
नई दिल्ली: साल 2023 की 3 मई को पूर्वोत्तर भारत के मणिपुर में भड़की जातीय हिंसा की आग भले ही अब ठंडी पड़ती दिख रही हो, लेकिन उस दौर की तबाही और मानवीय त्रासदी के निशान आज भी गहरे हैं। अब जब हम साल 2026 की दहलीज पर खड़े हैं, मणिपुर हिंसा पर लिखी गई द मूकनायक के पत्रकार राजन चौधरी की किताब "Manipur On Fire: Eyewitness to Ethnic Strife and Survival" न केवल भारत में बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिंसा के एक प्रमाणिक दस्तावेज (Authentic Document) के रूप में अपनी जगह बना चुकी है।
हाल ही में दो प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय जर्नल्स— International Journal of Research Publication and Reviews (IJRPR) और Journal of Contemporary Asia —ने इस पुस्तक को मणिपुर हिंसा के जमीनी हालात को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण स्रोत के रूप में स्वीकार किया है।
प्रतिष्ठित Journal of Contemporary Asia में प्रकाशित एक विस्तृत बुक रिव्यू में, हैदराबाद विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के शोधकर्ता हाओखोलाल किपगेन (Haokholal Kipgen) ने राजन चौधरी की किताब को आधुनिक भारत के सबसे भीषण आंतरिक संघर्षों में से एक का "स्ट्रीट-लेवल व्यू" (जमीनी दृश्य) प्रदान करने वाला एक प्रमुख रिकॉर्ड बताया है।
जून 2025 में प्रकाशित इस रिव्यू में कहा गया है कि जहाँ मुख्यधारा की मीडिया और सरकारी रिपोर्टें हिंसा के सामाजिक और मानसिक प्रभावों को पकड़ने में चूक गईं, वहीं राजन चौधरी की यह किताब "कच्ची भावनाओं" (raw emotion) और वास्तविकता को सामने लाती है । रिव्यू में इस बात पर जोर दिया गया है कि लेखक ने अपनी जान जोखिम में डालकर, बिना किसी सुरक्षा के उन 'रेड ज़ोन' इलाकों से रिपोर्टिंग की, जहाँ जाना खतरे से खाली नहीं था।
किताब की प्रमाणिकता पर टिप्पणी करते हुए जर्नल में लिखा गया है:
विशेष रूप से, जर्नल ने किताब में महिलाओं और बच्चों के चित्रण की सराहना की है। इसमें बताया गया है कि कैसे यह किताब महिलाओं को केवल 'पीड़ित' के रूप में नहीं, बल्कि 'प्रतिरोध और स्मृति के वाहक' (active agents of memory and resistance) के रूप में प्रस्तुत करती है।
वहीं दूसरी ओर, अगस्त 2025 में International Journal of Research Publication and Reviews (IJRPR) में प्रकाशित शोध पत्र "Between Hills and Valleys: The Meitei - Kuki Conflict in Manipur" में भी इस पुस्तक को एक अहम साक्ष्य (Evidence) माना गया है।
होली क्रॉस कॉलेज, अगरतला की डॉ. शर्मिष्ठा रक्षित और स्नेहा देबबर्मा द्वारा लिखे गए इस शोध पत्र में "Manipur On Fire" को उन चुनिंदा स्रोतों में शामिल किया गया है जो हिंसा के दौरान समुदायों के "जीवित अनुभवों" (lived experiences) का प्रत्यक्ष विवरण देते हैं । शोधकर्ताओं ने अपनी स्टडी में राजन चौधरी के हवाले से लिखा है:
चौधरी इस बात पर जोर देते हैं कि कैसे डर, अविश्वास और गहरी जड़ें जमा चुके पूर्वाग्रहों ने संघर्ष को हवा दी, जबकि अपर्याप्त राज्य प्रतिक्रिया और देरी से किए गए हस्तक्षेप ने संकट को और गहरा कर दिया।
शोध पत्र में इस किताब का उपयोग यह समझाने के लिए किया गया है कि कैसे हिंसा ने न केवल घरों को जलाया, बल्कि सामाजिक समरसता को भी पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया।
मेनस्ट्रीम मीडिया के लिए एक सबक
यह उपलब्धि इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि मणिपुर हिंसा के दौरान मेनस्ट्रीम मीडिया की भूमिका पर लगातार सवाल उठते रहे हैं। Journal of Contemporary Asia में प्रकाशित लेख स्पष्ट रूप से कहता है कि राजन की किताब उन "गुनगुनी खबरों" (tepid news stories) से अलग कहानी बयान करती है, जो अक्सर हिंसा की भयावहता को छिपा ले जाती थीं।
किताब यह भी उजागर करती है कि कैसे राज्य (State) एक निष्पक्ष मध्यस्थ के रूप में विफल रहा और कई बार अपनी निष्क्रियता के कारण हिंसा का मूक दर्शक या सहायक बना रहा।
पत्रकारिता का मानवीय चेहरा
द मूकनायक के लिए यह गर्व का क्षण है कि उनके पत्रकार द्वारा हिंदी में लिखी गई (और बाद में गीता सुनील पिल्लई द्वारा अंग्रेजी में अनुवादित) एक रिपोर्ट अब अकादमिक विमर्श का हिस्सा बन गई है। "Manipur On Fire" सिर्फ एक किताब नहीं, बल्कि उन माताओं, बच्चों और विस्थापितों की गवाही है जिन्हें इतिहास के पन्नों में अक्सर भुला दिया जाता है।
जैसे-जैसे हम 2026 की ओर बढ़ रहे हैं, यह वैश्विक मान्यता साबित करती है कि जब पत्रकारिता साहस और संवेदना के साथ की जाती है, तो वह सरहदों को पार कर न्याय और सत्य का दस्तावेज बन जाती है।
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