पटना। “कई बार जब कोई शव अंतिम संस्कार के लिए नहीं आता तो हमें भूखा भी सोना पड़ता है। तीन बच्चे हैं, पत्नी है, घर नहीं है। सरकारी जमीन पर झोपड़ी बनाकर रहते हैं। कोई सुनने वाला नहीं है हमारी, फिर सरकार कैसे सुनेगी!”
पटना के बांस घाट पर रहकर वर्षों से अंतिम संस्कार में सेवा देने वाले बिहार के महादलित डोम समुदाय के जुगनू, द मूकनायक से बातचीत में यह दर्दभरी व्यथा सुनाते हैं। उनकी थकी हुई आंखों से साफ झलकता है कि यह केवल शब्द नहीं, बल्कि संघर्ष की परछाइयाँ हैं।
जुगनू आगे सवाल उठाते हुए कहते हैं, “क्या किया सरकार ने हमारे लिए? आपको हमारी हालत से पता नहीं चलता क्या? हम तो समाज का सबसे कठिन काम करते हैं। मरने के बाद भी इंसान को शांति दिलाने का काम हमारे हाथों से पूरा होता है। लेकिन बदले में हमें क्या मिला? भूख, बेबसी और वादे, जो कभी पूरे नहीं हुए”
द मूकनायक की टीम जब पटना के बांस घाट पहुँची तो वहाँ का दृश्य मौन था। गंगा किनारे पसरी शांति को बस जलती चिताओं की चटकती आवाज़ तोड़ रही थी। डोम समुदाय के लोग अपनी परंपरा निभा रहे थे, कंधों पर लकड़ियों का बोझ उठाए वे एक अनजान शव की अंतिम यात्रा के लिए चिता तैयार कर रहे थे। उनके चेहरे पर कोई हावभाव नहीं, बस कर्तव्य की चुप्पी थी। यह वही क्षण था जब जीवन और मृत्यु के बीच की सबसे गहरी खाई को भरने का जिम्मा समाज ने हमेशा इन पर डाल दिया है।
यह दृश्य साफ बता रहा था, की बांस घाट और उसके आसपास की डोम बस्ती आज भी समाज के हाशिए पर खड़ी है। यह वही समुदाय है जिसने सदियों से दूसरों की "मुक्ति" की जिम्मेदारी उठाई, श्मशान घाट पर चिता सजाना, अंतिम संस्कार कराना, और परंपरागत रीति-रिवाज निभाना। लेकिन विडंबना यह है कि जिसने दूसरों को "मुक्ति" दी, वह खुद गरीबी, उपेक्षा और भेदभाव की जंजीरों में जकड़ा हुआ है।
डोम बस्ती में रहने वाले परिवारों की आजीविका अब भी श्मशान घाट और उससे जुड़े कामों पर निर्भर है। कई लोग लकड़ी बेचकर, चिता सजाकर या घाट की सफाई करके अपना गुजर-बसर करते हैं। पीढ़ियों से चला आ रहा यह काम सामाजिक दृष्टि से सम्मानजनक नहीं माना गया, और यही वजह रही कि डोम समुदाय हमेशा "नीच जाति" अछूत के ठप्पे के साथ जीता रहा।
शायद अब डोम समुदाय कि रकार और प्रशासन से मदद की उम्मीद टूट चुकी है! जुगनू आगे कहते हैं, “राजनेता चुनाव के समय वादे करते हैं, लेकिन हमारी बस्ती में आने वाले लोगों ने कभी वादे पूरे नहीं किए। जुगनू ने कहा, -“मैं चाहता हूँ कि मेरे बच्चे यह काम न करें। पढ़-लिखकर कुछ और करें। लेकिन कैसे? सरकार ने हमें कभी इंसान नहीं समझा। अगर समझा होता तो हमारे सिर पर छत होती।
बस्ती के ज्यादातर बच्चे स्कूल तो जाते हैं, लेकिन गरीबी और भेदभाव उन्हें बीच रास्ते में ही रोक देती है। कई बच्चों को पढ़ाई छोड़कर मजदूरी करनी पड़ती है। बस्ती में पक्की सड़कें, स्वच्छ पानी और स्वास्थ्य सुविधाएँ आज भी नाम मात्र की हैं। बीमार पड़ने पर लोगों को दूर अस्पताल भागना पड़ता है, जहां अक्सर पैसे की कमी इलाज में बाधा बनती है।
समाज में सम्मान पाने की सबसे बड़ी लड़ाई इस बस्ती के लोगों की है। “हम भी इंसान हैं, हमारी भी अपनी पहचान है,” यह आवाज डोम बस्ती की गलियों से बार-बार उठती है। कई युवा अब पारंपरिक काम छोड़कर नौकरी या छोटे व्यवसाय की ओर बढ़ना चाहते हैं, लेकिन अवसरों की कमी और जातिगत भेदभाव उनका रास्ता रोक देते हैं।
द मूकनायक से बातचीत में डोम समुदाय के एक अन्य युवक भीमराम ने बताया, “यहाँ बने हमारे मकान को नगर निगम ने अतिक्रमण बताकर तोड़ दिया था। अब कुछ ही झोपड़ियां बची हैं, बाकी लोग अलग-अलग जगह जाकर किसी तरह अपना बसेरा ढूंढ चुके हैं। घर में बच्चे और पूरा परिवार है, लेकिन 200-300 रुपये की मजदूरी में सबका पेट पालना बहुत मुश्किल हो जाता है।”
उन्होंने आगे कहा, "बची-खुची कमाई भी इलेक्ट्रिक शवगृह ने छीन ली है। जब घाट पर पानी भर जाता है तो लोग इलेक्ट्रॉनिक शव संस्कार गृह का इस्तेमाल करते हैं, जिसकी वजह से हमें अग्निदान की परंपरा से मिलने वाला पैसा नहीं मिलता।"
बिहार सरकार ने अनुसूचित जातियों के लिए कई योजनाएँ संचालित की हैं, छात्रवृत्ति, स्वरोज़गार, पेंशन और शिक्षा के अवसर। लेकिन डोम बस्ती के लोग कहते हैं कि ज़्यादातर योजनाओं की जानकारी तक उनके पास नहीं पहुँचती, और जो पहुँचती भी है, वह कागज़ी प्रक्रियाओं और बिचौलियों की भेंट चढ़ जाती है।
बिहार सरकार के राज्य महादलित आयोग के पूर्व सदस्य तूफान राम भी डोम समाज से आते हैं। उन्होंने अपने जीवन का बड़ा हिस्सा समाज के उत्थान के लिए संघर्ष में लगाया और लगातार आवाज़ उठाते रहे।
तूफान राम ने द मूकनायक से बातचीत में बताया, कि डोम समुदाय की स्थिति किसी से छुपी नहीं है। आज भी जातिव्यवस्था, छुआछूत और हीनभावना के कारण यह समाज पिछड़ेपन से उबर नहीं पाया है। शिक्षा, रोजगार और सम्मान की कमी इस समुदाय की सबसे बड़ी समस्या बनी हुई है।
उन्होंने कहा कि हमारा संघर्ष अभी जारी है। डोम समाज को आर्थिक और सामाजिक न्याय दिलाने के लिए हम लगातार सरकार से मांग रखते हैं। जब तक समान अवसर और बराबरी का अधिकार नहीं मिलेगा, तब तक यह आंदोलन रुकने वाला नहीं है।
डोम एक पारंपरिक समुदाय है, जिसे भारत की जाति व्यवस्था में सबसे निचली श्रेणी में रखा गया है। यह समुदाय मुख्य रूप से अंतिम संस्कार (विशेषकर श्मशान घाट पर शव-दाह) और ढोल-नगाड़े बजाने जैसे कामों से जुड़ा रहा है। इन्हें समाज में अस्पृश्य माना गया और लंबे समय तक शिक्षा, भूमि और सम्मान से वंचित रखा गया।
बिहार में डोम समाज को महादलित वर्ग में शामिल किया गया है। उनकी आबादी काफी है, लेकिन सामाजिक-आर्थिक स्थिति अब भी बेहद पिछड़ी हुई है। छुआछूत और भेदभाव के कारण इन्हें गांव और शहरों में अलग बस्तियों में रहना पड़ता है। इसके बावजूद डोम समाज का इतिहास संघर्ष और धैर्य का रहा है, और आज भी यह समुदाय समानता, सम्मान और अधिकारों की लड़ाई लड़ रहा है।
समय के साथ डोम समुदाय ने अपने अस्तित्व और हक़ की लड़ाई जारी रखी। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भी कई जगह डोम समाज ने भागीदारी निभाई, लेकिन सामाजिक-आर्थिक पिछड़ापन आज भी बना हुआ है। आज़ादी के बाद सरकारों ने इन्हें महादलित की श्रेणी में रखा और कुछ योजनाएँ चलाईं, लेकिन जातिवाद और छुआछूत की गहरी जड़ों ने इनकी तरक्की की राह मुश्किल कर दी। इसके बावजूद यह समुदाय आज भी सम्मान और समान अधिकारों के लिए संघर्षरत है।
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