केरल चुनाव: दलित और आदिवासी चेहरों की तलाश में कांग्रेस, दशकों की अनदेखी पड़ रही भारी?

1980 के दशक तक पार्टी में दिग्गज दलित नेताओं की भरमार थी, लेकिन गुटबाजी ने सब खत्म कर दिया। अब 16 आरक्षित सीटों पर उम्मीदवार ढूंढना भी एक बड़ी चुनौती बन गया है।
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केरल चुनाव: दलित-आदिवासी चेहरों की तलाश में कांग्रेस, क्या दशकों की अनदेखी पड़ेगी भारी?Graphic- The Mooknayak
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कोच्चि: केरल में अगले साल मई में होने वाले विधानसभा चुनाव की सरगर्मियाँ तेज़ हो गई हैं, लेकिन कांग्रेस पार्टी एक अजीब सी मुश्किल में फंसी हुई है। पार्टी चुनाव से ठीक पहले अपने दलित और आदिवासी उम्मीदवारों को खोजने के लिए खूब जद्दोजहद कर रही है। इस उथल-पुथल ने एक कड़वी सच्चाई को उजागर कर दिया है कि पार्टी अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) समुदायों से नए नेताओं को तैयार करने और उन्हें आगे बढ़ाने में बुरी तरह विफल रही है। इसका नतीजा यह है कि राज्य की 16 आरक्षित सीटों (14 एससी और 2 एसटी) पर पार्टी खुद को बेहद कमज़ोर महसूस कर रही है।

एक सुनहरा अतीत, जो अब सिर्फ यादों में है

अतीत और वर्तमान के बीच का यह अंतर बेहद स्पष्ट है। 1980 के दशक के मध्य तक, कांग्रेस के पास पिछड़े समुदायों से आने वाले दिग्गज नेताओं की कोई कमी नहीं थी। वेल्ला ईचारन इय्यानी, एम. पी. थामी, के. के. बालकृष्णन, के. राघवन मास्टर, दामोदरन कलास्सेरी, पी. के. वेलायुधन, के. के. माधवन, टी. के. सी. वडुथला, किट्टप्पा नारायण स्वामी और डॉ. एम. ए. कुट्टप्पन जैसे नाम न केवल पार्टी को विधायी ताकत देते थे, बल्कि उनकी जमीनी पकड़ भी बहुत मज़बूत थी। ये नेता सिर्फ उम्मीदवार नहीं, बल्कि जननेता थे जिनका समाज में गहरा सम्मान था।

गुटबाजी ने किया बेड़ा गर्क

लेकिन 1980 के दशक के अंत और 90 के दशक में जैसे-जैसे पार्टी के भीतर गुटबाजी गहरी होती गई, दलित और आदिवासी प्रतिनिधित्व सिकुड़ता चला गया। राजनीतिक विश्लेषक डिज़ो कप्पन कहते हैं, "कांग्रेस में एससी/एसटी नेताओं को बढ़ावा देने में विफलता का मुख्य कारण 'ए' और 'आई' समूहों के बीच कभी न खत्म होने वाली लड़ाई थी। इस गुटबाजी ने नए नेताओं के उदय को रोक दिया और एक ऐसा शून्य पैदा कर दिया जो आज तक नहीं भर पाया है।"

पुराने चेहरों पर निर्भरता बनी मुसीबत

यही शून्य आज पार्टी के लिए एक बड़ी चुनौती बन गया है। दशकों से, पार्टी का नेतृत्व कुछ गिने-चुने "सुरक्षित" नामों पर ही निर्भर रहा है, जिनमें कोडिकुन्निल सुरेश और पंडलम सुधाकरन सबसे प्रमुख हैं। कोडिकुन्निल, जो पहली बार 1989 में लोकसभा के लिए चुने गए थे, आज भी सांसद हैं, जबकि सुधाकरन 1982 में अपने पहले चुनाव के बाद से ही राजनीति में सक्रिय हैं। आलोचकों का मानना ​​है कि इन दोनों नेताओं ने प्रभावी रूप से युवा नेताओं के लिए रास्ते बंद कर दिए हैं।

एक पूर्व पत्रकार और लंबे समय से कांग्रेस पर नज़र रख रहे रमेश मैथ्यू बताते हैं कि, "कांग्रेस को कोडिकुन्निल और सुधाकरन के अलावा कोई नया नाम ही नहीं सूझ रहा है। रेम्या हरिदास को लेकर भी कुछ मुद्दे सामने आने के बाद, पार्टी इस स्थिति के लिए केवल खुद को ही दोष दे सकती है।"

यह साफ है कि पार्टी की बेंच स्ट्रेंथ चिंताजनक रूप से कमजोर है। 16 आरक्षित सीटों के लिए पार्टी के पास कोई तैयार विकल्प नहीं है। वहीं दूसरी ओर, सीपीएम और बीजेपी दलित और आदिवासी उम्मीदवारों को तैयार करने के लिए ज़ाहिर तौर पर प्रयास कर रही हैं, जिससे कांग्रेस की चिंता और भी बढ़ गई है।

नेतृत्व ने मानी गलती, बदलाव का वादा

कांग्रेस के एक वरिष्ठ सूत्र ने इस संकट को स्वीकार किया, लेकिन जोर देकर कहा कि बदलाव आने वाला है। उन्होंने बताया, "एआईसीसी (AICC) अब मछुआरे, एससी और एसटी समुदायों से नए चेहरे चाहती है, न कि कोडिकुन्निल और [टी. एन.] प्रथपन जैसे पुराने और थके हुए चेहरों को। हमने कुछ होनहार नए चेहरों की पहचान की है, और 2026 में एक स्पष्ट पीढ़ीगत बदलाव देखने को मिलेगा।"

सूत्रों के मुताबिक, इस साल मई में 42 साल की उम्र में निधन हो चुके पत्तनमतिट्टा जिला कांग्रेस कमेटी (DCC) के उपाध्यक्ष और जिला पंचायत सदस्य एम. जी. कन्नन की विधवा सजीथामोल, विधानसभा चुनाव के लिए पिछड़े समुदाय से कांग्रेस की पसंद में से एक हो सकती हैं।

दांव पर लगी है सत्ता की वापसी

140 सदस्यीय विधानसभा में, ये 16 आरक्षित सीटें निर्णायक साबित हो सकती हैं। इस मोर्चे पर ज़मीन खोने का मतलब कांग्रेस की सत्ता में वापसी की उम्मीदों पर पानी फिरना हो सकता है। कोट्टायम की पी. आर. सोना जैसी नेता - जो शिक्षित हैं, डॉक्टरेट की डिग्री रखती हैं और सामाजिक कार्यों में सक्रिय हैं - उस तरह की प्रोफाइल का प्रतिनिधित्व करती हैं जिसे पार्टी को सालों पहले तैयार करना चाहिए था। सूत्रों का कहना है कि इसके बजाय, जमीनी स्तर पर दलित नेतृत्व की उपेक्षा ने कांग्रेस को आज अंतिम समय में विश्वसनीय उम्मीदवारों के लिए पूरे राज्य में भटकने पर मजबूर कर दिया है।

यह विडंबना ही है कि एक पार्टी, जिसने कभी के. के. बालकृष्णन जैसे दिग्गज पैदा किए - जिन्होंने हरिजन कल्याण और परिवहन सहित कई मंत्री पद संभाले - और डॉ. कुट्टप्पन जैसे कट्टर अंबेडकरवादी, जो गुटीय तोड़फोड़ के बावजूद विधानसभा में पहुंचे, आज कुछ जाने-माने दलित नेताओं को खोजने के लिए भी संघर्ष कर रही है।

जैसे-जैसे चुनाव की उलटी गिनती शुरू हो रही है, कांग्रेस को यह एहसास हो रहा है कि दशकों तक अपने दलित और आदिवासी नेताओं की अनदेखी और उन्हें दरकिनार करने की गलती को केवल उम्मीदवारों की खोज से सुधारा नहीं जा सकता। अतीत तेजी से उनका पीछा कर रहा है - और हो सकता है कि पार्टी को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़े।

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