Tamil Nadu मंदिर में जातिगत भेदभाव:मद्रास हाईकोर्ट ने पूछा- कोई भेदभाव नहीं, तो 7 साल तक मंदिर प्रवेश क्यों रोका?

कोर्ट ने जिला कलेक्टर को एक हलफनामा दाखिल करने का निर्देश दिया है, जिसमें यह बताना होगा कि मंदिर 2018 से क्यों बंद है, संयुक्त पूजा की अनुमति क्यों नहीं दी गई, और अब वे पूजा बहाल करने और समानता सुनिश्चित करने के लिए क्या कदम उठाएंगे।
मंदिर
मंदिर (सांकेतिक तस्वीर)
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मदुरै- तमिलनाडु के करूर जिले में स्थित अरुलमिगु मारियम्मन मंदिर के संबंध में मदुरै हाई कोर्ट की खंडपीठ ने एक ऐतिहासिक और सख्त आदेश जारी किया है, जिसमें मंदिर में जातिगत भेदभाव और पूजा के अधिकारों के उल्लंघन पर गहरी नाराजगी जताई गई है।

यह मामला दो रिट याचिकाओं (WP(MD)Nos.15950 of 2024 और 17212 of 2025) से संबंधित है, जो मंदिर में पूजा के अधिकार और प्रबंधन के मुद्दों पर केंद्रित हैं। कोर्ट ने न केवल प्रशासन की निष्क्रियता पर सवाल उठाए, बल्कि यह भी सुनिश्चित करने का आदेश दिया कि मंदिर में सभी समुदायों को बिना किसी भेदभाव के पूजा करने का अधिकार मिले।

मामले की सुनवाई जस्टिस बी. पुगलेंधी की एकल पीठ में हुई, जिन्होंने मंदिर के सात साल से बंद रहने और जातिगत आधार पर भेदभाव की शिकायतों पर गहरी चिंता व्यक्त की। कोर्ट ने इस मामले में जिला प्रशासन, पुलिस और हिंदू धार्मिक और धर्मार्थ बंदोबस्ती (Hindu Religious and Charitable Endowments (HR & CE) Department ) विभाग की निष्क्रियता को संवैधानिक कर्तव्यों का उल्लंघन माना।

कोर्ट ने अपने आदेश में कहा, “किसी सार्वजनिक मंदिर को, न कि दिनों या हफ्तों, बल्कि सालों तक बंद रखना, केवल कानून और व्यवस्था की आशंका के बहाने, संवैधानिक कर्तव्यों का परित्याग है।” यह टिप्पणी मंदिर के 2018 से बंद होने और इस दौरान सभी समुदायों के लिए पूजा और उत्सवों पर रोक के संबंध में थी।

पहली याचिका (WP(MD)No.15950 of 2024) वन्नियाकुलचत्रियार नाला अरकट्टलाई ट्रस्ट की ओर से दायर की गई थी, जो वन्नियाकुलचत्रियार समुदाय का प्रतिनिधित्व करने का दावा करता है। ट्रस्ट ने मांग की थी कि 2018 का निषेधाज्ञा आदेश हटाया जाए और मंदिर में उत्सवों और पूजा को फिर से शुरू करने की अनुमति दी जाए। ट्रस्ट का दावा है कि मंदिर में कोई जातिगत भेदभाव नहीं हुआ है और वे पीढ़ियों से मंदिर का प्रबंधन करते आ रहे हैं। दूसरी ओर, दूसरी याचिका (WP(MD)No.17212 of 2025) मारिमुतु नामक याचिकाकर्ता ने दायर की थी, जिसमें आरोप लगाया गया कि अनुसूचित जाति के भक्तों को मंदिर में पूजा करने से रोका जा रहा है। मारिमुतु ने मांग की कि मंदिर को सभी भक्तों के लिए खोला जाए और पुलिस सुरक्षा के साथ समानता के अधिकार को सुनिश्चित किया जाए।

कोर्ट ने करूर जिला कलेक्टर के 7 जुलाई 2025 के स्टेटस रिपोर्ट पर कड़ा रुख अपनाया, जिसमें बताया गया कि मंदिर 2018 से सामुदायिक तनाव और कानून-व्यवस्था की आशंका के कारण बंद है। कोर्ट ने इस रवैये की आलोचना करते हुए कहा, “जिला कलेक्टर, जिले के सर्वोच्च अधिकारी के रूप में, केवल यह कहकर अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकते कि परेशानी हो सकती है। अगर कोई वास्तविक खतरा है, तो यह उनकी जिम्मेदारी है कि वे राज्य मशीनरी का उपयोग करके इसे संभालें।”

कोर्ट ने करूर पुलिस प्रशासन की भूमिका पर भी सवाल उठाए, जो सभी को मंदिर में प्रवेश से रोककर शांति बनाए रखने का प्रयास कर रही थी। कोर्ट ने इसे गलत ठहराते हुए कहा, “सभी को प्रवेश से रोकना शांति बनाए रखने का तरीका नहीं है। पुलिस का काम यह सुनिश्चित करना है कि अधिकारों की रक्षा हो और कानून तोड़ने वालों के साथ उचित कार्रवाई हो।”

कोई भी व्यक्ति या समूह जाति के आधार पर सार्वजनिक मंदिर में प्रवेश को नहीं रोक सकता। अगर कोई परेशानी पैदा करने या जाति के आधार पर श्रेष्ठता का दावा करने की कोशिश करता है, तो उसे सख्त कानूनी परिणाम भुगतने होंगे।
जस्टिस बी. पुगलेंधी, मद्रास हाई कोर्ट

मामले में एक महत्वपूर्ण तथ्य यह सामने आया कि मंदिर तमिलनाडु एचआर एंड सीई अधिनियम, 1959 के तहत एक सार्वजनिक मंदिर है और इसका प्रबंधन एचआर एंड सीई विभाग के नियंत्रण में है। याचिकाकर्ता मारिमुतु द्वारा प्रस्तुत एक आरटीआई जवाब (22 सितंबर 2023) और ट्रस्ट द्वारा प्रस्तुत एक मसौदा योजना (27 दिसंबर 2023) से यह स्पष्ट हुआ कि मंदिर का प्रबंधन वर्तमान में एक फिट पर्सन द्वारा किया जा रहा है। कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि ट्रस्ट को मंदिर पर पूर्ण नियंत्रण का दावा करने का कोई कानूनी अधिकार नहीं है, जब तक कि वे एचआर एंड सीई अधिनियम के तहत उचित प्रक्रिया का पालन नहीं करते। कोर्ट ने सवाल उठाया, “अगर ट्रस्ट वास्तव में मानता है कि कोई भेदभाव नहीं है, तो किसी को भी मंदिर में प्रवेश से क्यों रोका जाना चाहिए? उनकी बात को साबित करने का सबसे आसान तरीका यह होता कि अधिकारियों की निगरानी में संयुक्त पूजा की अनुमति दी जाती।”

कोर्ट ने इस मामले में सिवगंगई जिले के कंदादेवी मंदिर के उदाहरण का हवाला दिया, जहां 17 साल तक रुके हुए उत्सव को 2024 में सरकार के सक्रिय हस्तक्षेप, पर्याप्त पुलिस बल और सभी समुदायों के साथ संवाद के माध्यम से सफलतापूर्वक आयोजित किया गया। कोर्ट ने इसकी प्रशंसा करते हुए कहा, “यह सफलता इसलिए नहीं हुई कि उन्होंने संघर्ष से बचा, बल्कि इसलिए कि उन्होंने दृढ़ नेतृत्व और संविधान के प्रति प्रतिबद्धता दिखाई।” कोर्ट ने करूर जिला प्रशासन से सवाल किया कि इस तरह का प्रयास यहां क्यों नहीं किया गया।

आदेश में कोर्ट ने कई महत्वपूर्ण निर्देश जारी किए। एचआर एंड सीई विभाग को दो सप्ताह के भीतर एक विस्तृत रिपोर्ट दाखिल करने का आदेश दिया गया, जिसमें यह स्पष्ट करना होगा कि मंदिर का प्रबंधन कौन कर रहा है, क्या सभी समुदायों को पूजा की अनुमति है, मसौदा योजना का अंतिम रूप दे दिया गया है या नहीं, और संयुक्त पूजा की व्यवस्था क्यों नहीं की गई।

जिला कलेक्टर को एक हलफनामा दाखिल करने का निर्देश दिया गया, जिसमें यह बताना होगा कि मंदिर 2018 से क्यों बंद है, संयुक्त पूजा की अनुमति क्यों नहीं दी गई, और अब वे पूजा बहाल करने और समानता सुनिश्चित करने के लिए क्या कदम उठाएंगे। पुलिस अधीक्षक को भी कानून-व्यवस्था की स्थिति और संयुक्त पूजा के लिए पर्याप्त पुलिस बल प्रदान करने की संभावना पर रिपोर्ट दाखिल करने को कहा गया।

कोर्ट ने अपने आदेश में स्पष्ट किया, “कोई भी व्यक्ति या समूह जाति के आधार पर सार्वजनिक मंदिर में प्रवेश को नहीं रोक सकता। अगर कोई परेशानी पैदा करने या जाति के आधार पर श्रेष्ठता का दावा करने की कोशिश करता है, तो उसे सख्त कानूनी परिणाम भुगतने होंगे।” कोर्ट ने दोनों पक्षों को अधिकारियों के साथ सहयोग करने और शांति बनाए रखने का निर्देश दिया। मामले को तीन सप्ताह बाद आगे की सुनवाई के लिए सूचीबद्ध किया गया है।

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