तमिलनाडु: मंदिर में प्रवेश पर 10 दलित परिवार को गांव से निकाला

पीड़ितों का आरोप है कि, मंदिर में प्रवेश करने के बाद सब कुछ बदल गया। प्रमुख समुदायों के सदस्य नाराज हैं और उन्होंने हमें बहिष्कृत कर दिया है।
तमिलनाडु: मंदिर में प्रवेश पर 10 दलित परिवार को गांव से निकाला

तमिलनाडु। तिरुपुर जिले में दस दलित परिवारों को मंदिर में प्रवेश करना महंगा पड़ गया। मंदिर में प्रवेश करने के कारण उन्हें गांव से बाहर निकल दिया गया। यह छुआछूत का कोई पहला मामला नहीं है। 2 मार्च, 1930 दलितों के नेता बाबा साहेब भीम राव अम्बेडकर को भी मंदिर में प्रवेश से रोका गया था। आज कई दशकों बाद भी ऐसी घटनाएं आम हैं। इसके लिए एक कानून भी बना दिया गया था। लेकिन बाद में यह कानून ख़ारिज कर दिया गया।

दरअसल, तमिलनाडु के तिरुपुर जिले के पोंगुपालयम में दस अनुसूचित जाति परिवारों का आरोप है कि एक मंदिर में प्रवेश करने के कारण उन्हें गांव से बहिष्कृत कर दिया गया है। 10 जनवरी को, तिरुपुर तालुक कार्यालय में अनुसूचित जाति और प्रमुख समुदायों के सदस्यों के बीच एक शांति बैठक आयोजित की गई और अगले दिन, 50 दलितों ने पोंगल पकाया और गांव के मरियम्मन मंदिर में प्रवेश किया था।

टीएनआईई से बात करते हुए, एससी समुदाय के एक ग्रामीण ए कंडासामी ने कहा, “हमें खुशी है कि हमने शांति बैठक के बाद मंदिर में प्रवेश किया। हालाँकि, हमारी ख़ुशी अल्पकालिक थी। हमारे प्रवेश के दौरान, न तो प्रमुख समुदाय के सदस्य और न ही मंदिर कल्याण पैनल के सदस्य मौजूद थे। हमने इस मुद्दे को गंभीरता से नहीं लिया। बाद में, उन्होंने हमें धमकाना शुरू कर दिया और प्रमुख जाति के कुछ सदस्यों ने हमें गांव से भी बहिष्कृत कर दिया। हमारे गांव में 130 एससी परिवार और 400 गैर-एससी परिवार हैं।"

"जबकि उन्होंने गैर-अनुसूचित जाति परिवारों के सदस्यों को हमें बहिष्कृत करने का निर्देश दिया है, उन्होंने कुछ अनुसूचित जाति परिवारों को हमारे समुदाय के अंदर हमारा बहिष्कार करने का आदेश दिया है। उन्होंने सदस्यों को आदेश दिया कि वे मंदिर उत्सवों और अन्य स्थानीय कार्यक्रमों के आयोजन के लिए हमसे कर न वसूलें। उन्हें हमारे परिवारों को बहिष्कृत करने के लिए ग्रामीणों द्वारा हस्ताक्षरित एक पत्र भी मिला।"

एससी समुदाय के एक अन्य ग्रामीण के मुरुगेसन ने कहा, “मंदिर में प्रवेश करने के बाद सब कुछ बदल गया। प्रमुख समुदायों के सदस्य नाराज हैं और उन्होंने हमें बहिष्कृत कर दिया है। उन्होंने आदेश दिया कि कोई भी ग्रामीण हमारे परिवारों की मदद नहीं करेगा या उनसे बात नहीं करेगा और उन्होंने स्पष्ट निर्देश दिए हैं कि हमारा समर्थन न करें।"

बाब साहेब को भी करना पड़ा था इसका सामना 

2 मार्च, 1930 को नासिक में मौजूद कालाराम मंदिर में भारत रत्न बाबा साहेब भीम राव अम्बेडकर को भी मंदिर में उनकी जाति के कारण प्रवेश से रोका गया था। जिसके बाद उन्होंने आंदोलन शुरू किया। यह भारत के इतिहास की यह वह तारिख थी, जब डॉ. बी. आर. अम्बेडकर ने कालाराम मंदिर प्रवेश आंदोलन शुरू किया था। उस वक्त अम्बेडकर की एक आवाज पर करीब 15,000 लोग इकट्ठा हो गए थे। इनमें औरतें भी बड़ी संख्या में शामिल थीं। स्थिति को देखते हुए तत्कालीन बॉम्बे सरकार ने धारा 144 लगा दी थी। पुलिस ने कई प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार किया बावजूद इसके अम्बेडकर के अनुरोध पर सत्याग्रही शांतिपूर्ण रहे। अम्बेडकर के साथ इस सत्याग्रह में भाऊराव गायकवाड़, पतितपवनदास, अमृतराव रणखंबे और पी.एन. राजभोज जैसे उनके सहयोगियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

3 साल तक चला था आंदोलन

2 मार्च, 1930 से शुरू हुआ कालाराम मंदिर प्रवेश आंदोलन अगले तीन सालों तक जारी रहा, मंदिर के दरवाजे निचली जातियों के लिए बंद रहे। कालाराम मंदिर प्रवेश आंदोलन के अनुभव के बाद, डॉ. बी.आर. अम्बेडकर ने किसी अन्य मंदिर प्रवेश आंदोलन में भाग नहीं लिया। उन्हें एहसास हुआ कि मंदिर प्रवेश से अछूतों की समस्याएं हल नहीं होंगी। हालांकि, आंदोलन ने उत्पीड़ित जातियों को सामाजिक और राजनीतिक रूप से जागरूक बनाने के उद्देश्य में योगदान दिया। वहीं 1 नवंबर, 1932 को पी. सुब्बारायण ने मद्रास विधान परिषद में मंदिर प्रवेश विधेयक का प्रस्ताव रखा, जिसने निचली जाति के हिंदुओं और दलितों को हिंदू मंदिरों में प्रवेश की अनुमति दी और उनके निषेध को अवैध और दंडनीय बना दिया। हालांकि, इंपीरियल काउंसिल ने जनवरी 1933 में मंदिर प्रवेश विधेयक को खारिज कर दिया।

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