पितृसत्ता और जातिवाद से मुक्ति के बाद ही सपनों का भारत बन पाएगा!

पितृसत्ता और जातिवाद से मुक्ति के बाद ही सपनों का भारत बन पाएगा!
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हमारा देश पितृसत्ता से ग्रसित है. यहां जन्म लेते ही अमूमन महिला और बहुजनों से नफरत करना सिखाया जाता है. चूंकी संसाधन, शिक्षा, संस्कृति, समाज, राजनीति आदि पर शुरू से इन्हीं का कब्जा रहा है तो लिंग और जाति के आधार पर किए जाने वाले शोषण की पीड़ा को ये समझ नहीं पाए. चूंकी शोषणकर्ता भी यही रहे हैं तो इन्हें इसमें कुछ गलत नहीं दिखा, हमारी पीड़ा और संघर्ष को इग्नोर किया गया. शोषण और नफरत का चरम ऐसा कि हमें गांव से बाहर रखा गया, फटे-पुराने कपड़े दिए, झूठा खाना और गुलामी दी गई.

साहित्य पर भी चूंकि शोषणकर्ताओं का कब्जा रहा है तो हमारी पीड़ा का बखान न के बराबर है. इसके दूसरी ओर मनुस्मृति और बहुजन विरोधी साहित्य हमारे ऊपर थोप दिया गया. यह हजारों सालों से चल रहा है, यह अब भी जारी है. लेकिन बाबा साहेब के संविधान की वजह से हमें इतिहास का पता चल चुका है. अत्याचार की तमाम कहानियां हमारे दिलों में जिंदा हो गई हैं. सुरेखा भोतमांगे, रोहित वेमुला और पायल तड़वी जैसे लाखों उदाहरण है कि कैसे आगे बढ़ते किसी बहुजन को इस ब्राह्मणवादी पितृसत्ता ने मार दिया, उनके सपने मार दिए.

इस देश में मुझ जैसों को बहुत ही अलग महसूस करवाया गया है. उनकी भाषा, उनके कपड़े, उनका लहजा हर चीज जैसे मुझे काटने को दौड़ते थे. शुरू में तो मुझे ऐसा लगा कि शायद मुझमें ही कोई कमी है. लेकिन कुछ समय बाद मैं समझ गई कि यह एक सिस्टम, एक संस्कृति है जिसमें मैं फिट नहीं बैठती. वह सिस्टम और संस्कृति है ब्राह्मणवादी पितृसत्ता की, कुछ दिन और गहन चिंतन करने पर मुझे यह भी महसूस हुआ कि अमूमन जैसा सवर्ण समाज में सिखाया जाता है, वे सारी प्रैक्टिस चालू है और किसी को इससे कोई शिकायत नहीं है या उन्हें इसका अंदाजा ही नहीं है कि यह लोकतांत्रिक समाज के लिए कितना खतरनाक है.

भारत का सो कॉल्ड सवर्ण समाज बहुजनों के प्रश्नों और चिंताओं को पहले इग्नोर करता था, लेकिन चूंकि अब हम शिक्षित होते जा रहे हैं तो सदियों के अत्याचार और प्रतिनिधित्व को लेकर सवाल कर रहे हैं. मैं सच कह रही हूं इन सवालों से उन्हें बेहद घबराहट हो रही है, हजारों सालों का साम्राज्य दरक रहा है और यही वजह है कि दलित-आदिवासियों को भी वे हिंदू बनाने की दिनरात कोशिश कर रहे हैं. जब आप उनसे मिलेंगे तो वे आपसे बहुत अच्छे से बात करेंगे, शोषण और इतिहास पर ज्ञान देंगे लेकिन जैसे ही प्रतिनिधित्व का सवाल आप उठाएंगे वे घबरा जाएंगे. मेरे कई पोस्ट्स पर उनका नकाब उतरा, वे बर्दाश्त नहीं कर पाए कि सदियों की पीड़ा, भेदभाव और प्रतिनिधित्व जैसे सवाल पर मैं क्यों लिख रही हूं!

'अपर कास्ट' प्रीविलेज को वे हर जगह जैसे यूज करते हैं, अगर विश्वास ना हो तो मीडिया में कौन लोग काम कर रहे हैं जाकर उनके टाइटल देख आइए. खोजने से आपको यहां दलित-आदिवासी नहीं मिलेंगे, इस दमघोंटू माहौल से उन्हें कोई दिक्कत नहीं है क्योंकि बचपन से उन्होंने यही सीखा है और यही माहौल देखा है. वॉयस ऑफ द वॉयसलेस लोगों को भी इससे कभी घुटन नहीं हुई, उन्होंने अपनी मौन सहमति दे दी क्योंकि शायद उन्हें भी अपना प्रीविलेज खोने का डर है, वे सामाजिक न्याय और शोषण जैसे विषयों पर मजबूरन लिखते और बोलते हैं, शायद यह एक जरिया भी है अवॉर्ड पाने का, खुद को लिबरल-प्रोग्रेसिव साबित करने का, लेकिन मेरे इस सवाल का जवाब वे दे नहीं पाए हैं कि जनाब शोषणकर्ता भी आप और मसीहा भी आप! यह कैसे?

देश की 90 फीसदी जनसंख्या के पास तकरीबन 15 फीसदी संसाधन है और 10 फीसदी जनसंख्या के पास 85 फीसदी संसाधन. दुनिया के तमाम आंकड़े और रिपोर्ट्स इसकी तस्दीक करते हैं कि ये बेईमान लोग हैं, मानवता यहां दम तोड़ रही है फिर भी इनके कान पर जूं तक नहीं रेंग रही है. इसकी सबसे बड़ी वजह है कि इन्हें अभी भी यह विश्वास है कि यही व्यवस्था है और यह सिस्टम यूं ही बना रहेगा. उन्हें इतिहास का ज्ञान नहीं है कि कैसे महिलाओं ने, दासों ने अपना हक छीन लिया और दुनिया में छा गए. भारत में भी वह दिन दूर नहीं है जब संसाधनों का न्यायिक बंटवारा होगा, जब बहुजनों और अल्पसंख्यकों को उनका हक मिलेगा, जब महिलाएं ब्राह्मणवादी पितृसत्ता से आजाद हो जाएंगी.

सबसे अंत में यही कहना चाहूंगी कि सो कॉल्ड अपर कास्ट प्रीविलेज को फेंक दीजिए, इसका इस्तेमाल और इसके आधार पर शोषण करना बंद कीजिए. सिर्फ ज्ञान की बातें न कर मानवता को अपने जीवन में उतारिए. जब तक जाति-धर्म का साम्राज्य बनाकर रखिएगा शोषण होता रहेगा, एक ऐसा समाज बनाइए जो समतामूलक हो, जिसमें किसी तरह का भेदभाव न हो. मुझे उम्मीद है कि जो भी सवर्ण साथी इस पोस्ट को पढ़ रहे हैं वे जरूर इसपर विचार करेंगे कि कैसे एकबार फिर भारत को महान बनाया जाए, एक ऐसा समाज जिसमें गैरबराबरी दूर-दूर तक ना हो, एक ऐसा सुंदर भारत जिसमें सभी अपने सपने पूरा कर सकें, जिसमें जाति-धर्म और लिंग के आधार पर हिंसा ना हो, सही मायने में बाबा साहेब-फूले दंपत्ति और फातिमा शेख के सपनों का भारत.

मीना कोटवाल, फाउंडर, द मूकनायक

(डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं)

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