भारतः कम मेहनताना अधिक काम और जातीय भेदभाव सहती महिला घरेलू कामगार !

नेशनल डोमेस्टिक वर्कर्स मूवमेंट के अनुसार घरेलू कामगार महिलाओं के साथ जातीय भेदभाव, गाली-गलौज, चोरी का आरोप लगाकर प्रताड़ित करने, मानसिक, शारीरिक एवं यौन शोषण की घटनाएं अक्सर होती हैं।
लखनऊ निवासी महिला कामगार रेहाना बताती है- "मैं एक भी छुट्टी नहीं करती, जहां काम करती हूं। वह लोग भी काम की छुट्टियां नहीं देते हैं।"
लखनऊ निवासी महिला कामगार रेहाना बताती है- "मैं एक भी छुट्टी नहीं करती, जहां काम करती हूं। वह लोग भी काम की छुट्टियां नहीं देते हैं।" सौजन्य-एक्शन एड.

दिल्ली। जातीय भेदभाव, जबरदस्ती घर में कैद करना, अतिरिक्त काम का बोझ, समय पर वेतन न मिलना, कम वेतन या वेतन ही न मिलना, शारीरिक, मानसिक और यहां तक की यौन शोषण। ये कुछ गम्भीर चुनौतियां हैं जिनसे घरेलू महिला कामगारों को अक्सर लड़ना पड़ता है। असंगठित क्षेत्र में काम कर रही घरेलू महिला कामगारों के लिए नियम-कानूनों की अनुपस्थिति के चलते इस कामगार तबके को शोषण का सामना करना पड़ता है। हालांकि केन्द्र व राज्य सरकारों ने ई श्रम व लेबर कार्ड बनाकर इनको पहचान दी है, लेकिन इनको शोषण से बचाने व सम्मानजनक वेतन दिलाने की दिशा में अभी तक पुख्ता काम नहीं किया है।

द मूकनायक ने ऐसे ही कुछ घरेलू महिला कामगारों से बात की। आरती (बदला हुआ नाम) संभल जिले के एक गांव की रहने वाली है और पिछले चार सालों से घरेलू कामगार के तौर पर काम कर रही है। दिल्ली के मदनगीर इलाके में अपने तीनों बच्चों के साथ किराए पर रहती हैं। वह अपने बारे में बताती है-"मेरी तीन बेटियां हैं, जिनके पालन-पोषण के लिए मुझे और मेरे पति दोनों को ही काम करना पड़ता है। दिल्ली जैसे शहर में किराए पर रहना, फिर तीन बच्चों की पढ़ाई यह सब करना मुश्किल होता है। इसलिए मैंने भी घरों में झाड़ू, पोछा, बर्तन का काम करना शुरू किया।"

आरती आगे बताती हैं- "घर का किराया ही इतना है कि जैसे-तैसे हम गुजारा कर रहे हैं। वैसे मैं जहां काम करती हूं। वह लोग काफी अच्छे हैं, लेकिन उनको एक दिन की छुट्टी भी गंवारा नहीं होती है। मैं सुबह 6 बजे उठती हूं, रात 11 बजे तक ही फ्री हो पाती हूं।"

"हमारे काम में आराम नहीं है। शारीरिक परेशानियों को लेकर भी हमें ज्यादा दिन की छुट्टी नहीं मिल पाती। मुझे भी यह लगता है कि कहीं ज्यादा दिन की छुट्टी कर ली तो वो लोग किसी और को काम पर रख लेंगे। अभी 2 महीने पहले मेरे कान का ऑपरेशन हुआ है, लेकिन आराम नहीं कर पाई। क्योंकि मुझे थोड़े पैसे की जरूरत थी। इसलिए एक हफ्ते के बाद ही काम पर जाने लगी।"-आरती ने बताया।

लखनऊ निवासी महिला कामगार रेहाना
लखनऊ निवासी महिला कामगार रेहाना सौजन्य-एक्शन एड.

बचत न पेंशन का सहारा

लखनऊ निवासी महिला कामगार रेहाना बताती है- "कभी-कभी इतना काम होता है कि घर जाकर अपना काम करने का भी समय नहीं मिलता। थकान इतनी होती है कि हम बच्चों पर ध्यान भी नहीं दे पाते। मैं एक भी छुट्टी नहीं करती, जहां काम करती हूं। वह लोग भी काम की छुट्टियां नहीं देते हैं। महीने में दो छुट्टियां भी नहीं होती हैं। दो-दो बार बुला लेते हैं। उतना पैसा भी नहीं देते जितना मैं काम करती हूं। मेरा मानना है कि हमें कम से कम इतने पैसे तो मिले जिससे हमारा घर अच्छे से चल सके। हमारे लिए कोई छुट्टी, बचत या पेंशन तो होनी चाहिए।"

द मूकनायक ने बिहार की मूल निवासी व दिल्ली में रह रही पार्वती से भी बात की। उसके पति गत्ता फैक्ट्री में काम करते हैं। तीन बच्चे हैं। पार्वती बताती हैं- "मैं चार-पांच जगह काम करती हूं। कहीं पर झाड़ू-पोछा करती हूं। कहीं पर खाना बनाती हूं। पति की आमदनी इतनी अच्छी नहीं है कि मैं ढंग से घर चला सकूं। मैं अपने बच्चों के लिए टीवी नहीं खरीद पा रही हूं। किसी ने अपना पुराना टीवी मुझे दिया भी, लेकिन वह खराब था। मेरे पास इतने पैसे भी नहीं हो पा रहे हैं कि मैं उसे टीवी को ठीक करवा सकूं।"

" सुबह 8 बजे घर से निकलती हूं। दोपहर 3 बजे घर वापस आती हूं। फिर शाम को 6 बजे खाना बनाने जाती हूं। वहां से 9 बजे तक वापस आती हूं। बताइए, कैसे मैं अपने बच्चों को समय दे पाऊंगी। बच्चों की तबीयत भी खराब हो तब भी काम पर जाना ही पड़ता है। छुट्टी तो आप भूल ही जाइए।"-पार्वती बताती हैं।

काम के घंटे, मेहनताना तय नहीं

द मूकनायक ने घरेलू महिला कामगारों के लिए काम कर रही स्वयंसेवी संस्था सेवा संघ सदस्यों से बात की। संघ की लता ने बताया- "घरेलू कामगार महिलाएं बहुत सारे काम करती हैं। जैसे झाड़ू, पोछा, बर्तन, खाना बनाना, बीमार या किसी बच्चे की देखभाल आदि। मेहनत वाले काम के लिए उनको पर्याप्त वेतन नहीं मिलता है ना ही छुट्टियां मिलती हैं। सरकार की किसी सामाजिक सुरक्षा स्कीम से भी नहीं जोड़ा जाता है। यह सब इसलिए हो रहा है क्योंकि इनका कोई कानून अभी तक बना ही नहीं है। कानून के आधार पर यह लोग अपना हक मांग सकते हैं। इसलिए जब कानून ही नहीं है, तो यह लोग बेचारे क्या बोलेंगे?"

लता आगे बताती हैं- "हमारे पास कई महिलाएं आती हैं जो दिन में कितनी बार, कई जगह काम करने जाती हैं। उनका कोई समय तय नहीं है। वह किसी भी समय, किसी भी वजह से, अपने बच्चे परिवार को छोड़कर काम करने चली जाती हैं। 2002 से हम इनको संगठित करने का काम कर रहे हैं। थोड़ा असर हुआ है। वसुंधरा, वसंत अपार्टमेंट में अब घरेलू कामगार को 3 दिन की छुट्टियां दी जाती है।"

नहीं मिलता ओवर टाइम

लता आगे बताती हैं- "आप देखते होंगे कि त्योहारों के समय पर इनकी जरूरत होती है। काम बहुत ज्यादा बढ़ जाता है। जहां यह दो से तीन घंटे के बजाय चार से पांच घंटे काम करती हैं। काम तो बढ़ जाता है, लेकिन एक्स्ट्रा पैसा कोई भी नहीं देता है। एक घर से दूसरे घर जाने की भागदौड़ से उनकी सेहत भी खराब होती है। मेटेरनिटी लीव तक इनके लिए नहीं होती।"

पहचान की दिक्कत

लता बताती है- "यह घरेलू कामगार महिलाएं दूसरे राज्यों से दिल्ली व अन्य शहरों में कामकाज की तलाश में आती हैं। कोई बिहार से होता है कोई झारखंड से। देश के हर कोने से यह कामगार महिलाएं शहर आकर किराए पर रहती हैं। उनके पास अपनी आईडी नहीं है, जिसकी वजह से इनका बैंक अकाउंट, राशन कार्ड आदि चीज नहीं बन पाती है। उनको कोई स्वास्थ्य सेवा भी इसी कारण नहीं मिलती है।"

बच्चों का शोषण होता है

"यह महिलाएं काम पर तो जाती हैं, लेकिन कितनी बार उनके बच्चे घर पर अकेले ही होते हैं। उनके मकान मालिक या कोई और उनके बच्चों का शोषण कर सकता है। यह समस्या भी उनके साथ बनी रहती है कि अपने बच्चों की सुरक्षा, वह किस तरीके से करें। कितनी बार चोरी का इल्जाम भी उन पर लगा दिया जाता है।"-लता ने कहा।

जातिगत भेदभाव से लेकर शोषण है आम

मीडिया रिपोर्ट के अनुसार घरेलू कामगार महिलाओं के साथ गाली-गलौज, मानसिक, शारीरिक एवं यौन शोषण, चोरी का आरोप लगाकर प्रताड़ित करने की घटनाएं अक्सर होती हैं। इनके साथ जातिगत भेदभाव जैसे, चाय के लिए अलग कप रखना व शौचालय के इस्तेमाल पर प्रतिबंध सामान्य सी बात है।

घरेलू कामगार महिलाएं अपनी समस्याओं और चुनौतियों की बात आधिकारिक रूप से नहीं बता पाती। उन्हें यह डर होता है कि उन्हें काम से निकाल दिया जाएगा। नेशनल डोमेस्टिक वर्कर्स मूवमेंट के अनुसार घरेलू कामगारों में बड़ी संख्या लड़कियों और महिलाओं की है। साल 2000 और 2010 के बीच, भारत में घरेलू कामगारों की कुल संख्या में 75 प्रतिशत की हिस्सेदारी महिलाओं की थी।

नहीं मिलता समान वेतन

घरेलू कामगार महिलाओं के काम को हमेशा ही कम महत्व दिया गया है जिनके ऊपर कई बार पूरा का पूरा परिवार टिका रहता है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार, महिलाओं को घरेलू काम में पुरुषों के तुलना में कम महत्व दिया जाता है। इसके लिए उनको समान मेहनताना भी नहीं मिलता। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, इनके वेतन में सालों साल कोई बढ़ोतरी नहीं होती।

हिमाचल प्रदेश के चंबा में कार्यरत जागो री संस्था के सर्वे में पाया गया कि 21 फीसद घरेलू कामगार महिलाएं महीने का 5000 रुपए से कम कमाती हैं। 46 फीसद महिलाएं 5-10 हजार रुपए महीना कमा पाती हैं। 15-20 हजार प्रतिमाह कमाने वाली महिलाएं 6.9 फीसद हैं और मात्र 1.9 फीसद महिलाएं ही 20 हजार से ज्यादा कमा पाती हैं। यानी 68 फीसद महिलाएं ऐसी हैं जो 10 हजार प्रति माह से कम कमा पाती हैं।

लखनऊ निवासी महिला कामगार रेहाना बताती है- "मैं एक भी छुट्टी नहीं करती, जहां काम करती हूं। वह लोग भी काम की छुट्टियां नहीं देते हैं।"
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