नई दिल्ली- भारत में महिलाएं एक सजातीय समूह नहीं हैं बल्कि वे भिन्न-भिन्न पहचानों से जुड़ी हुई हैं जैसे जाति से, धर्म से, नस्ल से, आर्थिक वर्ग से, क्षेत्र से, जनजाति से, आदि से। ऐसा ही एक वर्ग है विमुक्त महिलाएं, कौन होती हैं विमुक्त महिलाएं?
विमुक्त महिलाएं उन समुदायों से संबंध रखने वाली महिलाएं हैं जिन्हें ऐतिहासिक रूप से भारत में "अपराधी जनजातियां" (क्रिमिनल ट्राइब्स) के रूप में वर्गीकृत किया गया था। ब्रिटिश शासन के दौरान, 1871 के क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट के तहत कई घुमंतू और अर्ध-घुमंतू जनजातियों को अपराधी घोषित कर दिया गया था। इन जनजातियों के सदस्यों को उनकी जाति या समुदाय के आधार पर अपराधी माना गया, न कि उनके व्यक्तिगत कृत्यों के आधार पर। 1952 में स्वतंत्र भारत में इस कानून को समाप्त कर दिया गया, और इन जनजातियों को विमुक्त जनजाति (डिनोटिफाइड ट्राइब्स) के रूप में पुनः वर्गीकृत किया गया।
हालांकि इन समुदायों के लोग आज भी सामाजिक बहिष्कार, भेदभाव और गरीबी का सामना कर रहे हैं और इन समुदायों से ताल्लुक रखने वाली विमुक्ता महिलाएँ जेंडर आधारित हिंसा का सामना एक जटिल और गहरी इंटरसेक्शनल समस्या के रूप में कर रही हैं। भारत में, लगभग 10 प्रतिशत आबादी विमुक्त और खानाबदोश है। जबकि विमुक्त जनजातियों की संख्या लगभग 150 है, खानाबदोश जनजातियों की आबादी में लगभग 500 अलग-अलग समुदाय शामिल हैं।
“आपराधिक जनजातियां” का पूर्वाग्रह इनकी जनजातीय पहचान, जाति-आधारित उत्पीड़न और पितृसत्तात्मक अधीनता के साथ मिलकर इनके खिलाफ़ हिंसा के अनूठे रूपों को जन्म देता है। इनके अनुभव बहिष्कार और उत्पीड़न के एक ऐसे चक्र को उजागर करते हैं जो न्याय, आर्थिक अवसर और सामाजिक गरिमा तक को इनकी पहुँच से दूर है जिससे वे भारतीय समाज के हाशिये पर मौजूद हैं।
आपराधिक जनजाति अधिनियम ने विमुक्ता समुदायों को "वंशानुगत अपराधी" के रूप में चिह्नित करते हुए एक स्थायी घाव दिया है। इस औपनिवेशिक कानून ने घुमंतू समूहों को जबरन स्थायी किया, उनकी गतिशीलता पर प्रतिबंध लगाया और उन्हें सतत निगरानी में रखा। बेशक यह अधिनियम औपचारिक रूप से निरस्त कर दिया गया था, लेकिन इन समुदायों के खिलाफ प्रणालीगत पूर्वाग्रह को कभी समाप्त नहीं किया जा सका है। कानून प्रवर्तन एजेंसियाँ और मुख्यधारा का समाज आज भी उन्हें संदेह की दृष्टि से देखता है, जिससे भेदभाव जारी रहता है। आज भी विमुक्ता समुदाय पुलिस बर्बरता, हिरासत में हिंसा और गलत गिरफ्तारी का शिकार होते हैं। महिलाओं के लिए ये उल्लंघन लैंगिक हिंसा के कारण और अधिक बढ़ जाते हैं। पुलिस छापेमारी या पूछताछ के दौरान यौन शोषण के मामले चिंताजनक रूप से सामान्य हैं।
विमुक्ता महिलाएँ जाति-आधारित उत्पीड़न और पितृसत्तात्मक मानदंडों के चौराहे पर जीती हैं, जो उनके प्रति हिंसा को और अधिक बढ़ा देता है। उच्च जाति के समूह अक्सर हिंसा को समाज में स्तर विन्यास को बनाए रखने के एक उपकरण के रूप में उपयोग करते हैं, और विमुक्ता महिलाएँ इसका एक आम निशाना होती हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के आंकड़े दिखाते हैं कि हाशिये पर खड़ी जातियों और जनजातियों की महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा की दर चिंताजनक रूप से अधिक है। लेकिन विमुक्ता महिलाओं के खिलाफ अपराध अक्सर उनके अत्यधिक कलंकित होने के पूर्वाग्रह के कारण रिपोर्ट नहीं किए जाते हैं।
गौरी (बदला हुआ नाम) आगरा, उत्तर प्रदेश शहर की एक घनी बस्ती में रहती हैं, यहां अधिकतर दलित, कुछ जनजाति के लोग ही रहते हैं। एक साहूकार से उनके पति ने कुछ रुपयों का क़र्ज़ लिया हुआ है जिसे चुकाने का समय अभी बाकी है इसके बावजूद साहूकार उन्हें भद्दी गालियां देता है, छेड़ता भी है। इसकी शिकायत वे चाहती हुई भी थाने में नहीं कर सकतीं क्योंकि अतीत में हुई घटनाओं के अनुभवों पर पुलिस उन्हें ही अधिक परेशान करेगी। वहीं ममता (बदला हुआ नाम), उत्तर प्रदेश की निवासी इस मामले में आगे बात जोड़ती हुई साझा करती हैं कि “जब भी शहर में चोरी की वारदातें बढ़ती हैं तब पुलिस हमारे घर के पुरुषों से पूछ ताछ पहले करती है जबकि वे इस सबके बारे में नहीं जानते और एक परचून की दुकान से जैसे तैसे गुजारे लायक भत्ता निकाल पाते हैं।”
न्याय प्रणाली का यह रूप सिद्ध करता है कि वह हाशिये पर खड़े समुदायों के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रस्त है इसके कई उदाहरण मौजूद हैं चाहे वह जेलों में दलित आदिवासी लोगों की अधिक संख्या हो या थानों में महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा, मथुरा रेप केस इस तरह के कृत्य का चर्चित मामला रहा है। एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार, 65.90% जेल कैदी एससी, एसटी और ओबीसी श्रेणियों से हैं।
पितृसत्ता के पहलू को देखें तो विमुक्त लड़कियों की बालपन में शादी हो जाती है और यौनिक हिंसा झेलते हुए वे घर की आर्थिक स्थिति में योगदान देती हैं जिससे वे न सिर्फ़ अपने बचपन से दूर होती हैं बल्कि शिक्षा, स्वायत्तता के अवसर भी उनसे छीन लिए जाते हैं। 2022 में वृंदावन, मथुरा के एक सुदूर गाँव में ग्राउंड रिपोर्ट करते वक्त मैं बारह चौदह वर्ष की ऐसी बच्चियों से मिली थी जो घर से बाहर एक तय समय के बाद निकल भी नहीं सकती थीं, जो अधिकतर पांच या आठ कक्षा तक पढ़ाने के बाद पढ़ाई नहीं गई थीं। कुछ बच्चियों के तो विवाह तक तय हो चुके थे। यह बच्चियां विमुक्त जनजाति के नट समुदाय से थीं।
2023 में विमुक्त दिवस (31 अगस्त) के अवसर पर न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा ने ‘संवैधानिक लोकतंत्र में हाशिए पर पड़े लोगों के लिए न्याय’ विषय पर व्याख्यान दिया था। इस व्याख्यान में न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा ने कहा था कि “विमुक्त जनजातियों को नौकरियों और शिक्षा में असंगत अपराधीकरण, भेदभाव का सामना करना पड़ता है।”
शिक्षा जो आर्थिक और सामाजिक स्थिति को बेहतर करने का एक बड़ा औजार है जिसकी अनुपस्थिति में आजीविका बेहतर नहीं हो सकती है। इसीलिए आर्थिक शोषण विमुक्ता महिलाओं के प्रति हिंसा का एक और महत्वपूर्ण पहलू है। ऐतिहासिक अपराधीकरण ने विमुक्ता समुदायों को जबरन विस्थापित कर दिया, जिससे वे अनौपचारिक श्रम क्षेत्रों जैसे ग्लास फैक्ट्री, पटाखा फैक्ट्री, रासायनिक उत्पादन फैक्ट्री आदि अनौपचारिक क्षेत्रों में बतौर मज़दूर, बंधुआ मज़दूर के रूप में शोषण के अन्य चक्रव्यूह में धकेल दिए गए। राजस्थान और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में, विमुक्ता जनजातियों जैसे बंजारा और पारधी समुदायों की महिलाएँ जीविका के लिए पीढ़ीगत यौन कार्य या बंधुआ मजदूरी जैसे शोषणकारी श्रम करने के लिए मजबूर हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार बंधुआ मजदूरी प्रणाली उन्मूलन अधिनियम, 1976 (बीएलएसए) के तहत 2019 में 1,155 मामले (96% अपराध एससी और एसटी के खिलाफ थे) दर्ज किए गए। इसी तरह 2020 में 1,231 मामले (एससी/एसटी के खिलाफ 94%) दर्ज किए गए और 2021 में 592 मामले (एससी/एसटी के खिलाफ 96%) अधिनियम के तहत दर्ज किए गए।
राजस्थान में, अपनी विशिष्ट कमजोरियों को ध्यान में रखते हुए, एक्शन ऐड एसोसिएशन घुमंतू साझा मंच के साथ काम करता है, जो 800 से अधिक सदस्यों वाले इन जनजातियों आंदोलनों का गठबंधन है, और अपने प्रयासों को चार प्राथमिक क्षेत्रों पर केंद्रित करता है: समुदायों को संगठित करना; सामाजिक सुरक्षा लिंक की सुविधा; भूमि और आवास अधिकार; और कलंक और उत्पीड़न को दूर करना। इस राह पर चलते हुए विमुक्ता महिलाओं के शोषण को संबोधित करने के लिए एक समग्र और इंटरसेक्शनल दृष्टिकोण की आवश्यकता है।
नीति निर्माताओं को उनके उत्पीड़न की संयुक्त प्रकृति को पहचानना चाहिए और प्रणालीगत बाधाओं को तोड़ने के लिए लक्षित हस्तक्षेपों को डिज़ाइन करना चाहिए। न्याय ढाँचे में लैंगिक संवेदनशीलता, जैसे कि हाशिये पर खड़ी महिलाओं के मामलों में विशेषज्ञ कानूनी इकाइयों और फास्ट-ट्रैक अदालतों की स्थापना, उनकी शिकायतों का समय पर और निष्पक्ष समाधान सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक है। विमुक्ता महिलाओं के लिए विशेष शैक्षिक कार्यक्रम और व्यावसायिक प्रशिक्षण पहल आर्थिक स्वतंत्रता के रास्ते खोल सकती हैं, जिससे उनके शोषणकारी श्रम पर निर्भरता कम हो सकती है।
बुढ़न थिएटर जैसे सामाजिक संगठन विभिन्न कलाओं के माध्यम से विमुक्त समुदायों के प्रति फैली ग़लत जानकारियों को खत्म किया जा सकता है। विमुक्ता महिलाओं की आवाज़ों को बढ़ावा देकर और कहानी कहने, मीडिया और सार्वजनिक शिक्षा के माध्यम से सहानुभूति को प्रोत्साहित करके, समाज उनके हाशियाकरण को बढ़ावा देने वाले गहरे जड़ जमाए पूर्वाग्रहों को तोड़ने की दिशा में आगे बढ़ सकता है और न्याय की पहुंच इन समुदायों तक करी जा सकती है।
(आशिका शिवांगी सिंह लाड़ली मीडिया फेलो हैं और इस लेख में व्यक्त किए गए विचार और मत उनके अपने हैं। लाड़ली और UNFPA इन विचारों का अनिवार्य रूप से समर्थन नहीं करते हैं।)
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