी (टी ट्राइब्स), चुटिया, कोच-राजबंशी, मटक, मोरन और ताई अहोम—को एसटी का दर्जा देने के लिए रास्ता निकालने का प्रस्ताव दिया गया है। राज्य के 14 मौजूदा जनजातीय संगठन इस रिपोर्ट और प्रस्ताव के विरोध में खड़े हो गए हैं।
'आदिवासी विरोधी' बताया प्रस्ताव
AATSU ने पश्चिमी असम के कोकराझार में जिला आयुक्त (DC) के माध्यम से राष्ट्रपति को अपना ज्ञापन सौंपा। इसमें उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि यह प्रस्ताव "आदिवासी विरोधी" है। छात्र संगठन ने चेतावनी दी कि अगर बिना व्यापक सामाजिक मूल्यांकन (Social Assessment) के एसटी सूची को बढ़ाया गया, तो असम की मौजूदा जनजातियों को मिल रहे संवैधानिक संरक्षण कमजोर पड़ जाएंगे।
छोटे समुदायों पर संकट का डर
संगठन ने अपनी दलील में कहा कि अगर सामाजिक और आर्थिक रूप से पहले से स्थापित बड़े समुदायों को एसटी का दर्जा मिल जाता है, तो बोडो, राभा और मिसिंग जैसे छोटे मूल निवासी समूहों को भारी नुकसान उठाना पड़ेगा। उन्हें डर है कि इससे वास्तव में वंचित और हाशिए पर रहने वाले आदिवासी समुदायों के लिए बने आरक्षण के लाभ, कल्याणकारी योजनाएं और अन्य सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा उपाय खतरे में पड़ सकते हैं।
लोकुर समिति के मानकों का हवाला
AATSU ने यह भी तर्क दिया कि जिन छह समुदायों को शामिल करने की बात हो रही है, वे 'लोकुर समिति' द्वारा तय किए गए मापदंडों पर खरे नहीं उतरते। गौरतलब है कि एसटी सूची में शामिल होने की पात्रता तय करने के लिए लोकुर समिति के दिशा-निर्देशों को ही पैमाना माना जाता है। इन मानकों में सिद्ध सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ापन, एक अलग और संरक्षित सांस्कृतिक पहचान, और भौगोलिक अलगाव (Geographical Isolation) जैसे तत्व शामिल हैं।
विशेषज्ञों से जांच की मांग
पुराने कानूनी फैसलों और असम के मौजूदा आरक्षण ढांचे का हवाला देते हुए, छात्र संघ ने राष्ट्रपति से अपील की है कि वे इस प्रस्ताव को इसके मौजूदा स्वरूप में मंजूरी न दें। उन्होंने मांग की है कि इस विषय पर आगे कोई भी विचार करने से पहले मानव विज्ञान (Anthropology), संवैधानिक कानून और आदिवासी कल्याण के विशेषज्ञों द्वारा एक निष्पक्ष और सबूतों पर आधारित अध्ययन कराया जाना चाहिए।
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