निजी अंगों को नुकसान पहुंचाए बिना भी बलात्कार का मामला दर्ज किया जा सकता है: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने 40 साल पुराने बलात्कार मामले में दोषसिद्धि बरकरार रखी, कहा- चोट के बिना भी हो सकती है सजा
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नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने 40 साल पुराने एक मामले में ट्यूशन शिक्षक की बलात्कार की सजा को बरकरार रखते हुए महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है। अदालत ने स्पष्ट किया कि यदि अन्य साक्ष्य बलात्कार की पुष्टि करते हैं, तो पीड़िता के निजी अंगों पर चोट न होने के बावजूद दोषसिद्धि दी जा सकती है।

आरोपी ने तर्क दिया था कि लड़की के शरीर पर कोई चोट नहीं थी, इसलिए आरोप सिद्ध नहीं हो सकते। साथ ही, उसने पीड़िता की मां के चरित्र पर सवाल उठाते हुए आरोपों को झूठा करार देने की कोशिश की।

इन दलीलों को खारिज करते हुए, जस्टिस संदीप मेहता और जस्टिस प्रसन्ना बी वराले की पीठ ने कहा कि मेडिकल रिपोर्ट में चोट के निशान न होने का मतलब यह नहीं है कि पीड़िता की गवाही अविश्वसनीय है। जस्टिस वराले ने अपने फैसले में लिखा, "मात्र इस आधार पर कि मेडिकल साक्ष्य में कोई गंभीर चोट के निशान नहीं हैं, पीड़िता की विश्वसनीय गवाही को खारिज नहीं किया जा सकता।"

अदालत ने यह भी कहा कि प्रत्येक बलात्कार मामले को उसके विशेष तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर आंका जाना चाहिए। फैसले में कहा गया, "हर मामले में यह आवश्यक नहीं है कि पीड़िता के निजी अंगों पर चोट के निशान हों। चोट न होना हमेशा अभियोजन पक्ष के मामले को कमजोर नहीं करता।"

पीठ ने यह भी दोहराया कि आपराधिक न्यायशास्त्र के अनुसार, बलात्कार पीड़िता की गवाही का वही मूल्य है जो किसी घायल गवाह की गवाही का होता है। अदालत ने कहा, "यदि पीड़िता की गवाही विश्वसनीय और सुसंगत पाई जाती है, तो केवल उसी के आधार पर दोषसिद्धि दी जा सकती है।"

अदालत ने आरोपी द्वारा पीड़िता की मां के चरित्र पर उठाए गए सवालों को भी खारिज कर दिया। पीठ ने कहा, "मां के कथित अनैतिक चरित्र का इस मामले से कोई संबंध नहीं है। यह दलील केवल पीड़िता की गवाही को कमजोर करने का एक हताशा भरा प्रयास प्रतीत होता है, जिसे हम अस्वीकार करते हैं।"

यह मामला भारतीय न्याय प्रणाली की सुस्त कार्यप्रणाली को भी उजागर करता है। घटना 19 मार्च 1984 की है, जब पीड़िता ट्यूशन पढ़ने गई थी। शिक्षक ने उसे कमरे में बंद कर दिया और गला दबाकर उसके साथ दुष्कर्म किया। दो अन्य लड़कियों को अलग-अलग बहानों से बाहर भेज दिया गया था। उन्होंने दरवाजा खटखटाया, लेकिन अंदर से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली। अंततः पीड़िता की दादी वहां पहुंचीं और उसे बचाया। जब पीड़िता के परिवार ने एफआईआर दर्ज कराने की कोशिश की, तो आरोपी के परिवार और स्थानीय लोगों ने उन्हें धमकाया, जिससे शिकायत दर्ज करने में देरी हुई।

1986 में ट्रायल कोर्ट ने आरोपी को दोषी ठहराया, लेकिन इलाहाबाद हाईकोर्ट को इस फैसले को बरकरार रखने में 26 साल लग गए, और सुप्रीम कोर्ट को इसे पुष्टि करने में 15 साल और लग गए। यह मामला महिलाओं के खिलाफ अपराधों में तेज़ न्याय प्रक्रिया की आवश्यकता को रेखांकित करता है।

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