इसी साल के 29 मई की गर्माहट खत्म भी नहीं हुई थी जब भारत के प्रधानमंत्री ने समाचार चैनल एबीपी न्यूज़ को दिए एक इंटरव्यू में दावा किया कि रिचर्ड एटनबरो की फ़िल्म 'गांधी' के बनने के बाद दुनिया को उनमें दिलचस्पी हुई। उन्होंने 'गांधी के प्रचार-प्रसार' में पिछली सरकारों की नाकामी का ज़िक्र करते हुए ये सवाल उठाया कि, "क्या इस 75 साल में हमारी जिम्मेवारी नहीं थी क्या कि पूरी दुनिया महात्मा गांधी को जानें?" लेकिन "ऐसा हमने नहीं किया।"
प्रधानमंत्री वहीं नहीं रुके. उन्होंने आगे जोड़ा “कोई नहीं जानता है, माफ करना मुझे। पहली बार जब गांधी फ़िल्म बनी तब दुनिया में क्यूरिओसिटी हुई कि अच्छा ये कौन है? हमने नहीं किया जी। इस देश का काम था।"
वे फिर यहीं नहीं रुकते. आगे जो वे कहते हैं, उसने देश के छात्रों को पेट पकड़ने पर मजबूर कर दिया. आगे वे कहते हैं, “अगर मार्टिन लूथर किंग को दुनिया जानती है, अगर साउथ अफ्रीका के नेल्सन मंडेला जी को दुनिया जानती है, तो गांधी जी किसी से कम नहीं थे। यह मानना पड़ेगा कि गांधी को और गांधी के माध्यम से भारत को तवज्जो मिलनी चाहिए थी।“
हम सब देशवासियों ने मिलकर उनको कहना चाह था, माननीय प्रधानमन्त्री जी, आपके अनुसार गांधी जी को कोई नहीं जानता था, पर मार्टिन लूथर किंग स्वयं गांधी जी को जानते थे। मार्टिन लूथर किंग ने खुद कहा कि उन्होंने महात्मा गांधी की अहिंसक आंदोलन से प्रेरित होकर, जिम क्रो कानूनों और भेदभाव के अन्य रूपों के खिलाफ लक्षित, अहिंसक प्रतिरोध का नेतृत्व किया।
वहीं, आपके अनुसार नेलशन मंडेला को सब जानते हैं, गांधी को नहीं। तो आपको हम सभी ने याद दिलाने की कोशिश की, कि नेल्सन मंडेला ने खुद दक्षिण अफ़्रीका में रंगभेद के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए गांधी के अहिंसा के हथियार का इस्तेमाल किया था। और नेल्सन मंडेला को अक्सर 'दक्षिण अफ़्रीका का गांधी' कहा जाता है।
मा. अमित शाह का बयान: आंबेडकर और फैशन का सवाल
मई और जून की वैचारिक दोपहरी की तपिश अभी कम ही नहीं हुई थी कि उनके जोड़ीदार, माननीय अमित शाह जी के श्रीमुख से मकर संक्रांति के आगमन पर गुड़ की मिठास तो नहीं, लेकिन गुड़गोबर बाहर आया – “अभी एक फैशन हो गया है- आंबेडकर, आंबेडकर। इतना नाम अगर भगवान का लेते तो सात जन्मों तक स्वर्ग मिल जाता।”
अब देश आपकी समझ पर हैरान है. लिहाजा आपको समझना होगा कि आंबेडकर कोई फैशन नहीं है। अगर महज फैशन होते, तो हमारे मोदी जी उनकी 125वीं जयंती पर पंच तीर्थ क्यों बनवाते। पंच तीर्थ: यानी मध्यप्रदेश का महू, जहाँ बाबा साहेब का जन्म हुआ, उनकी जन्मस्थली के रूप में विकसित की जा रही है; दूसरी दीक्षा भूमि – नागपुर; तीसरी – मुंबई का इंदुमिल; चौथा, लंदन का वह घर जहाँ बाबा साहेब रहकर वकालत की शिक्षा ली, उसे भारत सरकार खरीद कर विकसित कर रही है; और, पाँचवाँ दिल्ली के हलीपुर में वह घर, जहाँ बाबा साहेब ने अंतिम सांस ली, उस स्थान को भारत सरकार संविधान निर्माता के स्मृति के रूप में विकसित कर रही है। आखिर क्यों? क्या यह सब बनवाना आपके लिए फैशन था? वोट की राजनीति थी?
या फिर, भारतीय संविधान के जनक डॉ. भीमराव अंबेडकर के महापरिनिर्वाण दिवस के मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर की स्मृति में 125 रुपये और 10 रुपये के स्मारक सिक्के जारी करना क्या महज दिखावा था!
मनुस्मृति दहन: आंबेडकर की विरासत और बहुजनों का संघर्ष
दरअसल, 25 दिसंबर, 1927 को महाराष्ट्र के कोलाबा ज़िले के तटीय इलाके महाड़ में मनुस्मृति को जलाने वाले आंबेडकर के मूकनायकगण स्वर्ग - नर्क के खेल से बहुत दूर खड़े हैं। आज उसी महाराष्ट्र के इलाके में भारत में सबसे ज्यादा बौद्ध धर्म के अनुयायी फैले हैं, जिन्होंने बाबा जी के आह्वान पर स्वर्ण-नर्क का नक्शा घर बनाने वाले हिंदू धर्म को त्याग दिया। वे क्यों लें भला भगवान का नाम! उनके लिए स्वयं आंबेडकर भगवान हैं। उनके लिए आंबेडकर फैशन नहीं, बल्कि कई जमाने से मुक्नायकों के पैशन का दूसरा नाम हैं। लिहाजा, आज पूरे हिंदुस्तान में अगर सबसे ज्यादा गली-चौराहों पर, मोहल्ले का नामकरण है, तो आंबेडकर के नाम पर है।
25 दिसंबर को “मनुस्मृति दहन दिवस” या 'समानता दिवस' मनाने वाली एक पूरी पीढ़ी यह मानती है कि सरकारी नौकरियों में उनकी भागीदारी भगवान का नाम लेने से नहीं, बल्कि बाबा साहेब के संविधान से मिल रही है। इसलिए हम भगवान को नहीं, बल्कि संविधान लाने वाले आंबेडकर को भागवां मान कर पूजेंगे. इसलिए उन्होंने अब तो बाबा साहेब के अलावा संविधान को भी मंदिर में स्थापित कर दिया है। (केरल की राजधानी तिरुवनंतपुरम में कुडापनक्कुन्नु के शांत इलाके में 73 वर्षीय सेवानिवृत्त शिक्षक शिवदासन पिल्लई द्वारा बनाया गया संविधान मंदिर।)
स्वर्ग, नर्क और बहुजनों की भूमिका पर सवाल
हालांकि हाल के दिनों में जिस प्रकार गुजरात में पटेल की स्टैच्यू ऑफ यूनिटी बनाकर पटेल को, स्वच्छता अभियान में गांधी जी का चश्मा लाकर गांधी जी को और आंबेडकर की पंच तीर्थ या 125वीं जयंती मनाकर आपने बाबा साहेब को किडनैप करने की कोशिश की थी, उस पर अमित शाह जी का बयान 'चेरी ऑन अ केक' के सामान है। यह मुहर लगाते हुए दिखता है कि न तो आरएसएस पर बैन लगाने वाले पटेल आपके हुए, न तो गांधी के चश्मे से आपकी गाँधी- विरोधी छवि साफ हुई और न ही आदिवासी महिला को राष्ट्रपति बनाकर आप आंबेडकरवादी हुए।
कोशिश तो मौजूदा सरकार ने भगवान बिरसा की जयंती को “जनजातीय गौरव दिवस’ में तब्दील कर बिरसा के अपहरण की भी की। लेकिन जब भगवान बिरसा की ही शहादत से निकली सीएनटी,1908 में झारखंड की तत्कालीन बीजेपी सरकार ने सुराख बनाने की कोशिश की, आपकी उस कोशिश के इरादे को भी झारखंड ने बखूबी समझा। लोकसभा में पाँच के पाँच आदिवासी सीटें आपके विरोध में गईं और इस बार विधानसभा में भी आप हारे।
अंबेडकरवाद: मुक्ति का मार्ग
ऐसे भी स्वर्ग-नर्क एक दार्शनिक दृष्टिकोण है और अब इसकी चाहत किसे है। आपके अनुसार मान भी लिया जाए कि इतनी बार भगवान का नाम बहुजन लेते, तो उन्हें स्वर्ग मिल जाता। पर स्वर्ग में भी बहुजनों की क्या भूमिका होती? चाकरी के अलावा। मिल्टन का तर्क क्या कम है जहाँ वे कहते हैं, "स्वर्ग का नौकर बनने से अच्छा है, नर्क का राजा बनकर रहो।"
मिल्टन जहाँ रुकते हैं, वहाँ से ओशो शुरू होते हैं, "नर्क और स्वर्ग तुम्हारे भीतर हैं, दोनों के दरवाजे तुम्हारे भीतर हैं। जब तुम बेहोशी से व्यवहार कर रहे हो तो वहाँ नर्क का दरवाजा है; जब तुम सजग और सचेत हो जाते हो, वहाँ स्वर्ग का दरवाजा है।"
आंबेडकर ने यूँ ही नहीं कहा: “मैं हिंदू के रूप में पैदा हुआ, इस पर तो मेरा वश नहीं था, मगर मैं हिंदू के रूप में मरूँगा नहीं।” और जिसने हिंदू धर्म में मरना तक नहीं चाहा, उसे हिंदू के डर से बनाए गए स्वर्ग और नर्क से क्या ही वास्ता! दरअसल, अंबेडकरवाद इन सब चक्करों से मुक्ति का ही नाम है।
खैर, इसी बहाने देश एक बार फिर से आंबेडकर की चेतना पर जा टिका है. जो जरूरी भी था. श्रेय माननीय को जाता है.
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