नई दिल्ली। देश में आरक्षण का मुद्दा एक बार फिर गरमाया हुआ है। अमीर अनुसूचित और पिछड़ी जाति के लोगों को भविष्य में आरक्षण दिया जाना चाहिए या नहीं इस पर सुप्रीम कोर्ट में जजों की पीठ इसकी सुनवाई कर रही है। आरक्षण को लेकर सुप्रीम कोर्ट में अब तक कुल 23 याचिकाएं लंबित हैं, जिनमें एससी-एसटी आरक्षण में उप वर्गीकरण का मुद्दा उठाया गया है।
मुख्य मामला पंजाब का है। जिसमें पंजाब सरकार 2006 में पंजाब अनुसूचित जाति और पिछड़ा वर्ग (सेवाओं में आरक्षण) कानून 2006 लाई थी। इस कानून में पंजाब में एससी वर्ग को मिलने वाले कुल आरक्षण में से 50 फीसद सीटें और पहली प्राथमिकता वाल्मीकि और मजहबियों (मजहबी सिख) के लिए तय कर दी गईं थीं। इसे लेकर सुप्रीम कोर्ट ने सवाल उठाया कि जिन पिछड़ी जातियों को रिजर्वेशन का पूरा फायदा मिल चुका, उन्हें अब ये छोड़ देना चाहिए ताकि अति-पिछड़ों को ज्यादा जगह मिल सके।
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एससी-एसटी कोटा पर सभी पक्षों की बहस सुनकर बुधवार को अपना फैसला सुरक्षित रख लिया है। अब जल्दी ही सुप्रीम कोर्ट फैसला देगा कि क्या राज्य सरकार को आरक्षण के लिहाज से एससी-एसटी में उप वर्गीकरण करने का अधिकार है या नहीं?
प्रधान न्याायधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सात सदस्यीय संविधान पीठ इस मामले में जो भी फैसला सुनाएगी वह आने वाले समय में आरक्षण की दिशा और दशा तय करने वाला होगा। सात न्यायाधीशों की संविधान पीठ इसी मुद्दे पर 2004 में ईवी चिन्नैया मामले में दिए गए पांच न्यायाधीशों के फैसले पर भी पुनर्विचार करेगी।
चिन्नैया के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि एसीस-एसटी आरक्षण में राज्य सरकार को उपवर्गीकरण करने का अधिकार नहीं है। हाई कोर्ट ने 2010 में पंजाब के अनुसूचित जाति और पिछड़ा वर्ग (सेवाओं में आरक्षण) कानून 2006 को असंवैधानिक ठहरा दिया था जिसके खिलाफ पंजाब सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की है। सात न्यायाधीश इस मामले को इसलिए सुन रहे हैं, क्योंकि 2004 में सुप्रीम कोर्ट की पांच न्यायाधीशों की पीठ ने ईवी चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश मामले में दिए फैसले में कहा था कि राज्य सरकार को अनुसूचित जातियों के वर्गीकरण का अधिकार नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट की पांच न्यायाधीशों की एक अन्य पीठ ने माना था कि चैन्नया के फैसले पर पुनर्विचार की जरूरत है इसलिए आरक्षण के लिहाज से एससी-एसटी वर्ग में उप वर्गीकरण के इस मामले पर सात न्यायाधीशों की पीठ विचार कर रही है। इन न्यायधीशों में प्रधान न्यायाधीश चंद्रचूड़, जस्टिस बीआर गवई, विक्रमनाथ, बेला एम त्रिवेदी, पंकज मित्तल, मनोज मिश्रा और सतीश चंद्र शर्मा की सात सदस्यीय पीठ शामिल है।
पीठ ने तीन दिनों तक सभी पक्षों की विस्तृत दलीलें सुनने के बाद मामले में फैसला सुरक्षित रख लिया। बहस के दौरान पंजाब सरकार की ओर से अनुसूचित जाति (एससी) वर्ग में ज्यादा पिछड़े ज्यादा जरूरतमंदों को आरक्षण का लाभ देने के लिए एससी वर्ग के उप वर्गीकरण को सही ठहराया गया। केंद्र ने भी इस लिहाज से उपवर्गीकरण को सही कहा, लेकिन दूसरी ओर कई पक्षों ने एससी-एसटी वर्ग के उपवर्गीकरण का विरोध किया और चिन्नैया मामले में दी गई व्यवस्था का समर्थन किया।
गुरुवार को जब एक पक्षकार की ओर से राज्य द्वारा उपवर्गीकरण किये जाने के विरोध में दलीलें दी जा रहीं थी तब पीठ की अगुवाई कर रहे चीफ जस्टिस ने टिप्पणी करते हुए कहा कि मान लीजिए कि इस मामले में उन्होंने (राज्य सरकार ने) सिर्फ वाल्मीकियों को चुना और मजहबी सिखों को छोड़ दिया, तो क्या मजहबी यह तर्क नहीं दे सकते थे कि हम भी वाल्मीकियों की तरह पिछड़े हैं, आपने हमें क्यों छोड़ दिया। चीफ जस्टिस ने आगे कहा कि हम सिर्फ वाल्मीकियों का उदाहरण दे रहे हैं, स्थिति इससे उलट भी हो सकती है। कहने का मतलब यह है कि जिन लोगों को बाहर रखा गया है वे हमेशा अपने वर्गीकरण को अनुच्छेद 14 में समानता के आधार पर चुनौती दे सकते हैं, लेकिन राज्य जवाब में कह सकता है कि हम पिछड़ेपन के विस्तार को देखकर जाति का वर्गीकरण कर सकते हैं।
पीठ में शामिल जज विक्रम नाथ ने ये मुद्दा उठाया। ताकतवर और तरक्की कर चुकी जातियों को आरक्षण की सूची से हटाने पर जंग अक्सर चलती रहती है। बेंच में शामिल जस्टिस बीआर गवई जो खुद एससी वर्ग से हैं, उन्होंने कहा कि इस समुदाय का एक व्यक्ति IAS (भारतीय प्रशासनिक सेवा) और IPS (भारतीय पुलिस सेवा) जैसी सेवाओं में जाने के बाद सबसे बढ़िया सुविधाओं तक पहुंच जाता है. क्या इसके बाद भी उनके बच्चों को आरक्षण का फायदा मिलता रहना चाहिए? ये सभी बातें पंजाब सरकार के आरक्षण से जुड़े मसले पर सुनवाई के दौरान हुईं।
बता दें कि पंजाब सरकार पंजाब अनुसूचित जाति और पिछड़ा वर्ग (सेवाओं में आरक्षण) कानून 2006 के वैध होने का बचाव कर रही है। जबकि सुप्रीम कोर्ट आर्थिक तौर पर मजबूत जातियों को इससे बाहर लाने की बात कर रहा है।
आरक्षण का विरोध करने वालों का कहना है कि ये सिर्फ 10 साल के लिए दिया गया था। दावा करने वाले कहते हैं कि खुद डॉ. भीमराव आंबेडकर ने ऐसा माना था। मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक बाबा साहेब भीम राव अम्बेडकर के पोते ने इसे कई बार ख़ारिज भी किया है। डॉ. आंबेडकर के पोते प्रकाश आंबेडकर ने कुछ समय पहले कहा था कि बाबासाहेब ने 10 सालों के लिए लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में एससी/एसटी के लिए आरक्षण की बात की थी। वहीं विधिक जानकारों की माने तो बाबा साहेब टाइम लिमिट की बात सिर्फ पॉलिटिकल रिजर्वेशन के लिए करते थे। शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में मिल रहे कोटा को किसी टाइम लिमिट में नहीं रखा गया था।
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