सरिता माली / फोटो - पूनम मसीह, द मूकनायक
सरिता माली / फोटो - पूनम मसीह, द मूकनायक

इंटरव्यू: मुंबई की झोपड़पट्टी से JNU तक का सफ़र, अब JNU से अमेरिका का सफ़र, सरिता माली के संघर्ष की असाधारण दास्तां…

महिला है और पिछड़ी जाति से हैं तो आपके लिए संघर्ष दोगुना हो जाता है- सरिता

"किसी भी समाज का उत्थान उस समाज में शिक्षा की प्रगति पर निर्भर करता है," यह कथन है डॉ. भीमराव अंबेडकर का। आज इस कथन को जेएनयू की सरिता माली ने पूरा कर दिखाया है। शिक्षा के दम पर ही मुंबई की झुग्गी में पली-बढ़ी एक लड़की अमेरिका की यूनिर्वसिटी ऑफ कोलिर्फोनिया में डबल पीएचडी करने जा रही है। सरिता के इस सफर के बारे में द मूकनायक की टीम ने उनसे बात की है। आइये जानते हैं उनके संघर्ष के बारे में।

शिक्षा से ही जीवन में सुधार आ सकता है

सरिता हमें जेएनयू में मिली। उनके साथ द मूकनायक ने एक लंबी बातचीत के दौरान उनके जीवन के संघर्षों को जाने की कोशिश की। सरिता अपने बचपन के दिनों को याद करते हुए कहती है कि, मैं मुंबई की ही झुग्गी में पैदा हुई और वहीं से जीवन की हर उपलब्धि हासिल की है। हां ये जरुर है कि हमें वहां रहने में परेशानी हुई है लेकिन एक मुकाम मिल जाने के बाद यह सारी परेशानियां कम लगने लगती है।

वह कहती है, "जब एक परिवार अपने राज्य से दूसरे राज्य में जाता है तो उसके लिए कई तरह के चैलेंज होते हैं। खासकर महाराष्ट्र जैसे राज्य में जहां — यूपी, बिहार के लोगों को हीन दृष्टि से नहीं देखा जाता हो। इस पर भी जब आप पिछड़े समाज से हों, तो आप बहुत अच्छे जीवन की उम्मीद नहीं कर सकते हैं। हम लोंगों के साथ भी ऐसा ही था। झुग्गी में रहना, फूल बेचना, सरकारी स्कूल में पढ़ना यही मेरा जीवन था। लेकिन जेएनयू ने मेरे जीवन को पूरी तरह से बदल दिया है।"

वह आगे कहती हैं, मेरे मम्मी पापा को पता था कि शिक्षा ही हमें इस गरीबी से बाहर निकाल सकती है। इसलिए मेरे पिताजी हमेशा कहते थे पढ़ लो नहीं तो तुम लोगों को भी फूल बेचने पड़ेगे। वह बताती है कि, मेरे पिताजी ने गांव में शिक्षा की शक्ति को देखा था। वह देखते थे कि गांव में ऊंची जाति के लोग कोई पीएचडी कर रहा है, कोई एमबीसीएस। इसलिए हमेशा से उनके मन में यह विचार था कि शिक्षा से ही सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है। समाज में फैले ऊंच-नीच की असमानता को कम किया जा सकता है। "इसी प्रेरणा के साथ मेरे पिताजी ने हमारी शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया। ताकि हम लोग आगे बढ़ सके।"

सरिता माली के माता पिता / फोटो – पूनम मसीह, द मूकनायक
सरिता माली के माता पिता / फोटो – पूनम मसीह, द मूकनायक

हमें नहीं पता डिनर का क्या टाइम होता है

सरिता कहती है कि, हमारा पूरा परिवार फूल बेचने के काम से जुड़ हुआ था। मेरे पिताजी फूल लाते थे और मां के साथ मिलकर हम सभी लोग उसे बनाते थे। इसके बाद उसे सिग्नल पर बेचा जाता था। यह काम रोज होता था हमारे घर में, इसी दिनचर्या में हमने अपनी जिदंगी गुजारी है। इसके अलावा त्योहारों में तो हम सभी लोग सिग्नल पर फूल बेचते थे। हम लोगों के लिए कोई डिनर टाइम नहीं होता था। जिस वक्त लोगों का डिनर का टाइम होता था। उस वक्त हम लोग फूल तैयार करते थे। इसका सबसे बड़ा कारण यह था कि अगर हम रात को फूल तैयार नहीं करेंगे तो सुबह पिताजी बेचेंगे क्या। अगर बेचेंगे नहीं तो हम लोग खाएं क्या? इस बात को कहते हुए सरिता थोड़ी असहज हो जाती है।

लाइब्रेरी जाना सबसे ज्यादा जरुरी था

सरिता को बताती है कि, शिक्षा को लेकर उनका परिवार शुरु से ही सजक रहा है। मेरे पिताजी ज्यादा पढ़े नहीं हैं लेकिन माता आठवीं तक पढ़ी है। लेकिन शिक्षा को लेकर उनके अंदर एक जागरुकता थी। इसलिए हमें शुरु से ही शिक्षा के लिए अग्रसर किया गया। वह कहती है, मैं मुंबई के गर्वमेंट स्कूल से पढ़ी हूं। पढ़ाई का जोश इतना ज्यादा था कि उसके आगे मैंने किसी काम के तवज्जो नहीं दिया। जबकि अकसर यह हर मध्यवर्गीय परिवारों में होता है कि लड़कियां घर का काम करती हैं। हमें भी करना पड़ता था। लेकिन इसको मैंने अपनी पढ़ाई के आड़े नहीं आने दिया। मुझे पढ़ने का शौक शुरु से ही था। इसलिए जैसे ही मेरी लाइब्रेरी जाने का समय हो जाता था। मैं सबकुछ छोड़छाड़ कर भाग जाती थी।

अपने संघर्ष का जिक्र करते हुए सरिता कहती हैं कि, जब आप ऐसे समाज से आते हैं। जहां आपको सिर्फ कीड़े-मकड़ो समझा जाता हो तो वहां से यहां तक पहुंचना बड़ा मुश्किल हो जाता है। इसके बाद जब आप मुंबई के स्लम एरिया में रहते हैं तो लोगों की सोच आपके लिए और निम्न स्तर की हो जाती है। यहां झुग्गियों में रहने वाले लोगों को पहले ही घृणा की दृष्टि से देखा जाता है। ऐसा माना जाता है कि यहां बाहर से लोग आकर भीड़ बढ़ाते हैं। इस सारी परिस्थितियों के बीच मुझे आर्थिक रुप से भी यहां तक पहुंचने में कई कठिनाईयों को सामना करना पड़ा। लेकिन इन सबमें सबसे सुखद अनुभव यह रहा कि आज मैं उस उपलब्धि तक पहुंच चुकी हूं, जिसका सपना मेरे माता-पिता ने देखा था।

जेएनयू बना टर्निंग प्वॉइट

सरिता को जेएनयू में एडमिशन लेने की प्रेरणा उनके किसी रिश्तेदार से मिली। जेएनयू में एडमिशन मिलना उनकी जिदंगी का एक टर्निंग प्वांइट है। जहां सरिता ने शिक्षा के साथ-साथ उस विचार को जिया। जो कभी फूले दंपति ने अपने समाज के लोगों को लिए सुधार के लिए देखा था। लेकिन इसके बाद भी वह सभी परेशानी देखी जिससे वंचित तबके के लोगो दो चार होते हैं। "हमें अपनी आजादी छीन कर लेनी पड़ती है। यह सारी चीजें हमें छीननी पड़ती है। यह हमें सहज उपलब्ध नहीं होती है। मुझे भी इन सारी चीजों के लिए संघर्ष करना पड़ा है," सरिता ने कहा।

सरिता बात करते हुए बड़े गर्व से कहती है कि, वह जेएनयू की सबसे कम उम्र की रिसर्च स्कॉलर रही है। महज 28 साल में सरिता ने हिंदी से पीएचडी की है। वह बताती है कि यह सफर इतना आसान नहीं रहा। इन आठ सालों में मैंने जहां एक तरफ जेएनयू को जिया है वहीं दूसरी तरफ समाज के लोगों के ताने भी सुने हैं।

वह कहती है कि, एक समय के बाद नाते-रिश्तेदारों को तरह-तरह के ताने सुनने के मिलते थे। हर कोई यही कहता था आठ साल दिल्ली में क्या कर रही है? समाज की सोच पर सवाल उठाते हुए सरिता कहती है कि उनके लिए नौकरी ही सबसे महत्वपूर्ण है। इसलिए उन्हें लगता है कि मैं कुछ नहीं कर रही। जबकि सच्चाई यह है कि भारतीय परिवारों में उच्च शिक्षा को लेकर इतनी सजकता है ही नहीं कि उन्हें इसके महत्व को समझाया जाए। लेकिन मेरे माता-पिता उच्च शिक्षा को महत्व को जानते थे। इसलिए इन सारी बातों के पीछे मेरे अभिभावक हमेशा मेरे साथ रहे हैं। जिसका नतीजा हम सबके सामने है।

सरिता कहती है कि, वह महिलाओं के हक के लिए हमेशा तत्पर रहती हैं, क्योंकि आज के समय में महिलाओं को आगे आने से रोका जाता रहा है। अपने सफर को याद करते हुए वह कहती है कि, एक तो आप पिछड़ी जाति से हो, और महिला हो तो आपका सफर और भी कठिन हो जाता है। इन सारी चीजों ने पूरे सफर में मुझे मनोवैज्ञानिक तौर पर परेशान किया।

महिलाओं को उनके रंग से जज किया जाता है

महिलाओं को लेकर समाज के रवैय्या पर वह बात करती हुई कहती है कि एक महिला को हर जगह पर जज किया जाता है। यहां तक की उसको उसकी खूबसूरती से आंका जाता है। ये सारी चीजें मेरे साथ भी हुई है। वह कहती है अगर किसी लड़की का रंग संवाला है और वह सो कोल्ड ब्यूटी के पैरामीटर पर खरी नहीं है तो उसे तरह-तरह से जज किया जाता है। कई बार इस तरह का शोषण भयानक रुप ले लेता है। यहां तक की इसका असर मनौवैज्ञानिक तौर पर भी देखने को मिलता है। "हम महिलाओं को सिर्फ रंग से ही नहीं, कद काठी से भी जज किया जाता है।"

सरिता ने अपनी पूरी पढ़ाई हिंदी में पूरी की है। गोल्ड मेडलिस्ट होने के बाद भी उन्होंने हिंदी ही चुना। वह कहती है कि, मुझे तो हिंदी लेने पर भी लोगों ने जज किया है। मैं गोल्ड मैडलिस्ट रही हूं। जब मैंने हिंदी लेने का निर्णय लिया तो मुझे बहुत लोगों ने टोका। यहां तक कि लोग यह भी कहते थे जिसे कुछ नहीं मिलता वह हिंदी चुनता है। लेकिन मुझे हिंदी पढ़ना था। उसके साथ जीना था। मैंने उसी हिसाब से हिंदी को पढ़ा और आज मैं हिंदी के बदौलत ही अमेरिका जा रही हूं। वह कहती है, यह जरुरी नहीं है जो चीज लोगों को सही लग रही है वह आपके लिए भी सही हो, बल्कि जो चीज आपको सही लग रही हो आपको वही करनी चाहिए। ताकि, आप उस मुकाम को पा सके जिसके लिए आपने मेहनत की है।

सरिता ने सावित्रीबाई फूले और ज्योतिबाफूले को याद करते हुए कहा, "दोनों ही एक विचार हैं। मैं उनके ही समाज से आती हूं। मैं उनके विचारों को हमेशा बढ़ाने की कोशिश करुंगी। आज का समय अंधकारमय में समय है। बाबा साहेब, फूले दंपत्ति के विचारों की रोशनी से समाज को बदला जा सकता है।"

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