कौन हैं फ़ातिमा शेख़ जिन पर गूगल ने बनाया डूडल, आखिर फ़ातिमा शेख़ के हिस्से में इतनी गुमनामी क्यों आई?

first female Muslim teacher of the country Fatima Sheikh
first female Muslim teacher of the country Fatima Sheikh
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दिल्ली। महिलाओं के लिए शिक्षा और शिक्षक का नाम जब भी लिया जाता है उसमें दो नाम सबकी जुंबा पर आते हैं- सावित्रीबाई फुले और फ़ातिमा शेख़। सावित्रीबाई फुले का नाम हर किसी की जुंबा पर होता है पर फ़ातिमा शेख़ को लोग इतिहास के पन्ने में ही छोड़ आए हैं। खैर आज का दिन इनको पन्नों से निकालकर इनके बार में जानने का है। फ़ातिमा शेख़ का आज जन्मदिन है। पूरा देश इनके 191वें जन्मदिन की सालगिराह मना रहा है। आज इस खास मौके पर जानना जरुरी है देश की पहली मुस्लिम महिला शिक्षिका के बारे में।

महिला शिक्षा की धरोहर

देश में जब भी महिलाओं की शिक्षा के उन्मूलन की बात होगी तो सबसे पहला नाम सावित्रीबाई फुले का आता है। उन्होंने महिलाओं और जाति उन्मूलन के लिए कई काम किए। जिस एक काम के लिए उनकी ख्याति सबसे ज्यादा है, वह काम है 1848 में पुणे के भिडेवाड़ा में लड़कियों के लिए एक स्कूल खोलना और फिर वहां पढ़ाना। लड़कियों के लिए स्कूल उस जमाने में बड़ी बात थी। लेकिन जिस स्कूल के लिए सावित्रीबाई को पूरा क्रेडिट दिया जाता है उसको बनाने और पढ़ाने में एक और नाम ने मेहनत की थी। और शायद अगर वो सावित्रीबाई के कदम से कदम मिलाकर नहीं चलती तो ये सपना कभी पूरा नहीं हो पाता।

सावित्रीबाई फुले और ज्योतिराव फुले के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी इस महिला का नाम फ़ातिमा शेख़ है। उन्होंने फुले के भिडेवाड़ा स्कूल में लड़कियों को पढ़ाने का काम किया, घर-घर जाकर परिवारों को अपनी लड़कियों को स्कूल भेजने और स्कूलों के मामलों का प्रबंधन करने के लिए प्रोत्साहित किया। उनके योगदान के बिना, लड़कियों की पूरी स्कूल परियोजना आकार नहीं ले पाती। फिर भी भारतीय इतिहास ने बड़े पैमाने पर फ़ातिमा शेख़ को हाशिये पर धकेल दिया है।

समाज ने धकेला हाशिये पर

देश में बेटी पढ़ाओ का सिर्फ नारा नहीं इस सपने को सच करने का श्रेय जाता है सावित्रीबाई फुले और फ़ातिमा शेख़ को। ये दोनों ही देश की पहली महिला टीचर है। सावित्रीबाई को देश ने सम्मान देर से ही लेकिन दिया वहीं फ़ातिमा शेख़ को समाज आज भी वो स्थान और सम्मान नहीं दे पाया है। इतिहास में ही इन्हें दरकिनार किया गया। भिडेवाड़ा स्कूल की शुरुआत से लेकर इसमें पढ़ाने तक सावित्रीबाई के साथ फ़ातिमा शेख़ भी थी।   

सावित्रीबाई फुले और फ़ातिमा शेख़
सावित्रीबाई फुले और फ़ातिमा शेख़

पुणे का वो स्कूल सावित्रीबाई ने अकेले नहीं खोला था, न ही वो वहां की वह एकमात्र महिला शिक्षिका थीं। कोई और भी था, जो इस प्रोजेक्ट में उनके साथ जुटा था। कोई था, जिसने बालिका सावित्रीबाई के साथ शिक्षा ग्रहण की थी, उनके साथ पुणे के अध्यापक प्रशिक्षण विद्यालय में ट्रेनिंग ली थी।  कोई था, जिसने सावित्रीबाई और उनके पति को अपना घर रहने और स्कूल खोलने के लिए दिया था। कोई था, जो इस स्कूल में सावित्रीबाई के साथ पढ़ाता था। ये कोई और फ़ातिमा शेख़ थी।

एक शिक्षक और समाज सुधारक के रूप में उनका योगदान फुले से कम नहीं था। बल्कि उन्हें उससे भी बड़ी बाधाओं का सामना करना पड़ा होगा। चूंकि उनके कार्यों का दस्तावेजीकरण नहीं किया गया है इसलिए जानकारी भी ज्यादा नहीं है। हम केवल यह मान सकते हैं कि एक मुस्लिम महिला के लिए लड़कियों की शिक्षा के लिए काम करना कितना मुश्किल रहा होगा, जिसे उस समय अधार्मिक माना जाता था, खासकर हिंदू बहुल पुणे समाज में।

कुछ लेखकों का सुझाव है कि वह जो कर रही थी उसके लिए हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदाय ने उनका विरोध किया था। सावित्रीबाई ब्राह्मणवाद की कट्टरता के खिलाफ लड़ रही थीं। वहीं फ़ातिमा शेख़ एक अंदरूनी सूत्र थी, जो व्यवस्था की बुराइयों के खिलाफ लड़ रही थी। दलितों के लिए अपने स्कूलों के दरवाजे खोलना एक ही समय में पितृसत्ता और जाति व्यवस्था के लिए उनकी चुनौती थी।

फातिमा के घर में शुरु हुआ स्कूल

एक समय था जब ज्योतिराव और सावित्रीबाई को ज्योतिराव के पिता द्वारा अपना पुश्तैनी घर खाली करने के लिए कहा गया था। ऐसा इसलिए था क्योंकि ज्योतिराव के पिता दंपति के सुधार के एजेंडे से नाराज थे। उस वक्त फ़ातिमा और उनके भाई उस्मान शेख ही थे जिन्होंने फुले के लिए अपने घर के दरवाजे खोले।

यह वही इमारत थी जिसमें लड़कियों का स्कूल शुरू हुआ था। उनके लिए ऐसा करना आसान नहीं होता, अगर उस वक्त पर गौर करें तो उस वक्त देश का इलिट वर्ग लड़कियों के स्कूल जाने के विचार के खिलाफ था। किसी धर्म या जाति के लिए नहीं बल्कि पूरी महिलाओं के लिए स्कूल जाकर नए समाज की शिक्षा लेना किसी सपने जैसा ही था। फिर भी  फ़ातिमा शेख़ ने इस नई सभ्यता के लिए अपने घर के दरवाजे खोले थे। खैर फ़ातिमा शेख़ का कोई उल्लेख अभी भी कहीं नही है।

सावित्रीबाई को भी पहचान मशक्कत के बाद मिली

अगर हम ये कहें कि सावित्रीबाई फुले को जो सम्मान और पहचान आज मिली है वो शुरुआत से ही थी तो वो गलत होगा। कहने का तात्पर्य यह है कि सावित्रीबाई फुले को पहचान आसानी से नहीं मिल गई। मुख्यधारा के इतिहासकार उनके प्रति बहुत क्रूर थे। भारतीय पुनर्जागरण का उल्लेख करते हुए इतिहासकारों ने  राम मोहन राय, ईश्वर चंद्र विद्यासागर, स्वामी दयानंद, स्वामी विवेकानंद, या महादेव गोविंद रानाडे की बात तो कि लेकिन सावित्रीबाई फुले का नाम उसमें कहीं नहीं था।

दशकों के गुमनामी के बाद ही दलित और बहुजन कार्यकर्ताओं ने सावित्रीबाई के बारे में लिखना शुरू किया। इसके बाद उनकी तस्वीरें बामसेफ के बैनर और पोस्टर पर दिखने लगीं, जो कांशीराम द्वारा शुरू किया गया एक संगठन था जिसने बाद में बहुजन समाज पार्टी की स्थापना की। पिछले दशक में, डिजिटल प्लेटफॉर्म के आगमन के साथ, सावित्रीबाई का नाम और समाज में उनका योगदान सोशल मीडिया के माध्यम से लाखों तक पहुंच गया है। एक पहचान मिल गई और उनके काम के बार में लोगों ने जाना। लेकिन सावित्रीबाई के हर कदम पर साथ देने वाली फ़ातिमा शेख़ अभी भी इतिहास के इस पन्नों में गुमनाम है।

एक समाजिक विचारधारा से लड़ी फातिमा

आज भले ही सावित्रीबाई फुले के मुकाबले उन्हें कम पहचान मिली हो लेकिन उनका योगदान कई मायने में उनसे ज्यादा था। फ़ातिमा शेख़ सिर्फ विचारधारा से नहीं लड़ी बल्कि अपने समाज और वर्ग से लड़ी। फ़ातिमा शेख़ का एक अलग प्रस्ताव था। इस्लाम खुद लड़कियों की शिक्षा पर रोक नहीं लगाता है। इसलिए, फुले द्वारा शुरू की गई जाति-विरोधी परियोजना का हिस्सा होने के कारण वह एक क्रांतिकारी बन गई। वह अकेले अपने समुदाय के लिए नहीं लड़ रही थी।

सावित्रीबाई फुले और फ़ातिमा शेख़
सावित्रीबाई फुले और फ़ातिमा शेख़

मुस्लिम लड़कियों को आधुनिक शिक्षा देने के उनके प्रयास मुस्लिम पादरियों को पसंद नहीं आए। इनमें से कुछ बातों के बारे में हम जानते हैं क्योंकि सावित्रीबाई ने अपने पति को पत्र लिखते समय फ़ातिमा शेख़ के योगदान का उल्लेख किया था। फ़ातिमा शेख़ की एक संक्षिप्त प्रोफ़ाइल अब महाराष्ट्र की उर्दू स्कूल की पाठ्यपुस्तक का हिस्सा है।

आखिर क्यों गुमनाम रही फातिमा

फ़ातिमा शेख़ का कोई लेखन कार्य ज्ञात नहीं है। मतलब उन्होंने खुद कभी कुछ लिखा नहीं इसलिए फ़ातिमा शेख़ या उनके विचारों के बारे में हम कम जानते हैं। सावित्रीबाई अपना काम करने के साथ लगातार लिख भी रहीं थीं और ये लेखन कविता से लेकर गद्य और पत्र यानी कई विधाओं में था। सावित्रीबाई के साथ ये संयोग भी था कि उनके पति ज्योतिबा फुले अपने दौर के सबसे प्रखर चिंतक और सामाजिक परिवर्तन के अग्रणी थे।

फ़ातिमा शेख़
फ़ातिमा शेख़

इसके अलावा फ़ातिमा शेख़ को किसी समाज सुधार आंदोलन ने अपने प्रतीक के रूप में प्रचारित नहीं किया।  इस मायने में महाराष्ट्र का दलित और बहुजन आंदोलन संकीर्ण नज़रिए वाला साबित हुआ। किसी भी वर्ग ने मुस्लिम नायिका फ़ातिमा शेख़ को पर्याप्त महत्व नहीं दिया। खुद उनके ही समाज ने  ही उन्हें नहीं जाना। मुस्लिम समाज ने भी फ़ातिमा को वह महत्व नहीं दिया, जिसकी वे हकदार थीं। मुसलमान इलीट में आम मुसलमान लड़कियों के शिक्षा आंदोलन को लेकर पर्याप्त उत्साह नहीं था।

डूडल बनाकर गूगल ने किया याद

आज यानि की 9 जनवरी को फ़ातिमा शेख़ के जन्मदिन पर गूगल ने डूडल बनाकर उन्हें याद किया है। देश की पहली महिला टीचर और देश की पहली मुस्लिम महिला टीचर से गूगल ने दुनिया को मिलवाया है।

गूगल ने बनाया डूडल
गूगल ने बनाया डूडल

उस वक्त फ़ातिमा शेख़ ने समाज से लड़कर महिलाओं की शिक्षा का रास्ता खोला था । अब इतिहासकारों की अनदेखी से लड़कर उन्होंने अपनी पहचान की दास्तां लिख दी है। सिर्फ मुस्लिम ही नहीं देश के हर समाज,हर वर्ग को फ़ातिमा शेख़ के योगदान को याद रखना चाहिए।

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