पलायन और रोजगार की कमी का दंश झेल रहे बांदा के विस्थापित

लोकसभा चुनाव 2024: बुंदेलखंड सबसे पिछड़ा इलाक़ा है जहां अनुसूचित जाति के लोग रहते हैं। यह इलाक़ा मोदी और योगी सरकारों की विकास परियोजनाओं से अभी तक महरूम है।
पलायन और रोजगार की कमी का दंश झेल रहे बांदा के विस्थापित

बांदा/लखनऊ (उत्तर प्रदेश): जर्जर घर, बंद दरवाजे और सुनसान सड़कें उत्तर प्रदेश के बांदा जिले में झंडुपुर्वा की खासियत है। नारायनी ब्लॉक में अतारा ग्रामीण राजस्व गांव के इस इलाके में करीब करीब हर घर में ताला लटका हुआ है। कुछ घरों में केवल बुजुर्ग लोग रहते हैं।

क्या यहां कोई संक्रामक बीमारी या संभावित प्रशासनिक कार्रवाई का डर है जो लोगों को भागने के लिए मजबूर कर रहा है? जवाब न में है। बुंदेलखंड क्षेत्र के कई गांवों से बड़े पैमाने पर पलायन इसका कारण है। मध्य प्रदेश की सीमा से लगता हुआ बांदा जिला चित्रकूट डिवीजन का हिस्सा है।

बड़े पैमाने पर लोग जो विस्थापित हुए हैं उनमें अनुसूचित जातियों की तादाद सबसे ज्यादा है। इसकी वजह आर्थिक कारण है। खासतौर से पलायन करने का उद्देश्य जिंदगी की बुनियादी जरूरतों को पूरा करना है, न कि भोग विलास की जिंदगी जीने के लिए।

पानी की कमी वाला ये इलाका श्रम संभावनाओं और आमदनी की भारी कमी लोगों को दूसरे राज्यों का रूख करने के लिए मजबूर करती है जहां वे निर्माण स्थलों, कृषि क्षेत्रों में और ईंट भट्टों पर अपने पूरे परिवार के साथ काम करते हैं।

गरीबी से त्रस्त गांवों में ठेकेदारों के जरिए भट्ठा मालिकों द्वारा उन्हें काम पर रखा जाता है। ग़रीब लोगों को 10,000 रुपये से लेकर 50,000 रुपये तक एडवांस के तौर पर दिया जाता है और उन्हें अनाज के बोरियों की तरह ट्रकों में भर कर विभिन्न राज्यों में ले जाया जाता है।

अपनी बीवी और बच्चों के साथ उन्हें मुआवजे के बिना अमानवीय परिस्थितियों में काम करने के लिए मजबूर किया जाता है क्योंकि उन्हें पहले से ही एडवांस पैसा दिया जा चुका होता है। काम के दौरान उन्हें अपनी रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने के लिए बहुत कम पैसा मिलते हैं।

उन्हें तब तक लौटने नहीं दिया जाता है जब तक कि कम पर ले जाते समय एडवांस रकम का भुगतान वादे के मुताबिक पूरा नहीं हो जाता। वे जून या जुलाई में अपने गांवों में लौटते हैं और अपनी कमाई को खत्म करने के बाद अक्टूबर या नवंबर में अपने मालिकों के पास वापस जाने से पहले दो से तीन महीने तक रहते हैं।

अफसोस की बात यह है कि यह पलायन कथित तौर पर कैराना पलायन की तरह सुर्खियों में नहीं आता है, शायद इसलिए कि यह संभावित रूप से सत्ता को मजबूत करने के बजाय इसके आधार को कमजोर कर सकता है।

मिट्टी, कच्चे ईंटों, बांस, पुआल या नरकट से बने कच्चे मकान इस गांव और इसके पड़ोसी इलाके के लोगों की आर्थिक स्थिति को समझाने के लिए काफी हैं।

वंचित तबकों के विकास के लिए सरकारी पहल और योजनाएं इन गांवों तक नहीं पहुंची हैं या सफल नहीं रही हैं। बेहद चर्चित स्मार्ट गांवों को फिलहाल भूल जाइए। इन इलाकों में सड़कें, सुरक्षित और स्वच्छ पेयजल, बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं वाले अस्पताल और अच्छे स्कूलों जैसे बुनियादी चीजों की भारी कमी है।

हालांकि ज्यादातर ग्रामीणों के पास महात्मा गांधी नेशनल ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (MGNREGA) 2005 के तहत काम पाने के लिए जॉब कार्ड हैं लेकिन उन्हें कथित तौर पर महीनों तक कोई काम नहीं मिलता है।

गरीबी, असहायता, उपेक्षा, भेदभाव की दास्तां

सुरेश कुमार कहते हैं, "अगर सरकार ने हमें यहां काम दिया होता तो हम पलायन नहीं करते। जब हमें यहां उचित मजदूरी नहीं मिलती है और काम नहीं मिलता है तो ज्यादातर लोग ईंट-भट्ठे में काम करने के लिए हरियाणा, पंजाब और इलाहाबाद का रूख करते हैं। पिछले पांच वर्षों में MGNREGA के तहत सिर्फ 21 दिनों का काम ही मिला था।"

वह निर्माण स्थलों पर और कृषि क्षेत्रों में एक मजदूर के रूप में रोजाना 250-300 रुपये कमा लेते हैं, लेकिन उन्हें एक महीने में 10 दिनों से ज्यादा दिनों का काम नहीं मिलता है। चूंकि उनके पास अपने खाने-पीने का अनाज उगाने के लिए तीन बीघा जमीन (लगभग 1,875 वर्ग मीटर या 2,314.8 वर्ग गज) है, इसलिए वह किसी तरह अपनी मामूली आमदनी से अपने परिवार की जरूरतों को पूरा कर लेते हैं।

कई गांव के लोगों का दावा है कि नौकरी की कमी लोगों को पलायन करने के लिए मजबूर करती है। इलाके में रोजगार के अवसरों को पैदा करने में राज्य और केंद्र दोनों सरकारों की विफलता ने लोगों को दूसरी जगह काम करने के लिए मजबूर किया है।

सुरेश कहते हैं, "चुनाव होने वाले हैं और टिकट दिया जा चुका है, लेकिन कम से कम हमारे मुद्दों को सुनने के लिए किसी भी राजनीतिक दल के एक भी उम्मीदवार ने हमारे गांवों का दौरा नहीं किया है।"

बांदा में 20 मई को लोकसभा चुनावों के पांचवें चरण में मतदान होगा। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के सांसद आरके सिंह पटेल के सामने विपक्षी समाजवादी पार्टी (एसपी) के शिवशंकर सिंह पटेल मैदान में हैं।

4,77,926 वोट हासिल करते हुए सिंह ने 2019 में 58,938 वोटों के अंतर से एसपी के श्यामा चरण गुप्ता को हराया था।

जबकि कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (सीपीआई), बाहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) और एसपी ने दो-दो बार ये सीट जीती है, कांग्रेस और भाजपा ने चार-चार बार ये सीट जीती है।

59 वर्षीय बाई के दोनों बेटे अपनी पत्नियों और बच्चों के साथ इलाहाबाद में एक ईंट भट्ठा में काम करते हैं।

वह कहती हैं, "मैं घर की देखरेख करने के लिए यहां अकेला रहती हूं। मेरे गुजारा का एकमात्र साधन सरकार द्वारा (सार्वजनिक वितरण प्रणाली या पीडीएस के तहत) दी गई मुफ्त राशन था। लेकिन मेरी उंगलियों के निशान वर्षों से ख़त्म हो गए हैं और राशन दुकानों में बायोमेट्रिक स्कैनर में ये निशान नहीं आते हैं। ऐसे में हमें राशन नहीं मिलता है।"

52 वर्षीय रानी के दो बेटे हैं- मनोज और अतुल। वे दोनों शादीशुदा हैं और उनके चार और तीन बच्चे हैं। उनका टूटा-फूटा घर बंद रहता है।

उनके पड़ोसी विनोद के अनुसार, ये परिवार हरियाणा में ईंट भट्टों में काम करने के लिए चला गया। उन्होंने कहा, "वे अगले साल जून-जुलाई में यहां आएंगे और अक्टूबर में फिर से वापस चले जाएंगे। परिवार काफी गरीब है।"

जय राम अंबेडकर के अनुसार, उनके पड़ोसी राजेंद्र अपनी पत्नी और तीन बेटियों के साथ ईंट बनाने का काम करने के लिए पंजाब चले गए।

वे आगे कहते हैं कि "वे भूमिहीन और गरीब लोग हैं। वे दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम करते हैं और आय का कोई दूसरा स्रोत नहीं है। राजेंद्र मानसिक रूप से बीमार हैं। उनकी पत्नी और बच्चे अपनी जरूरतों को पूरा उनके साथ काम करते हैं।"

40 वर्षीय ये शख्स जिन्हें सरकार के वेलफेयर प्रोग्राम के बारे में कुछ जारकारी थी उन्होंने इस तथ्य से नाराजगी व्यक्त की कि लोग MGNREGA के तहत काम पाने में असमर्थ हैं, जो मुख्य रूप से ग्रामीण इलाकों में रोजगार सुनिश्चित करने और पलायन को रोकने के लिए लागू किया गया था।

उन्होंने कहा, "MGNREGA से कार्डधारकों को फायदा नहीं है। हमें एक सालमें 30 दिनों का भी काम नहीं मिल रहा है। इसके तहत वादा किए गए 100 दिनों के काम के बारे में भूल जाइए। 2008 तक, यह सफल रहा। बाद में, इसमें बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार होने लगा।"

वह तीन बीघा में गेहूं, सरसों और धान सहित भोजन के अनाज की खेती करते हैं। वह पैसा कमाने के लिए एक खेतिहर मजदूर के रूप में काम करते हैं।

वे कहते हैं, "मैं बैंक ऑफ बड़ौदा का 2.5 लाख रुपये का भुगतान करता हूं, जिसे मैंने अपनी पत्नी की इलाज में खर्च करने के लिए कृषि खेती के नाम पर कर्ज लिया था। मेरे पास ऋण चुकाने के लिए पैसे नहीं हैं। बाजार में काम की कमी है। मेरे पास भी बिजली का बकाया है।" वे आगे कहते हैं, "जिंदगी नरक बन गई है और कोई भी मदद करने के लिए तैयार नहीं है।"

परिवार की पैसे की जरूरतों को पूरा करने में मदद करने के लिए उनके तीन बच्चे बहुत छोटे हैं।

वे कहते हैं, "मुफ्त राशन के अलावा हमें किसी भी कल्याण योजना से लाभ नहीं मिलता है। चूंकि हम दलित और अछूत हैं, इसलिए हमें नजरअंदाज कर दिया जाता है। कई बार आवेदन करने के बावजूद, हम में से किसी को भी केंद्र या राज्य सरकार की आवास योजनाओं के तहत एक पक्का घर नहीं मिला है।"

विकास और सामाजिक न्याय के बड़े बड़े दावों के बीच उन्होंने कहा कि उन्हें पक्का सड़क, अच्छे स्कूल और अस्पताल की सुविधा नहीं है।

उन्होंने कहा, "कोई भी सरकारी प्रतिनिधि कभी भी यहां नहीं आता है। यदि वे गंभीर होते तो हमें बीमार लोगों को अतारा ले जाना पड़ता जो कि गांव से लगभग 15 किलोमीटर दूर है। आने जाने का खर्च काफी ज्यादा है। यहां कोई भी सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) नहीं है। इस गांव में प्राइमरी स्कूल मिड डे मील देते हैं।"

58 वर्षीय सुकन्या दो बेटों की मां हैं। उनके बड़े बेटे की चार छोटी बेटियां हैं, जबकि छोटे बेटे को दो बेटियां और एक बेटा है। उनके मिट्टी से बने मकान जर्जर हालत में हैं। वे भूमिहीन हैं।

अपने घर के बाहर की घास पर बैठी हुई वह आगे कहती हैं, "वे पंजाब में हैं और ईंट भट्टे में काम कर रहे हैं।"

"वे दो या तीन महीने तक यहां रहते हैं और फिर जब उनका पैसा खत्म हो जाता है चले जाते हैं। मैं इस घर में अकेली हूं। मैं सरकार की तरफ से मिलने वाले मुफ्त राशन पर जिंदा हूं। कोई भी मुझे काम पर नहीं रखता है क्योंकि मैं अब शारीरिक रूप से कमजोर हूं। मैं हमेशा अपने बच्चों को याद करती हूं और अकेला महसूस करती हूं।"

दादू राम की छह बेटियां हैं। परिवार में बेहद गरीबी है। उनके भाई बाबू राम निधन हो गया। उनकी विधवा पत्नी और पांच छोटी लड़कियां हैं। स्थानीय स्तर पर काम न होने के कारण दोनों परिवार बाहर चले गए हैं।

पास के गांव कथेलपुरवा से राम धानी काम करने के लिए राय बारली चले गए। वे सभी भूमिहीन हैं। MGNREGA जॉब कार्ड होने के बावजूद उनमें से किसी को भी कथित रूप से कभी काम नहीं मिला।

32 वर्षीय नरेश को दो साल पहले MGNREGA जॉब कार्ड मिला था, लेकिन अब तक केवल 15 दिनों का काम मिला। छह महीने बाद, उन्हें मजदूरी (6,500 रुपये) मिली। वह दिहाड़ी मजदूर हैं लेकिन हर दिन काम नहीं मिलता है।

बात करते हुए नरेश की आंखों में आंसू आ गए। वे आगे कहते हैं, "मैं अन्य लोगों के साथ बाजार में एक जगह पर इकट्ठा होता हूं, जहां से हमें विभिन्न कार्यों के लिए काम पर ले जाया जाता है। जो लोग भाग्यशाली हैं वे काम पर जाते हैं; जिन्हें काम नहीं मिलता उन्हें खाली हाथ लौटना पड़ता है। काम के बिना लौटने पर आप हमारे दर्द की कल्पना नहीं कर सकते। हमारे बच्चे हमारे काम से वापस आने का इंतजार करते हैं ताकि वे कुछ अच्छा खाना खा सकें। जब हम खाली हाथ लौटते हैं तो उनसे सामना करना मुश्किल हो जाता है। कभी कभी मैं आत्महत्या कर लेना चाहता हूं।"

उन्हें लेबर सप्लायर के द्वारा एक बंधुआ मजदूर के रूप में काम करने के लिए अगरतला में बेच दिया गया था, लेकिन अदालत के हस्तक्षेप के बाद वहां से छूटे।

उत्तर प्रदेश के 75 जिलों के 826 ब्लॉकों में 58,906 ग्राम पंचायतें हैं। MGNREGA जॉब कार्ड इन पंचायतों में लगभग 189.65 लाख घरों में हैं। इनमें से 91.66 लाख सक्रिय (कामकाजी परिवार) हैं। शेष 97.99 लाख यानी कार्डधारकों के आधे से अधिक निष्क्रिय हैं।

इसके कई कारण हो सकते हैं। यह भी सच्चाई है कि मनरेगा लाभदायक नहीं है। इसमें मजदूरी बाजार दरों की तुलना में बहुत कम है, काम की कमी, मजदूर उस तरह से काम की मांग करने में असमर्थ हैं जो MGNREGA के तहत दिया जाता है, या जबानी अनपढ़ मजदूरों द्वारा किए गए काम के लिए आवेदन का पंचायत के अधिकारियों द्वारा ठीक से स्वीकार नहीं किया जाता है और रिकॉर्ड नहीं किए जाते हैं।

इन गांवों का दौरा करने के बाद यह साफ हो गया कि सभी सरकारी कार्यक्रमों का पैसा अंततः उक्त लाभार्थियों तक पहुंचने से पहले खत्म हो जाता है।

स्थानीय राजनीति भी MGNREGA के तहत काम देने से रोकती है। गांव के प्रधान के करीबी लोगों को काम मिलता है, जबकि दूसरे को नकार दिया जाता है। जॉब कार्ड या MGNREGA मास्टर रोल का विश्लेषण इस आरोप को पुष्ट करता है। आंकड़ों के अनुसार, एक सामान्य पैटर्न सामने आता है कि कई लोगों को ग्राम पंचायत चुनावों के बाद काम मिलना बंद हो गया।

नरेश के मुताबिक यदि सरकार इस कार्यक्रम के वास्तविक उद्देश्य को हासिल करना चाहती है तो मनरेगा को कॉटेज और कृषि व्यवसायों से जोड़ा जाए। छोटे और सीमांत किसानों की फसलों को नरेश MGNREGA से भी जोड़ा जाना चाहिए।

वह सुझाव देते हैं कि, "यह मजदूरों और किसानों को समान रूप से मदद करेगा। इसके अलावा, यह कार्य योजना को कम नहीं करेगा। सरकार को उन मजदूरों के लिए एक परियोजना को लागू करना चाहिए जो बड़े शहरों से लौटते हैं ताकि उन्हें स्थानीय स्तर पर रोजगार मिले। इस परियोजना के भौतिक घटकों को MGNREGA के तहत श्रमिकों को दिया किया जाना चाहिए।"

आचार संहिता और चुनाव कार्यों में होने का हवाला देते हुए संबंधित सरकारी अधिकारियों ने इन मामलों पर कुछ भी बोलने से इनकार कर दिया।

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