बोध गया/बिहार - बोध गया यानी वह पवित्र स्थान जहां भगवान बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था, आज भी अपनी ही धरोहर के लिए संघर्ष कर रहा है। दशकों से बौद्ध समुदाय इस ऐतिहासिक स्थल पर अपना वैधानिक अधिकार पाने के लिए लड़ रहा है। सम्राट अशोक ने यहां महाविहार बनाकर इस स्थान को बौद्ध धर्म की महान विरासत के रूप में स्थापित किया था, लेकिन आज गैर-बौद्धों का इस पूरे परिसर पर पूर्ण नियंत्रण है।
यहां का हर पत्थर, हर वृक्ष बुद्ध की कहानी कहता है, ये सभी स्थल बौद्ध धर्म की गौरवशाली परंपरा के प्रतीक हैं, लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि आज भी बौद्ध समुदाय का इन पवित्र स्थलों के प्रबंधन में कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं है।
बोधगया की पावन धरती पर आज भी सुजाता और उसके द्वारा सिद्धार्थ को दिए गए खीर की कहानी लोगों के दिलों में बसी है। यह वही जगह है जहां एक साधारण सी महिला के भोजन ने दुनिया को बुद्ध के रूप में एक महान आध्यात्मिक गुरु दिया। आज भी यहां का वट वृक्ष और सुजाता स्तूप उस पल की याद दिलाते हैं जिसने इतिहास बदल दिया।
माना जाता है कि सुजाता उरुवेला (आज का बोधगया) के सेनानी गांव की एक संपन्न परिवार की लड़की थी। कहा जाता है उसने निरंजना नदी के किनारे एक वट वृक्ष के देवता से पुत्र प्राप्ति की प्रार्थना की थी। जब उसकी मनोकामना पूरी हुई, तो उसने वचन के अनुसार देवता को खीर चढ़ाने का निश्चय किया। उस दिन जब उसकी दासी वट वृक्ष पर पहुंची, तो वहां उसे कोई साधारण व्यक्ति नहीं बल्कि छह साल से कठोर तपस्या कर रहे राजकुमार सिद्धार्थ मिले। सुजाता ने अपने हाथों से बनाई खीर सिद्धार्थ को खिलाई जिसके बाद उन्होंने नया बल पाया और उसी दिन बोधि वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त कर बुद्ध बने।
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के वकील आनंद जोंधले, जो बोधगया मंदिर एक्ट के मामले में बौद्ध पक्ष की तरफ से लड़ रहे हैं, ने महाबोधि परिसर का दौरा किया और सुजाता गढ़ एवं वट वृक्ष की तस्वीरें साझा कीं।
बोधगया के बकरौर गांव में सुजाता स्तूप खड़ा है, जो उसी स्थान पर बना है जहां सुजाता का घर हुआ करता था। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने 1973-74 और 2001-06 में यहां खुदाई करके एक विशाल स्तूप का पता लगाया, जिसके बारे में माना जाता है कि यह गुप्त से पाल काल तक कई चरणों में बनकर तैयार हुआ। यहां मिली मूर्तियां, सिक्के और अन्य कलाकृतियां इस स्थान के ऐतिहासिक महत्व को बताती हैं।
सम्राट अशोक सुभारती बौद्ध अध्ययन विद्यालय, स्वामी विवेकानंद सुभारती विश्वविद्यालय, मेरठ के सहायक प्रोफेसर चंडासिरी और आलोक कुमार वर्मा ने सुजाता पर महत्वपूर्ण शोध किया है।
International Journal of Humanities and Social Science Research द्वारा 2022 में 'द लाइफ ऑफ सुजाता: ए वुमन फ्रॉम सेना विलेज, प्रेज्ड बाय द बुद्ध' नामक शोध पत्र में प्रकाशित जानकारी के अनुसार स्तूप की गोलाकार दो-स्तरीय और सीढ़ीदार संरचना 11 मीटर ऊंची है तथा यह एक वर्गाकार पूर्व-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण मंच पर बनी है। इस स्तूप में गुप्त से पाल काल तक के तीन चरणों में हुए निर्माण और विस्तार के प्रमाण मिलते हैं। पहले चरण में ईंटों से बना एक संकरा दक्षिणावर्त मार्ग था, जिसके चारों ओर ईंटों की दीवार थी। खास बात यह है कि जमीनी स्तर के मार्ग के आसपास लकड़ी की रेलिंग होने के संकेत मिले हैं। बाद के विस्तार में इस मार्ग को चौड़ा करके 5 मीटर बना दिया गया और चूने की मोटी परत से ढक दिया गया।
तीसरे चरण में चारों ओर चूने से प्लास्टर की गई ईंटों की दीवार बनाई गई, जिसमें चारों दिशाओं में रेलिंग और प्रत्येक दिशा में एक खुला द्वार था। दीवार और द्वारों के बीच एक साधारण चूने से प्लास्टर किया हुआ दक्षिणावर्त मार्ग भी बनाया गया। एक द्वार के सामने ईंटों का बना एक मंच संभवतः सभास्थल के रूप में प्रयोग किया जाता था। द्वार के भीतरी हिस्से में बनी दो ईंटों की संरचनाओं का उद्देश्य अभी तक स्पष्ट नहीं हो पाया है। अंतिम विस्तार चरण में यह स्तूप काफी बड़ा हो गया, जिसका अधिकतम व्यास 65.5 मीटर तक पहुंच गया।
हालांकि प्रत्येक स्तर के निर्माण और विस्तार का सही समय स्पष्ट नहीं है, लेकिन माना जाता है कि आवास स्थल का प्रारंभिक चरण दूसरी से पहली शताब्दी ईसा पूर्व का है। यह अनुमान स्तूप स्थल के उत्तर-पूर्व में मिले एक मंदिर के अवशेष से प्राप्त गहरे भूरे रंग के चमकदार मिट्टी के बर्तनों के टुकड़ों पर आधारित है। टेराकोटा मुहरें और छोटे पट्टिकाएं अंतिम विस्तार को आठवीं से दसवीं शताब्दी का बताती हैं।
पाल वंश के शासकों के बौद्ध धर्म के प्रति रवैये को देखते हुए यह माना जाता है कि परिधि की दीवारें, रेलिंग और द्वार इसी काल में बनाए गए थे। आठवीं से नौवीं शताब्दी की एक उत्खनित शिलालेख भी मिली है। राजा देव पाल (810 से 850 ईस्वी तक शासन किया) के समय के सुजाता के घर के अवशेषों से पुष्टि होती है कि यह स्तूप सुजाता की स्मृति में बनाया गया था। इस स्थल से एक सोने की बाली का हिस्सा, एक छोटी टेराकोटा ब्रोच, पंचमार्क सिक्के, पत्थर की बुद्ध प्रतिमा का सिर और धड़, शरीर के आभूषण और टेराकोटा मुहरें भी खुदाई में मिली हैं।
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