जातीय अत्याचार से पीड़ित दलित-आदिवासियों को राहत देने में आनाकानी पर राजस्थान हाईकोर्ट सख्त, सचिव तलब

राज्य सरकार द्वारा कॉन्टिनजेंसीय प्लान लागू नहीं करने पर हाईकोर्ट ने सामाजिक न्याय व अधिकारिता विभाग के सचिव को आगामी 9 जनवरी 2024 को पेश होने के दिए आदेश दिए।
राजस्थान हाईकोर्ट
राजस्थान हाईकोर्टफोटो साभार- इन्टरनेट

जयपुर। राजस्थान सरकार जातीय अत्याचार से पीडि़त दलित और आदिवासियों को कानूनी और आर्थिक मदद देने में लगातार लापरवाही बरत रही है। इसका संज्ञान लेते हुए राजस्थान उच्च न्यायालय ने 2017 में मसौदा समिति द्वारा तैयार अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण नियम-1995 के तहत कॉन्टिनजेंसीय प्लान (आकस्मिक योजना) को लागू करने में राज्य सरकार की विफलता को गंभीरता से लिया है। वहीं अपने आदेश में राज्य सरकार को प्लान की अधिसूचना जल्द जारी करने के आदेश दिए है। वहीं सामाजिक न्याय व अधिकारिता विभाग के सचिव को आगामी 9 जनवरी 2024 को कोर्ट में पेश होने के आदेश दिए हैं।

जयपुर स्थित एक गैर-सरकारी संगठन दलित मानवाधिकार केंद्र समिति (डीएमकेएस) ने भी 2017 में जाति-आधारित हिंसा के पीड़ितों को राहत और पुनर्वास, अतिरिक्त वित्तीय सहायता, गवाहों की सुरक्षा के प्रावधानों के साथ कॉन्टिनजेंसीय प्लान का एक ड्रॉफ्ट सौंपा था। वहीं पीड़ित की मदद के लिए निगरानी तंत्र विकसित करने की मांग की थी।

डीएमकेएस द्वारा दायर एक जनहित रिट याचिका पर सुनवाई करते हुए, उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ ने पिछले सप्ताह पारित अपने आदेश में कहा कि एससी और एसटी समुदायों के लिए कॉन्टिनजेंसीय प्लान तैयार करने का मूल उद्देश्य विफल हो जाएगा यदि इसे अंतिम रूप देने और लागू करने में देरी हुई है।

इन राज्यों ने बनाया प्लान

देश में जाति आधारित हिंसा की आशंका वाले कम से कम 15 राज्यों नेएससी और एसटी समुदायों के सदस्यों को हिंसा व धमकी से बचाने व सहायता प्रदान करने के लिए व्यापक कॉन्टिनजेंसीय स्कीम बनाई हैं और उन्हें लागू किया है। इन राज्यों में बिहार, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और ओडिशा शामिल हैं।

कोर्ट का स्पष्ट कथन

खंडपीठ में कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश एम.एम. श्रीवास्तव और न्यायमूर्ति प्रवीर भटनागर ने मामले में राज्य सरकार का रुख स्पष्ट करने के लिए सामाजिक न्याय और अधिकारिता विभाग के सचिव को 10 जनवरी को व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होने का निर्देश दिया। आदेश में कहा गया है कि संबंधित अधिकारी कॉन्टिनजेंसीय प्लान की तैयारी, अंतिम रूप देने, अधिसूचना और ड्रॉफ्ट लागू करने के संबंध में एक स्पष्ट कार्ययोजना साझा करेंगे।

अतिरिक्त महाधिवक्ता राजेश महर्षि ने सुनवाई के दौरान अदालत को सूचित किया कि मसौदा समिति ने 2017 में एक कॉन्टिनजेंसीय प्लान तैयार किया था। वर्तमान में राज्य सरकार 1995 के नियमों के नियम 12 (4) के तहत अत्याचार के पीड़ितों को राहत प्रदान करती है। अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के व्यक्तियों और उनके परिवार के सदस्यों और आश्रितों को प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) दर्ज होने के सात दिनों के भीतर आर्थिक सहायता दी जाती है।

डीएमकेएस के निदेशक सतीश कुमार ने अदालत में जनहित याचिका पर बहस की, उन्होंने कहा कि 1995 के कानून के नियम 15 के तहत लागू की जाने वाली आकस्मिक योजना में आदर्श रूप से विभिन्न विभागों और उनके अधिकारियों की भूमिका और जिम्मेदारी तय होनी चाहिए और राहत उपायों का एक पैकेज होना चाहिए। पैकेज में पीड़ितों को अनिवार्य मुआवजा, पुनर्वास, सरकारी रोजगार और उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति को मजबूत करना शामिल होना चाहिए।

क्यों है कॉन्टिनजेंसीय प्लान की जरूरत?

राजस्थान में दलित-आदिवासियों के खिलाफ अत्याचार के मामले लगातार बढ़ रहे है। राजस्थान पुलिस महकमे से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार एससी-एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम, के तहत वर्ष 2017 से 2023 के बीच कुल 56879 मामले दर्ज किए गए हैं, जिनमें 2017 में 4532, 2018 में 5478, 2019 में 8472, 2020 में 8811, 2021 में 9472, 2022 में 11054 व 2023 में अब तक 9251 मामले सामने आए हैं। 2018 से 2022 तक आलौच्य अवधि में दलित-आदिवासियों के खिलाफ अपराधों में 22.56 औसत वृद्धि दर्ज हुई है। लगातार बढ़ रहे मामलों के चलते पीड़ितों के उचित मुआवजा व पुर्नवास आदि के लिए कॉन्टिनजेंसीय प्लान की जरूरत है।

क्यों बढ़ रहे हैं अत्याचार के मामले?

दलित सामाजिक कार्यकर्ता भंवर मेघवंशी ने बताया कि राजस्थान के दक्षिण-पश्चिम के पाली, सिरोही, जालौर, जोधपुर, बाड़मेर आदि जिलों में अभी भी छुआछूत और जातीय भेदभाव चरम पर होता है। इसके चलते यहां पर दलित प्रताड़ना के मामले सबसे ज्याद रिपोर्ट किए जाते है। इसके उलट शेखावटी क्षेत्र के चुरू, झुंझुनूं, सीकर आदि जिलों में छुआछूत या जातीय भेदभाव नहीं के बराबर है, लेकिन यहां जमीनों को लेकर विवाद होते है, जिनमें बहुत ही नृशंस तरीके से दलितों की हत्या के मामले सामने आए है।

दक्षिणी-पूर्वी आदिवासी बहुल इलाकों में जातीय अत्याचार के मामले काफी कम है, क्योंकि इन इलाकों की सामाजिक, राजनीतिक परिदृष्य राज्य के अन्य क्षेत्रों से पूरी तरह अलग है। इन इलाकों में दलित जनसंख्या भी कम है।

2011 की जनगणना के अनुसार, राजस्थान में अनुसूचित जातियां- जैसे मेघवाल, वाल्मीकि, जाटव, बैरवा, खटीक, कोली, और सरगारा आदि, कुल आबादी का करीब 17.83 प्रतिशत हैं, जबकि राजपूत और ब्राह्मण क्रमशः 9 और 7 प्रतिशत हैं। जातिगत टकराव की स्थितियां भी अलग-अलग होती है। पश्चिमी राजस्थान में मुख्य टकराव मेघवालों और राजपूतों तथा प्रमुख ओबीसीज के बीच है। पाली, बाड़मेर, जालौर, सिरोही और नागौर, भीलवाड़ा झुंझुनूं में भू संबंध मुख्य कारण है। शिक्षा का स्तर सुधरने के साथ ही दलित युवा में सामाजिक, राजनैतिक चेतना आई है, जिससे वह अपने अधिकारों की बात पूरे आत्मविश्वास के साथ करता है और गैरबराबरी का विरोध करता है। इससे भी टकराव बढ़ा है।

सिर्फ 22 प्रतिशत मामलों में मिल पाती है सजा

वर्तमान में एससी/एसटी कोर्ट में 20492 प्रकरण विचाराधीन है या कोर्ट में लम्बित है, इनमें जून 2023 तक अनुसूचित जाति के 16020 व अनुसूचित जनजाति के 4472 प्रकरण है। सम्पूर्ण न्यायालय का कन्वीकशन प्रतिशत 2020 में 27.49, 2021 में 22.26 एवं 2022 में 22.38 प्रतिशत है।

जयपुर स्थित दलित अधिकार केन्द्र के निदेशक सतीश कुमार ने बताया कि राजस्थान में दो तरीके के लोक अभियोजक है। एक जो अभियोजन विभाग के है, सरकारी है। अनुभवी और प्रशिक्षित है। दूसरे विधि एवं विधिक कार्य विभाग द्वारा राजनीतिक पार्टियों की अनुशंसा से अप्वाइंट किए जाते हैं। ये अधिवक्ता न तो प्रशिक्षित होते है न ही उनकी कोई जवाबदेही होती है। इसके चलते प्रताड़ना के मामलों में प्रभावी पैरवी नहीं हो पाती और आरोपी न्यायालय से बरी हो जाते हैं। इसी के चलते दोषसिद्धी का प्रतिशत कम रहता है। सरकारी आंकड़ों के हिसाब से यह 22 से 24 प्रतिशत है, लेकिन वास्तव में आंकड़ा इससे भी काफी कम है। इसके चलते आरोपियों के हौंसले बुलंद है।

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