नई दिल्ली: सांसद एवं विदुथलाई चिरुथाईगल कच्ची (VCK) के संस्थापक-अध्यक्ष डॉ. थोल तिरुमावलवन ने केंद्रीय सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्री वीरेंद्र कुमार को एक ज्ञापन सौंपकर दलित ईसाइयों को अनुसूचित जाति (SC) सूची में शामिल करने की मांग को तुरंत लागू करने का आग्रह किया है। उन्होंने न्यायमूर्ति के.जी. बालकृष्णन आयोग की रिपोर्ट को जल्द पेश करने और संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश, 1950 में संशोधन करने की मांग की है।
सिख और बौद्ध धर्म के अलावा अन्य धर्मों में परिवर्तित दलितों को अनुसूचित जाति (SC) का दर्जा दिया जा सकता है या नहीं - यह जांचने के लिए जस्टिस के.जी. बालकृष्णन आयोग का गठन 2022 में किया गया था जिसकी समयसीमा 2 साल तय की गई थी। रिपोर्ट 2024 तक पेश की जानी थी। हालांकि अब तक रिपोर्ट जमा करने को लेकर कोई आधिकारिक अपडेट नहीं आया है, और यह मुद्दा अभी भी लंबित है।
इस देरी ने दलित ईसाई समुदायों और समर्थकों में चिंता पैदा की है, जो सरकार से इस प्रक्रिया को तेज करने और SC श्रेणी में शामिल होने की लंबे समय से चली आ रही मांग को हल करने का आग्रह कर रहे हैं।
दलित ईसाइयों को SC सूची से बाहर रखने के कारण वे लंबे समय से सामाजिक और आर्थिक भेदभाव का सामना कर रहे हैं। संविधान के अनुसार, SC का दर्जा केवल हिंदू, सिख और बौद्ध धर्म को मानने वाले दलितों को दिया जाता है, जबकि ईसाई धर्म अपनाने वाले दलितों को इससे वंचित रखा गया है। इसके कारण दलित ईसाइयों को संवैधानिक सुरक्षा और कल्याणकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिल पा रहा है। तमिलनाडु में इनकी दशा बहुत दयनीय है।
औपनिवेशिक काल में, कई निचली जातियों को ईसाई धर्म में परिवर्तित किया गया, लेकिन उन्हें स्थापित सेंट थॉमस ईसाई समुदाय में शामिल होने की अनुमति नहीं दी गई। धर्म परिवर्तन के बाद भी उन्हें भेदभाव का सामना करना पड़ा। आज भी, दलित ईसाई चर्च के भीतर जाति-आधारित भेदभाव का सामना करते हैं, जिसमें अलग प्रार्थना स्थल और कब्रिस्तान, चर्च का प्रबंधन करने और चर्च की गतिविधियों में भाग लेने के अधिकार से वंचित होना, चर्च के नेतृत्व पदों में प्रतिनिधित्व की कमी शामिल हैं।
तिरुमावलवन ने बताया कि दलित ईसाइयों को SC सूची में शामिल करने के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएं लंबित हैं। केंद्र सरकार ने शुरू में दलित ईसाइयों को SC सूची में शामिल करने का विरोध किया था, लेकिन बाद में न्यायमूर्ति बालकृष्णन की अध्यक्षता में एक तीन सदस्यीय आयोग गठित किया गया। आयोग को दिए गए दो साल का समय पूरा हो चुका है, लेकिन अभी तक रिपोर्ट पेश नहीं की गई है। दलित ईसाई संगठनों का मानना है कि आयोग का गठन सरकार के पहले के रुख को मजबूत करने के लिए किया गया था, न कि न्याय दिलाने के लिए।
तमिलनाडु विधानसभा ने पहले ही एक प्रस्ताव पारित कर दलित ईसाइयों को SC सूची में शामिल करने की मांग का समर्थन किया है। प्रस्ताव में कहा गया है कि दलित हिंदू और दलित ईसाई एक जैसी सामाजिक-आर्थिक स्थितियों और भेदभाव का सामना करते हैं। धर्म परिवर्तन से उनकी दलित पहचान नहीं बदलती, इसलिए उन्हें SC सूची से बाहर रखना समानता और न्याय के सिद्धांतों के खिलाफ है।
तिरुमावलवन ने सरकार से तीन मुख्य मांगें रखी हैं:
न्यायमूर्ति बालकृष्णन आयोग की रिपोर्ट जल्द पेश करें: दलित ईसाइयों की मांग को तुरंत सुलझाने के लिए आयोग की रिपोर्ट को जल्द से जल्द पेश किया जाए।
संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश, 1950 में संशोधन करें: दलित ईसाइयों को SC सूची में शामिल कर समानता और न्याय सुनिश्चित किया जाए।
SC आरक्षण का प्रतिशत बढ़ाएं: दलित ईसाइयों को शामिल करने से अन्य SC समुदायों के आरक्षण पर असर न पड़े, इसके लिए आरक्षण का प्रतिशत बढ़ाया जाए।
तिरुमावलवन ने जोर देकर कहा कि धर्म परिवर्तन किसी की जाति पहचान को नहीं बदलता और न ही यह दलितों के खिलाफ ऐतिहासिक और सामाजिक अन्याय को नजरअंदाज करने का आधार होना चाहिए। उन्होंने केंद्र सरकार से तुरंत कदम उठाने और दलित ईसाइयों को अन्य SC समुदायों के समान अधिकार और सुरक्षा देने का आग्रह किया।
यह मुद्दा देशभर में चर्चा का विषय बना हुआ है, और दलित ईसाई समुदाय सरकार से त्वरित कार्रवाई की मांग कर रहा है। अब सरकार के ऊपर है कि वह इस मांग को गंभीरता से ले और संवैधानिक न्याय सुनिश्चित करे।
दलित ईसाइयों को अनुसूचित जाति (SC) श्रेणी से बाहर रखने का कारण ऐतिहासिक और कानूनी व्याख्याओं में निहित है। भारत के रजिस्ट्रार जनरल के कार्यालय (RGI) के अनुसार, SC का दर्जा उन समुदायों के लिए है जो अस्पृश्यता की प्रथा के कारण सामाजिक असमानताओं का सामना करते हैं। RGI ने सरकार को सलाह दी थी कि ऐसी स्थिति हिंदू और सिख समुदायों में ही पाई जाती है। साथ ही, RGI ने यह भी कहा कि दलित ईसाइयों और मुसलमानों को SC सूची में शामिल करने से देशभर में SC आबादी में भारी वृद्धि हो सकती है।
2001 में RGI ने 1978 के एक नोट का हवाला देते हुए कहा कि दलित ईसाई और मुसलमान, दलित बौद्धों की तरह, विभिन्न जाति समूहों से आते हैं, न कि एक ही समुदाय से। इस वजह से, उन्हें "एकल जातीय समूह" के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता, जो संविधान के अनुच्छेद 341 के खंड (2) के तहत SC सूची में शामिल होने के लिए आवश्यक है।
इस कानूनी और प्रशासनिक रुख ने दलित ईसाइयों और मुसलमानों को SC सूची से बाहर रखा है, भले ही वे सामाजिक और आर्थिक रूप से हाशिए पर रहते आए हैं। इस मुद्दे पर बहस जारी है, और समर्थकों ने इन असमानताओं को दूर करने के लिए कानून की अधिक समावेशी व्याख्या की मांग की है।
जनगणना दलित ईसाइयों की सीधी गिनती प्रदान नहीं करती है, लेकिन विद्वानों और कार्यकर्ताओं का अनुमान है कि भारतीय ईसाइयों का एक बड़ा हिस्सा, संभवतः 50% से 75% या यहां तक कि 70%, दलित समुदायों से आता है।
2001 की जनगणना के अनुसार, भारत में 24.2 मिलियन ईसाई हैं, जिनमें से दक्षिण भारत के ईसाई 12.5 मिलियन (कुल ईसाई आबादी का आधे से अधिक) और उत्तर-पूर्व के 5.4 मिलियन हैं। तमिलनाडु में ईसाई आबादी 3.8 मिलियन, कर्नाटक में 1 मिलियन, केरल में 6 मिलियन, आंध्र प्रदेश में 1.2 मिलियन और गोवा में 0.4 मिलियन है। दलित, दक्षिण भारत की कुल ईसाई आबादी का 65% हिस्सा हैं। कुछ ईसाई समूहों का दावा है कि तमिलनाडु के ईसाइयों में दलित 70% हैं।
2022 में, केंद्र सरकार ने भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश, के.जी. बालकृष्णन की अध्यक्षता में एक तीन सदस्यीय आयोग का गठन किया। इस आयोग का उद्देश्य यह जांचना था कि क्या सिख और बौद्ध धर्म के अलावा अन्य धर्मों में परिवर्तित दलितों को अनुसूचित जाति (SC) का दर्जा दिया जा सकता है। आयोग में सेवानिवृत्त IAS अधिकारी डॉ. रवींद्र कुमार जैन और UGC सदस्य प्रो. सुषमा यादव भी शामिल हैं। आयोग को अपनी रिपोर्ट दो साल के भीतर पेश करने का कार्य सौंपा गया था।
आयोग का कार्यक्षेत्र धर्म परिवर्तन के बाद दलितों के सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक परिवर्तनों, साथ ही उनके सामने आने वाले भेदभाव का अध्ययन करना है। यह जांचना भी आयोग का काम है कि क्या ये परिवर्तन उन्हें SC श्रेणी में शामिल करने का आधार बन सकते हैं। इसके अलावा, आयोग केंद्र सरकार से परामर्श करके अन्य संबंधित मुद्दों की भी जांच कर सकता है।
वर्तमान में, संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश, 1950 के तहत SC का दर्जा केवल हिंदू, सिख और बौद्ध समुदायों को दिया जाता है। शुरुआत में यह दर्जा केवल हिंदुओं के लिए था, लेकिन 1956 में इसमें सिखों को और 1990 में बौद्धों को शामिल किया गया।
दलित मुसलमानों और ईसाइयों को SC श्रेणी में शामिल करने के प्रयास लंबे समय से चल रहे हैं। 1996 में, एक सरकारी विधेयक तैयार किया गया था, लेकिन मतभेदों के कारण इसे संसद में पेश नहीं किया गया।
यूपीए सरकार ने 2004 में रंगनाथ मिश्रा आयोग का गठन किया, जिसने 2007 में अपनी रिपोर्ट में SC दर्जे को धर्म से अलग करने की सिफारिश की। इसी तरह, सच्चर समिति (2005) ने बताया कि धर्म परिवर्तन के बाद भी दलित मुसलमानों और ईसाइयों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में सुधार नहीं हुआ।
राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग और राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग ने भी दलित मुसलमानों और ईसाइयों को SC दर्जा देने का समर्थन किया है। यह मुद्दा सामाजिक न्याय और समानता के लिए एक बड़ी चुनौती बना हुआ है।
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