
प्रयागराज: कहते हैं न्याय में देरी होना, न्याय न मिलने के बराबर होता है। ऐसा ही एक मामला इलाहाबाद हाईकोर्ट के सामने आया, जहाँ एक व्यक्ति बिना किसी ठोस सबूत के पिछले 24 सालों से जेल की सलाखों के पीछे था। डकैती के एक मामले में आजीवन कारावास की सजा काट रहे आजाद खान को इलाहाबाद हाईकोर्ट की खंडपीठ ने अब बरी कर दिया है। कोर्ट ने निचली अदालत (ट्रायल कोर्ट) के फैसले को त्रुटिपूर्ण बताते हुए कहा कि केवल आरोपी के इकबालिया बयान के आधार पर उसे दोषी नहीं ठहराया जा सकता, खासकर तब जब अभियोजन पक्ष कोई गवाह या सबूत पेश करने में विफल रहा हो।
जान बचाने के लिए जेल में रहना चाहता था आरोपी
जस्टिस जे.जे. मुनीर और जस्टिस संजीव कुमार की पीठ ने मामले की सुनवाई करते हुए एक बेहद चौंकाने वाला तथ्य उजागर किया। कोर्ट ने पाया कि आजाद खान ने अपना जुर्म इसलिए कबूला था क्योंकि उसे अपनी जान का खतरा था।
रिकॉर्ड के मुताबिक, 24 अक्टूबर 2001 (आरोप तय होने की तारीख) से लेकर 5 फरवरी 2002 (फैसले की तारीख) के बीच आजाद खान ने अदालत में सात अलग-अलग आवेदन दिए थे। इन आवेदनों में उसने डर जताया था कि अगर वह जेल से बाहर आया, तो वादी (शिकायतकर्ता) पुलिस की मिलीभगत से उसकी हत्या करवा देगा। इसलिए, उसने अपनी जान बचाने के लिए जेल में ही रहने की गुहार लगाई थी और इसी दबाव में जुर्म कबूल कर लिया था।
सबूतों के अभाव में सजा को बताया गलत
हाईकोर्ट ने अपने आदेश में स्पष्ट किया कि ट्रायल कोर्ट ने आरोपी को दोषी ठहराने में गलती की है। अभियोजन पक्ष अपराध से आरोपी का संबंध जोड़ने और मामले को संदेह से परे साबित करने में पूरी तरह नाकाम रहा। बेंच ने कहा, "सीआरपीसी की धारा 313 के तहत दिए गए बयान में अपराध स्वीकार कर लेने मात्र से ही सजा नहीं दी जा सकती। इसलिए हम निचली अदालत द्वारा 5 फरवरी 2002 को सुनाए गए फैसले को रद्द करते हैं और आजाद खान को आईपीसी की धारा 395 और 397 के तहत लगे आरोपों से बरी करते हैं।"
क्या था पूरा मामला?
यह घटना 29 अक्टूबर 2000 की है, जब मैनपुरी के कटरा निवासी ओम प्रकाश के घर डकैती हुई थी। शिकायतकर्ता का आरोप था कि 10-15 डकैतों के एक गिरोह ने घर में घुसकर लूटपाट की और भागते समय गोलीबारी भी की, जिसमें कुछ ग्रामीण घायल हो गए थे। ग्रामीणों ने दावा किया था कि उन्होंने टॉर्च और लालटेन की रोशनी में सात हमलावरों को पहचाना था, जिनमें आजाद खान भी शामिल था, जो उसी गांव का रहने वाला था।
मैनपुरी के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश की अदालत में ट्रायल शुरू हुआ। वहां आजाद खान ने जान के खतरे को देखते हुए जुर्म कबूल किया। ट्रायल कोर्ट ने गवाहों और इकबालिया बयान को आधार मानते हुए उसे धारा 395 के तहत आजीवन कारावास और धारा 397 के तहत सात साल की सजा सुनाई थी।
हाईकोर्ट ने की तल्ख टिप्पणी: 'निष्पक्ष सुनवाई से वंचित रहा आरोपी'
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने पाया कि इस केस में अभियोजन पक्ष ने सिर्फ एक गवाह (सिपाही इकबाल सिंह) को पेश किया, जो केवल एक औपचारिक गवाह था और उसने एफआईआर की कॉपी साबित की थी। घटना को साबित करने के लिए कोई भी चश्मदीद गवाह कोर्ट में पेश नहीं किया गया।
बेंच ने कानून का हवाला देते हुए कहा कि धारा 313 के तहत दर्ज बयान का मकसद आरोपी को अपने खिलाफ आए सबूतों पर सफाई देने का मौका देना होता है, न कि उसे सजा का आधार बनाना। इसके अलावा, कोर्ट ने इस बात पर भी चिंता जताई कि 24 साल जेल में रहने के दौरान आजाद खान को अपना बचाव करने के लिए कोई वकील या कानूनी सहायता (Legal Aid) नहीं मिली। यह संविधान के अनुच्छेद 21 और सीआरपीसी की धारा 304 का सीधा उल्लंघन है।
रिहाई का आदेश
फैसले के अंत में जजों ने दुख जताते हुए कहा कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि बिना किसी सबूत के एक व्यक्ति 24 साल तक जेल में रहा। उसका कबूलनामा भी डर की वजह से था, जिस पर ट्रायल कोर्ट ने ध्यान नहीं दिया। अदालत ने आदेश दिया कि यदि आजाद खान किसी अन्य मामले में वांछित नहीं है, तो उसे तत्काल प्रभाव से रिहा किया जाए।
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