ग्राउंड रिपोर्ट: पूर्वी राजस्थान में खजूर उत्पादन, क्या सफल हो पाएगा आदिवासी बागवान?

सरकार से पौध व आदान पर सहायता नहीं मिलने से निराश, लेकिन खुद के खर्च पर कर रहा प्रयोग।
खजूर के खेत में किसान
खजूर के खेत में किसान फोटो- अब्दुल माहिर, द मूकनायक

जयपुर। पश्चिमी राजस्थान के जैसलमेर जिले में खजूर के पौधे तैयार करने के लिए उत्कृष्ट केन्द्र की स्थापना के बाद पास के जोधपुर, बाड़मेर, बीकानेर जिलों में बागवानों ने खजूर के बाग तैयार कर भारी मुनाफा कमाया है। इसकी देखादेखी पूर्वी राजस्थान के सवाईमाधोपुर, करौली व आस-पास के जिलों के बागवानों ने भी खजूर के बाग लगाने शुरू कर दिए है, लेकिन सरकार से कोई आर्थिक मदद नहीं मिलने से बागवान निराश है।

देश में अमरूद उत्पादन के लिए पहचान बना चुके सवाईमाधोपुर जिले में भी एक आदिवासी बागवान ने खजूर की बागवानी की ओर कदम बढ़ाया है। करमोदा गांव के मीना झोपड़ा में रहने वाले बागवान रामप्रसाद मीना घटते अमरुद उत्पादन को देखते हुए खजूर की बागवानी में संभावना तलाशने का प्रयास कर रहे हैं, लेकिन यहां खजूर की खेती को बढ़ावा देने में सरकार का साथ नहीं मिल रहा है।

मीना ने बताया कि करमोदा इलाके में भूजल स्तर काफी नीचे है। नियमित आवश्यकता के अनुरूप बारिश भी नहीं होती है। हर एक या दो साल में सूखा पड़ता है। इस वर्ष भी औसत पचास प्रतिशत बारिश हुई है। यही वजह है कि किसान अमरूद के विकल्प के रूप में अन्य फलों की बागवानी में संभावनाएं तलाश रहे हैं। अमरूद उत्पादन में लगातार गिरावट व कम भावों के कारण ही उन्होंने खजूर व आंवला की खेती की शुरूआत की है।

मीना ने आगे बताया कि उन्होंने अमरूद हटाकर 2019 में खजूर के 22 पौधे लगाए थे। यहां खजूर में अच्छा उत्पादन हुआ तो आगे बढ़ेंगे। उन्होंने कहा कि 2019 में वह जैसलमेर गए थे। यहां उन्होंने खजूर उत्कृष्ट केन्द्र का भ्रमण कर खजूर की खेती के बारे में जानकारी जुटाई थी। इसके बाद उन्होंने सवाईमाधोपुर में खजूर की खेती का परीक्षण करने के लिए 22 पौधे लाकर लगाए थे।

खजूर का खेत
खजूर का खेत

सरकार से नहीं मिली कोई मदद

मीना ने बताया कि सवाईमाधोपुर जिले में 80 प्रतिशत से अधिक आदिवासी व मुस्लिम किसान ही बागवानी से जुड़े हैं। उन्हें उम्मीद थी कि सरकार उद्यानकी को बढ़ावा देने के लिए भिन्न प्रकार की योजनाएं चलाती है। खजूर के लिए भी उन्हें अनुदान मिलेगा, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। खजूर के लिए उन्होंने संबंधित विभाग में अनुदान की बात की तो उन्हें मना कर दिया गया, लेकिन उन्होंने सरकारी अनुदान के बिना भी खजूर की खेती में भाग्य आजमाने के लिए 22 पौधों से परीक्षण शुरू किया है। सफल हुए तो आगे बढ़ेंगे। इससे अन्य किसानों को भी लाभ मिलेगा।

3700 रुपए प्रति पौधा

रामप्रसाद ने जैसलमेर के उत्कृष्ट केन्द्र से 2500 रुपए प्रति पौधा खरीदा। जैसलमेर से सवाईमाधोपुर लाने पर प्रति पौधा 1200 रुपए ट्रांसपोर्ट खर्च आया। इस हिसाब से खेत तक पहुंचने में एक खजूर के पौधे पर 3700 रुपए खर्च हुए। यही वजह है कि किसान खजूर की खेती के लिए हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं। सरकार अनुदान दे तो किसान खजूर की खेती की ओर कदम बढ़ाएं।

मीना बागवानी को लेकर जागरूक है। अपने स्तर पर भी नवाचार करते रहते हैं। उन्हें खजूर की बागवानी की अच्छी समझ है।

आपको बता दें कि खजूर (फीनिक्स हेक्टौलीफेरा एल.) शुष्क जलवायु में उगने वाला प्राचीनतम फलदार वृक्ष है। मुख्यतया इस फल की खेती ईरान, इराक, पाकिस्तान, अल्जीरिया, लिबिया, सउदी अरब, मोरक्को, इजराइल, ट्यूनिशिया, मिश्र सहित भारत में भी होती है।

भारत में खजूर की खेती व्यावसायिक पैमाने पर गुजरात के कच्छ क्षेत्र में की जाती है। गुजरात के अलावा राजस्थान एवं तमिलनाडू राज्य में भी वर्तमान में खजूर की खेती प्रारम्भ की गयी है। राजस्थान के शुष्क व अर्ध-शुष्क जलवायु वाले क्षेत्र जैसलमेर, बीकानेर, बाडमेर, जोधपुर, नागौर चुरू, श्रीगंगानगर, हनुमानगढ़ आदि जिलों में खेती की जा सकती है। राजस्थान में लगभग 1042 हैक्टेयर में खजूर की खेती की जा रही है।

खजूर में पौष्टिक तत्वों की होती है भरपूर मात्रा

विशेषज्ञों की माने तो खजूर के फल पौष्टिक तत्वों से भरपूर एवं स्वादिष्ट होते हैं। इस फल के गूदे में जल (20 प्रतिशत) शर्करा (60-65 प्रतिशत), रेशे (2.5 प्रतिशत), प्रोटीन (2.0 प्रतिशत), वसा, पोटेशियम, कैल्शिायम, तांबा, मैग्नीशियम, क्लोरिन, सल्फर एवं फॉसफोरस तत्व (प्रत्येक 2.0 प्रतिशत से कम) पाये जाते हैं। कुछ मात्रा में विटामिन ए, बी एवं बी 2 भी पाये जाते हैं। कार्बोहाइड्रेट की प्रचूरता के कारण एक किलो ताजा फलांे से लगभग 3150 कैलोरी ऊर्जा प्राप्त होती है। फलों को ताजा फल (डोका अवस्था). मुलायम पिण्ड खजूर एवं सूखा कर छुहारा के रूप में उपयोग में लिया जाता है।

जलवायु परिवर्तन से समस्या

खजूर को लम्बी गर्म शुष्क, ग्रीष्म ऋतु तथा मध्यम शीत ऋतु और फल पकते समय वर्षा रहित जलवायु की आवश्यकता होती है। फूल आने व फल पकने के लिए सही तापमान 25 से 40 डिग्री सैल्सियस की जरूरत होती है। मई जून में फलों का पकना प्रारम्भ होता है। फलों की वृद्धि की प्रारंभिक अवस्था में वर्षा कम नुकसान पहुंचाती है, लेकिन फल पकने पर बारिश अधिक नुकसान पहुंचा सकती है। इस फल के लिए रेतीली दोमट एवं अच्छी जल निकास युक्त 7-8 पी.एच. मान वाली मृदा सही रहती है। लम्बे समय तक पानी भरा रहे, ऐसी जमीन इसके लिए अनुकूल नहीं है। किसी भी अन्य फल वृक्ष की तुलना में यह खजूर का पौधा अधिक क्षारीयता सहन कर सकता है। अच्छी जमीन एवं मीठे पानी में इसका उत्पादन अधिक होता है।

खजूर की किस्में

राजकीय खजूर उत्कृष्ट केन्द्र सगरा-भोजका जैसलमेर पर कुल 9 किस्मों के खजूर के पौधे तैयार किए जाते हैं। इनमें 7 मादा किस्में एवं 2 नर किस्में हैं।

मादा किस्में

खुनैजी: इस किस्म की उत्पत्ति ओमान से हुई है। यह किस्म जल्दी पककर तैयार हो जाती है। इस किस्म के फल डोका अवस्था में लाल रंग के एवं मीठे होते हैं। देखने में बहुत आकर्षित लगते हैं। फल खाने में कुरकुरे एवं स्वादिष्ट होते हैं। इस किस्म के ताजा फल खाने में स्वदिष्ट लगते हैं। फल का औसत वजन 10.2 ग्राम तथा उनमें कुल घुलनशील ठोस पदार्थ 43 प्रतिशत पाया जाता है तथा औसत उपज 60-80 किलोग्राम प्रति पौधा की दर से प्राप्त होती है।

बरही: इस किस्म की उत्पत्ति बसरा (इराक) से हुई है। यह किस्म अधिक पैदावार देने वाली है। इसके फल मध्यम आकार के सुनहरे पीले रंग के होते हैं। खाने में मीठे, मुलायम एवं स्वादिष्ट होते हैं जो इसकी अन्य किस्मों से अलग पहचान बनाते है। औसत उपज 100-150 किग्रा प्रति पौधा की दर से प्राप्त होती है।

जामली: यह किस्म मध्यम से देरी में पकने वाली एवं अधिक पैदावार देने वाली है। फलों का रंग सुनहरा पीला होता है। औसत उपज 80-100 किलोग्राम प्रति पौधा की दर से प्राप्त होती है। इस किस्म में गुच्छे का अधिकतम वजन 13.7 किलोग्राम तक पाया गया है।

खदरावी: इस किस्म के पेड़ वृद्धि में छोटे होते है। फल पीला हरापन लिए होते हैं तथा कसैले होते है, आकार में लम्बे, शीर्ष चोडा तथा आधार पर हलके चपटे होते हैं। यह पिण्ड खजूर बनाने के लिए होते हैं। फलों की औसत उपज 60-80 किलोग्राम प्रति पौधा होती है।

खलास: इस किस्म की उत्पत्ति सउदी अरब व इराक से हुई है। फल पीले मीठे तथा पिण्ड अवस्था में सुनहरे भूरे होते हैं। औसत उपज 50-70 किलोग्राम प्रति पौधा की दर से प्राप्त होती है।

सगाई: इस किस्म के फल पीले रंग के होते हैं। फल खाने पर खसखसाहट पैदा करते है एवं ज्यादा स्वादिष्ट नहीं होते है। पूरी तरह पकने पर ही खाने योग्य होते हैं। औसत उपज 70-100 किलोग्राम प्रति पौधा की दर से प्राप्त होती है। फल देरी से पकता है तथा छुआरा ओर पिंड के लिए उपयुक्त है।

मेडजूल: इस किस्म की उत्पत्ति मोरक्कों से हुई है। इस किस्म के फलों का रंग डोका अवस्था में पीला नारंगीपन में स्वाद कसैला होता है। 20 से 40 वजनी बड़े आकार के फल होते हैं जो आकर्षक लगते हैं। होते है फल देर से पककर तैयार होते हैं एवं छुहारा बनाने के लिए अच्छे रहते है।

अभी खजूर की बागवानी पर मदद नहीं

सवाईमाधोपुर उपनिदेशक उद्यान विभाग चन्द्रप्रकाश बढ़ाया कहते हैं कि सवाईमाधोपुर में खजूर की खेती की डिमांड नहीं है। एक किसान ने ट्रायल के तौर पर लगाए हैं। सवाईमाधोपुर की जलवायू खजूर के लिए उपययुक्त नहीं है। फिर भी किसान सफल होता है तो इस ओर सरकारी अनुदान के लिए कदम बढ़ाए जाएंगे। बढ़ाया ने कहा कि जिस मौसम में खजूर का फल पककर तैयार होता है उस वक्त हमारे यहां तेज अंधड़ चलता है। ऐसे में फल गिरने की आशंका रहती है। कम वर्षा वाले इलाकों में खजूर की खेती सफल हो सकती है। सवाईमाधोपुर में जुलाई से अगस्त के बीच जब खजूर का फल पकता है अधिक वर्षा होने की संभावना रहती है। यह खजूर की खेती को नुकसान पहुंचाती है। बढ़ाया ने कहा कि किसानों को आधुनिक खेती की ओर बढ़ना चाहिए।

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