क्या महिला पर भी लग सकते हैं POCSO एक्ट में 'पैनेट्रेटिव सेक्सुअल असॉल्ट' के गंभीर आरोप? सुप्रीम कोर्ट करेगा विचार, कर्नाटक हाईकोर्ट के ट्रायल आदेश पर स्टे

याचिकाकर्ता के अधिवक्ता की मुख्य दलील यह थी कि POCSO अधिनियम की धारा 3(1)(ए) से लेकर धारा 3(1)(सी) तक के प्रावधान स्पष्ट रूप से "लिंग-विशिष्ट" हैं। कानून की भाषा और इरादा पुरुष अपराधियों पर केंद्रित है, और चूंकि उनकी मुवक्किल एक महिला हैं, इसलिए ये विशिष्ट धाराएं उन पर लागू ही नहीं होतीं।
सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहते हुए एक अंतरिम राहत दी है कि जब तक यहाँ सुनवाई जारी है, तब तक निचली ट्रायल कोर्ट में आगे की कार्यवाही स्थगित रहेंगी।
सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहते हुए एक अंतरिम राहत दी है कि जब तक यहाँ सुनवाई जारी है, तब तक निचली ट्रायल कोर्ट में आगे की कार्यवाही स्थगित रहेंगी।
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नई दिल्ली-  सर्वोच्च न्यायालय ने बाल यौन शोषण रोकथाम कानून (POCSO Act) की धाराओं की व्याख्या को लेकर एक अहम मुद्दे पर सुनवाई शुरू की है। अदालत ने एक ऐसी महिला के मामले में निचली अदालत की कार्यवाही पर रोक लगा दी है, जिस पर POCSO एक्ट के तहत आरोप लगे हैं। याचिकाकर्ता की ओर से यह दलील दी गई है कि यह कानून "लिंग-विशिष्ट" (Gender Specific) है और इसलिए एक महिला आरोपी पर इसकी कुछ मुख्य धाराएं लागू नहीं होतीं।

यह मामला अर्चना पाटिल नामक एक महिला का है, जिन पर POCSO एक्ट के तहत आरोप लगाए गए हैं। पीड़ित नाबालिग के माता पिता ने अपनी शिकायत में आरोप लगाया कि पाटिल उनकी 48 वर्षीय पड़ोसन हैं जिसने उनके 13 वर्षीय बेटे के साथ यौन उत्पीड़न किया। आरोपों के अनुसार, यह घटना फरवरी से जून 2020 के बीच तब हुई जब लड़का उनके घर आर्ट्स क्लासेज के लिए जाता था।

जांच के बाद पुलिस ने पॉक्सो (POCSO) अधिनियम की धारा 4 ( penetrative sexual assault प्रवेशक यौन हमला के लिए सजा) और धारा 6 के तहत आरोपों के साथ एक चार्जशीट दायर की। इसके परिणामस्वरूप, बेंगलुरु के अतिरिक्त सिटी सिविल और सत्र न्यायाधीश (फास्ट ट्रैक विशेष न्यायालय-1) के समक्ष एक आपराधिक मामला दर्ज किया गया।

आरोपी अर्चना पाटिल ने इन आरोपों को चुनौती देते हुए कर्नाटक उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया, लेकिन 18 अगस्त को उच्च न्यायालय ने उनकी याचिका खारिज कर दी और ट्रायल कोर्ट में मुकदमा चलने की इजाजत दी।

कर्नाटक उच्च न्यायालय में अपनी याचिका में आरोपी अर्चना पाटिल ने यह तर्क प्रस्तुत किया था कि उनके खिलाफ लगाए गए पॉक्सो अधिनियम के प्रावधान "लिंग-विशिष्ट" (gender specific) हैं और एक महिला आरोपी पर इन्हें लागू नहीं किया जा सकता।

उच्च न्यायालय ने इस तर्क को स्वीकार नहीं किया। न्यायालय ने माना कि पॉक्सो अधिनियम लिंग की परवाह किए बिना सभी बच्चों की रक्षा करता है, इसके प्रावधान पुरुष और महिला दोनों प्रकार के अपराधियों पर समान रूप से लागू होते हैं। इस तरह उच्च न्यायालय ने पाटिल की दलील को खारिज कर दिया और ट्रायल कोर्ट में मुकदमा चलने की अनुमति दी।

इसी फैसले के खिलाफ अर्चना पाटिल ने सर्वोच्च न्यायालय में विशेष अनुमति याचिका (Special Leave Petition) दायर की है।

8 अक्टूबर को सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस एम.एम. सुंदरेश और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा की पीठ के सामने यह मामला आया। याचिकाकर्ता की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता सिद्धार्थ लूथर ने सशक्त तर्क पेश किए।

उनकी मुख्य दलील यह थी कि POCSO अधिनियम की धारा 3(1)(ए) से लेकर धारा 3(1)(सी) तक के प्रावधान स्पष्ट रूप से "लिंग-विशिष्ट" हैं। इन धाराओं में यौन उत्पीड़न, यौन हमला और गंभीर यौन हमला जैसे गंभीर अपराधों को परिभाषित किया गया है। लूथर का तर्क था कि कानून की भाषा और इरादा पुरुष अपराधियों पर केंद्रित है, और चूंकि उनकी मुवक्किल एक महिला हैं, इसलिए ये विशिष्ट धाराएं उन पर लागू ही नहीं होतीं।

क्या है पॉक्सो एक्ट की धारा 3?

पॉक्सो (POCSO) अधिनियम की धारा 3 "पैनेट्रेटिव सेक्सुअल असॉल्ट" (प्रवेशक यौन हमला) को परिभाषित करती है। यह खंड बाल यौन शोषण के सबसे गंभीर रूपों में से एक को संदर्भित करता है। धारा के उप-भाग (a) से (c) तक विशेष रूप से उन क्रियाओं का वर्णन करते हैं जिन्हें "पैनेट्रेटिव सेक्सुअल असॉल्ट" माना जाएगा। महत्वपूर्ण बात यह है कि इन उप-भागों में अपराध करने वाले व्यक्ति के लिए "he" (वह) और "his" (उसका) जैसे सर्वनामों का प्रयोग किया गया है, जो सामान्यतः पुल्लिंग के लिए उपयोग होते हैं।

धारा 3(1)(a): इसमें कहा गया है कि यदि "वह (he)"किसी बच्चे की योनी, मुंह, मूत्रमार्ग या गुदा में किसी भी सीमा तक "अपने लिंग (his penis)" को प्रवेश कराता है, या बच्चे को ऐसा करने के लिए बाध्य करता है, तो यह पैनेट्रेटिव सेक्सुअल असॉल्ट है।

धारा 3(1)(b): इसके अनुसार, यदि "वह (he)" किसी बच्चे की योनी, मूत्रमार्ग या गुदा में लिंग के अलावा किसी भी वस्तु या शरीर के किसी भी हिस्से को किसी भी सीमा तक डालता है, या बच्चे से ऐसा करवाता है, तो यह अपराध माना जाएगा।

धारा 3(1)(c): इसमें परिभाषित किया गया है कि यदि "वह (he) बच्चे के शरीर के किसी हिस्से का इस तरह से हेरफेर करता है कि योनी, मूत्रमार्ग, गुदा या बच्चे के शरीर के किसी भी हिस्से में प्रवेश होता है, या बच्चे से ऐसा करवाता है, तो यह पैनेट्रेटिव सेक्सुअल असॉल्ट की श्रेणी में आएगा।

इस प्रकार, धारा 3 के इन विशिष्ट प्रावधानों में अपराधी के लिए इस्तेमाल किया गया "पुल्लिंगवाचक सर्वनाम" ही वह कानूनी आधार है, जिस पर याचिकाकर्ता की ओर से यह दलील दी जा रही है कि ये धाराएं केवल पुरुष अपराधियों पर ही लागू होती हैं और एक महिला पर इनका प्रयोग नहीं किया जा सकता।

अदालत ने क्या आदेश दिया?

याचिकाकर्ता के तर्कों को सुनने के बाद, सर्वोच्च न्यालय ने निम्नलिखित महत्वपूर्ण आदेश पारित किए:

अदालत ने मामले में दूसरे पक्ष यानी कर्नाटक राज्य और अन्य प्रतिवादी को नोटिस जारी किया है। इसका मतलब है कि अब राज्य सरकार को यह बताना होगा कि वह इस मामले में कानून की व्याख्या को लेकर क्या रुख रखती है।

सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहते हुए एक अंतरिम राहत दी है कि जब तक यहाँ सुनवाई जारी है, तब तक निचली ट्रायल कोर्ट में सभी further proceedings (आगे की कार्यवाही) स्थगित (Stay) रहेंगी। इससे अर्चना पाटिल को तत्काल राहत मिल गई है।

अदालत ने याचिकाकर्ता के दो आवेदनों – Impugned Judgment (अवमान्य निर्णय) की Certified Copy दाखिल न करने और O.T. (अन्य दस्तावेज) दाखिल न करने की छूट देने संबंधी को भी स्वीकार कर लिया।

सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहते हुए एक अंतरिम राहत दी है कि जब तक यहाँ सुनवाई जारी है, तब तक निचली ट्रायल कोर्ट में आगे की कार्यवाही स्थगित रहेंगी।
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