फुट ओवर ब्रिज के नीचे की जिंदगियों का संघर्ष: पेट भरने और पारंपरिक व्यवसाय को बचाने के जद्दोजहद की कहानी

दूसरे राज्य से पलायन कर दिल्ली जैसे व्यस्त शहर में रहने वाले समुदाय अपने परम्परागत कार्य-व्यवसायों के बीच आने वाली चुनौतियों से जूझ रहे हैं. संता देवी की कहानी बताती है कि मूल स्थान छोड़ने के बाद दूसरे शहर में बसने वाले हाशिए के समुदाय अपने परंपरागत व्यवसायों के अस्तित्व को बचाने की किन परिस्थितियों में जद्दोजहद कर रहे हैं.
संता देवी (55) अपने पोते के साथ
संता देवी (55) अपने पोते के साथ फोटो- सोनिया मकवाना, द मूकनायक

नई दिल्ली। संता देवी (55) का पूरा परिवार दिल्ली जैसी गगनचुम्बी इमारतों वाले शहर में फुट ओवर ब्रिज के नीचे रहता है। कुम्हार समाज से आने वाली संता देवी मिट्टी के घड़े सहित मिट्टी से बने तरह-तरह का सामान बेचती हैं. इनके पास मिट्टी से बने बर्तनों को बेचने के अलावा अन्य कोई दूसरा कमाई का साधन नहीं हैं, इसी से वह अपने परिवार के लिए दो वक्त की रोटी की जुगत बमुश्किल से कर पाती हैं। 

आगामी हिन्दुओं के सबसे बड़े पर्व दीवाली पर जब पूरा देश अरबों रुपयों के पटाखे फूंक देता है, करोड़ों रुपए सजावट में खर्च हो जाते हैं, यूपी जैसे राज्य में राज्य सरकार लाखों खर्च कर सबसे अधिक दीये जलाने का रिकार्ड बना रही होती है तब संता देवी जैसे परिवारों की कहानी जननी और भी जरुरी हो जाती है. क्योंकि यह वे परिवार होते हैं जिनकी पहचान इन अपने परम्परागत व्यवसायों से होती है. 

55 वर्षीया संता देवी इस फुट ओवर ब्रिज के नीचे लगभग 35 सालों से रह रही हैं। उनके पति का देहांत हो चुका है. परिवार में तीन बेटे और बहू है, जबकि, एक बेटी की शादी हो चुकी है। संता देवी ने बताया कि वह मूल रूप से राजस्थान की रहने वाली हैं। लेकिन अब वहां से उनका कोई नाता नहीं है। वह उस जगह को हमेशा के लिए छोड़ चुकी हैं. जब से वह दिल्ली में आईं तब से इसी फुट ओवर ब्रिज के नीचे ही रह रही हैं। वह द बताती हैं कि उनके सास ससुर भी सालों पहले यहां काम की तलाश में आए थे, और फिर काम मिलने के बाद यहीं पर रहने लगे।

संता देवी द मूकनायक से बात करते हुए बताती हैं कि, "पहले जब हमारे पास ही मिट्टी का काम हुआ करता था, (जब संता देवी का समुदाय परंपरागत रूप से यह काम कर रहा था) तो पैसे की इतनी दिक्कत नहीं हुआ करती थी। लेकिन जब से दूसरी जाति के लोगों ने भी हमारे जैसा काम करना शुरू कर दिया है, और नई-नई आधुनिक सजावटों से चीजें बेचना शुरू कर दिया है, तब से हमारे पास ग्राहक कम आते हैं या आते ही नहीं हैं”.

संता देवी के पास मिट्टी से बने बर्तनों को बेचने के अलावा और कोई कमाई का जरिया नहीं है.
संता देवी के पास मिट्टी से बने बर्तनों को बेचने के अलावा और कोई कमाई का जरिया नहीं है. फोटो- सोनिया मकवाना, द मूकनायक

संता देवी आगे बताती है कि, "आज से 20 साल पहले यहां के आसपास के इलाके में हमें मिट्टी की कोई कमी नहीं थी। सारी मिट्टी हम यहीं से प्राप्त कर लेते थे। ज्यादातर मिट्टी फरीदाबाद से ट्रक द्वारा मंगाई जाती थी। जहां से हम मिट्टी लाया करते थे वहां पर अब मॉल बन गए हैं। फरीदाबाद से मिट्टी लाना हमारे लिए थोड़ा दूर हो जाता है। जिससे हम बने हुए मिट्टी का सामान दूसरी जगह से मंगवाते हैं। इससे हमारे पैसे भी बहुत खर्च  होते हैं, और मुनाफा भी नहीं होता।”

संता देवी बताती है कि, मिट्टी के सामान बेचने से उतना गुजारा नहीं हो पाता जितना सब बच्चों को पूरा पड़ सके। क्योंकि “मेरे तीनों बेटों की शादियां हो चुकी हैं। बहुए और पोते-पोतियां भी हैं। इतने में पूरे घर का खर्च चलाना असंभव है। इसलिए बेटे दूसरी जगह पर काम करते हैं और बहुएं दूसरों के घरों में झाड़ू-पोछा करती हैं। जिससे थोड़ा बहुत आर्थिक सहायता मिल जाती है। इस समय हम बहुत आर्थिक परेशानियों का सामना कर रहे हैं”, संता देवी ने द मूकनायक को बताया.

संता देवी दुकान पर बेचने के लिए बाहर से मिट्टी के बने बर्तनों को खरीद कर लाती हैं. क्योंकि मिट्टी की उपलब्धता पास में नहीं है.
संता देवी दुकान पर बेचने के लिए बाहर से मिट्टी के बने बर्तनों को खरीद कर लाती हैं. क्योंकि मिट्टी की उपलब्धता पास में नहीं है. फोटो- सोनिया मकवाना, द मूकनायक

"ढाई साल पहले मेरे पति का देहांत हो गया था। उनको कैंसर की बीमारी थी। उस समय सरकार ने हमारी बहुत मदद की थी। एक बड़े  निजी अस्पताल में इलाज करने के लिए हमें 5 लाख रुपए सरकार की तरफ से मिले थे। उस समय निजी अस्पताल में हमने पति को भर्ती कराया। जब तक वह पैसे खर्च नहीं हुई तब तक अस्पताल वालों ने मेरे पति को अस्पताल में ही रखा। पता नहीं कौन-कौन से टेस्ट वहां किया करते थे। वहां की दवाई से भी कुछ ज्यादा असर नहीं हुआ और अंत में उनका देहांत हो गया। उसके बाद परिवार को संभालना और मुश्किल हो गया”, संता देवी ने असहज भाव में कहा. 

संता देवी का परिवार एक छोटे से कमरे में रहता है। “पहले तो ठीक था। परंतु तीनों बेटों की शादी के बाद उनको जरूरत थी की और कमरा हो। लेकिन इसी घर में ही रहना पड़ा। पास में छप्पर डालकर छोटे घर भी बनवाया। घर में शौचालय भी नहीं था। बाद में शौचालय बनवाया।”

संता देवी बताती हैं कि "हमारी आर्थिक स्थिति इतनी खराब है कि हमारे घर में सिलेंडर होने के बावजूद हम 3 महीने से चूल्हे पर खाना बना रहे हैं। क्योंकि हमारे पास इतने पैसे नहीं है कि हम सिलेंडर भरवा सके। इसलिए हमें चूल्हे पर ही खाना बनाना पड़ता हैं।”

कुछ दिन पहले घर की आर्थिक परिस्थितियों को संभालने के लिए एमसीडी की परमिशन लेकर सड़क किनारे संता देवी ने दुकान खोली। जिसमें थोड़ा बहुत ही समान था। लेकिन जी-20 के चलते उनकी दुकान तोड़ दी गई। अब उनके पास इतने पैसे नहीं है, कि वह दोबारा से दुकान में सामान भर सके।

घर के पास है गंदा नाला

संता देवी जहां रहती है, वहां उनके घर के पीछे एक नाला बहता है। संता देवी के मुताबिक वह नाला पहले तो बहता रहता था। लेकिन कुछ समय से उसके अंदर इतना कचरा हो गया है कि नाले में से बदबू आ रही है। क्योंकि वहां कचरा सड़ रहा है। संता देवी कहती है कि, "इस गंदगी को साफ करने के लिए मैंने बहुत बार बोला लेकिन कोई नहीं आता। अगर आते भी हैं तो सारा कचरा हमारे सामने वाले हिस्से में रख कर चले जाते हैं। यह कचरा काफी दिनों तक यहीं पड़ा रहता है। इसके आसपास में बच्चे खेलते हैं और हम लोगों को कचरे की बदबू के साथ ही रहना पड़ता है। सोचिए जरा हमारे परिवार के सदस्यों पर इस गंदगी का क्या असर पड़ रहा है", संता देवी ने सवाल पूछते हुए कहा. 

एक कमरे में परिवार के साथ दिन गुजारने वाली संता देवी ज्यादातर बाहर खुले में अपने दिन और रात गुजारती है ताकि परिवार के अन्य लोग चैन से घर में सो सकें। सड़क के किनारे ही उनके पोता-पोती दिल्ली की जहरीली हवा से अनजान खेलते हैं।

भारत में बेघर लोग

2011 की जनगणना के अनुसार, लगभग 17.70 लाख भारतीय बेघर हैं. हालाँकि, यह तर्क दिया जाता है कि संख्याएँ और कहीं अधिक हैं। जो शहरों में फुटपाथ पर, यह किसी हाइवे के बगल में, या किसी फुट ओवर ब्रिज के नीचे जिंदगी गुजार रहे हैं. 

केवल दिल्ली, महाराष्ट्र और केरल ही बेघरों के लिए नियमित स्वास्थ्य जांच और सुरक्षा प्रावधानों की बात करते हैं। विश्लेषण से पता चलता है कि भोजन, स्वास्थ्य, पानी, स्वच्छता, आश्रय और आजीविका से संबंधित राहत उपायों तक पहुंचने में मदद करने के लिए कोई पैसा और कोई दस्तावेज नहीं होने के कारण, बेघर लोग सबसे अधिक असुरक्षित हो गए हैं।

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