
ओडिशा के रायगढ़ा, कालाहांडी जिले के अंतर्गत नियमगिरि पर्वत भारत का प्राचीन पर्वत और जंगलों में से एक है, जहाँ विभिन्न पेड़, औषधीय पौधे, जीव, जन्तु, नदी, धाराएं व उपजाऊ जमीन से भरे जंगल में सदियों से डोंगोरिया कंध आदिवासी रहते हैं। नियमगिरी पर्वत में बॉक्साइट माइनिंग के साथ विविधता से भरा प्राकृतिक संसाधन को लूटने के लिए सरकार और पूंजीपतियों की बुरी नजर साल 2000 में पड़ी है। तब से यहां रह रहे आदिवासी, दलितों का जीना मुश्किल हुआ और ब्राह्मणवादी, पूंजीवादियों के खिलाफ बाबा साहब भीमराव अंबेडकर, शहीद विरसा मुंडा के विचारों से प्रेरित एक सशक्त जन संघर्ष नियमगिरी सुरक्षा समिति के नाम से शुरू हुआ है।
एक तरफ़ मोदी सरकार ने संघ परिवार समर्थित ओडिशा से आदिवासी महिला को देश का राष्ट्रपति बनाया, नवीन सरकार भुवनेश्वर में हर साल आदिवासी संस्कृति, भेष-भूषा, खानपान, जीवनशैली को विदेशी पर्यटक, महानगर शहर में आदिवासी मेलों के जरिये बाजारीकरण करके विनाश लीला रच रहे हैं। हमारे आदिवासी को माओवादी के झूठे मुक़दमे में गिरफ्तार करके जेल में सालों साल बंद किया जा रहा है। हमारे बच्चों को स्कूल में लंबे बाल रखने, हाथ में टंगिया लेके चलने पर, आदिवासी परम्परागत कपड़े पहनने से रोक रहे हैं। नियमगिरी संस्कृतिक पर्व मनाने के लिये सरकार छुट्ठी घोषणा नहीं कर रही है।
आज हालात इतना बदतर हो चुका है कि हमारे संस्कृति, स्वाभिमान, संसाधन का विनाश करके हमारे आदिवासियों की संस्कृति की फोटो, वीडियो बनाकर मार्केट की वस्तु बना दिया गया है, आदिवासी पेंटिंगस को लाखों रुपयों में बेचा जा रहा है। आदिवासियों को स्वतंत्र धर्म की मान्यता देने के बजाय आंगनवाड़ी स्कूल में हमारे बच्चों को हिन्दू/ईसाई धर्म सिखाया जा रहा है। हमारे आदिवासी के "कुई" भाषा से बात करने पर क्यों रोका जा रहा है? क्या हमारे आदिवासी विचित्र जंगली जानवर चित्र है जो लोगों के दीवार के फोटो में रहते है लेकिन दिल में रख नहीं सकते हैं? ओडिशा अन्य आदिवासी बाहुल्य राज्य में बड़े-बड़े पूंजीपतियों को जल, जमीन, जंगल,खनिज संपदा को सस्ते में देकर पूरे परिवेश को प्रदूषण कर रहे है, पीने का पानी नहीं मिल रहा, हमारे हवाओं को प्रदूषण भी हो रहा है। हमारे विश्वास, मान्यता, सुंदरता को आदिवासी मेलों के जरिए व्यापार करके, विनाश लीला के माध्यम से हमारे बिना सहमति से खरीदने-बेचने का व्यापर केंद्र बनाना एक सांस्कृतिक अपराध है।
साल 2000 में वेदांत कंपनी एलुमिना परियोजना बॉक्साइट माइनिंग के खिलाफ नियमगिरी सुरक्षा समिति संगठन के जरिए एक सशक्त जन आंदोलन के रूप में खड़ा हुआ है। नियमगिरी सुरक्षा समिति के पहला अध्यक्ष दुर्योधन नायक थे, साल 2000 में लांजीगढ़ में जब पहली बार वरिष्ठ नेतृत्व लिंगराज आजाद को झूठे मुकदमे में गिरप्तार किये तो थाना घेराव आंदोलन हुआ था।
इस आंदोलन में सरकार, वेदांत कंपनी के गुंडे, पुलिस ने मिलकर आदिवासियों, दलितों को पिटाई किए, दलित,आदिवसियों के मुंह के ऊपर थूका, पिशाब भी किये, कई लोग इस आंदोलन में घायल हुए थे, सरकार बहत सारे लोगों के घर भी बुलडोजर से गिराया था l उसके बाद नियमगिरी सुरक्षा समिती के दूसरे अध्यक्ष कुमुटी माझी के नेतृत्व में आंदोलन इतना मजबूत हुआ कि साल 2008 में कांग्रेस सरकार ने ही नवीन सरकार के मदद से वेदांत कंपनी को बॉक्साइट खनिज दिया था, लेकिन नियमगिरी आंदोलन के सामने कांग्रेस सरकार झुका और राहुल गांधी को खुद नियमगिरी आके वेदांत को बॉक्साइट खनीज ना देने का वादा करना पड़ा था। फिर नियमगिरी सुरक्षा समिति के अध्यक्ष दैसिंग माझी के नेतृत्व से आंदोलन और मजबूत हुआ था।
समय-समय पर सरकार इस आंदोलन को माओवादी आंदोलन के साथ जोड़ा है, बहुत दुष्प्रचार किया, लेकिन इस संगठन से सभी मुश्किल से पार करके नियमगिरी,जीवन,जीविका को बचाने के लिये लोग लड़ रहे हैं। नियमगिरी सुरक्षा समिति वर्तमान के अध्यक्ष लद सिकोका, संपादक दधि पुस्तिका, महिला कमेटी अध्यक्ष कुडंजी कुटरुका, युवा कमेटी में ड्रेंजु कृषिका, संवा हुइका, लसके सिकोका, साइबो पुषिका, नियमगिरी सुरक्षा के सलाहकार वरिष्ठ नेता लिंगराज आजाद, उपेंद्र द्रविड़, राज किशोर, ब्रिटिश कुमार, लेनिन कुमार, राजा और अन्य नेतृत्वकर्त्ता दो दशक से मजबूत आंदोलन चल रहे हैं।
नियमगिरी सुरक्षा समिति संगठन का नेतृत्व आदिवासी-दलित कर रहे हैं, यह कभी सवर्णों के हाथ में नहीं गया है। यह आंदोलन अभी तक इसलिए चल पा रहा है क्योंकि इसके पीछे बहुत सारे दलित-आदिवासियों का खून नियमगिरी के लिए बहा था, बहुत सारे लोग अभी भी झूठे मुकदमों के कारण जेल में बंद है, कुछ बिना जनेऊधारी कथाकथित गांधीवादी, वामपंथी नेताओं ने आंदोलन को भटकाने और हाईजैक करने की कोशिश की, लेकिन वे विफल हुए है।
कभी भी ब्राह्मणवादी सत्ता और पूंजीपतियों के सामने नियमगिरी आंदोलन ना झुका, ना रुका है, बल्कि सरकार और कंपनी को समय-समय पर झुकाया है। नियमगिरी आंदोलन का पहला योद्धा शुकरू माझी है, जो सरकार और वेदांत कंपनी के गुंडों ने उनपर कहीं जाते वक्त बोलेरो गाड़ी चढ़ा दी और फिर मरा नहीं समझकर दुबारा कुचल कर हत्या कर दी और वो शहीद हो गए। उसके बाद से माओवादी के नाम पर बेकसूर आदिवासी-दलितों को पीटने और झूठे मुकदमें लगाकर जेल में अत्याचार करने का सिलसिला शुरू हो गया। झूठे मुकदमें लगाकर पूर्ण नायक, पूर्ण माझी, कुमुटी माझी, अर्जुन चंडी, बारि पीडी, मानू, सत्य, अनिल, दधि कडरका, ड्रेंजु जैसे कई नेतृत्वकर्ताओं को पीटा गया अथवा जेल में अत्याचार किया गया है, कुछ लोग आज भी जेल में बंद है।
सरकार की सोच हमेशा यही रही है कि आंदोलन को खरीदकर, कुछ लोगों की हत्या कराके या जेल में डालकर आंदोलन को कुचला जा सकता है, लेकिन सरकार को नियमगिरी के दलित-आदिवासी की कुर्बानी और संघर्ष के सामने झुकना पड़ा है क्योंकि यहां के हर आदिवासी-दलित नियमगिरी को बचाने के लिए जीवन देने के लिए तैयार है।
जिनको लगता है कि आदिवासी, दलित लोग पढे़-लिखे नहीं होते है, वे गलत हैं और उन्हें कभी नियमगिरी या अन्य जगहों के दलितों, आदिवासियों के बीच जाकर रहना चाहिए ताकि उन्हें पता चले कि वे जातिवाद-पूंजीवाद ग्रसित सामाजिक एवं आर्थिक परिस्थितियों के विपरीत जाकर कैसे कुर्बानी देकर संघर्ष कर रहे है, यह खुद पीएचडी रिसर्च का विषय है। विगत 20 साल से कई पढे़-लिखे लोग नियमगिरी में रहकर और अपनी सोच और समझ को बढ़ाकर खुद की और दूसरों की ज़िंदगी बदल रहे हैं। हमारे निजी ज़िंदगी में नियमगिरी आंदोलन से बहुत प्रभाव पड़ा है, जिसके चलते हम नौकरी, परिवार सब कुछ छोड़कर दलित, आदिवासी, वंचित, शोषित समाज के आंदोलन में आए।
नियमगिरी आंदोलन सड़क के आंदोलन के जीत के साथ-साथ संगठन के जुनून को जिंदा रखने का मुख्य श्रेय हर साल फरवरी के आखिरी हफ्ते में आयोजित नियमगिरी रजा पर्व को जाता है। इस पर्व का तीन उद्देश्य है, पहला उद्देश्य वेदांत कंपनी या अन्य पूंजीपतियों के लिए जल, जमीन, जंगल, जीवन, जीविका को आदिवासियों से लूटने का विरोध करना है।
दूसरा उद्देश्य आदिवासियों के स्वतंत्र संस्कृति, सभ्यता, समाज के विविधताओं को ब्राह्मणीकरण, शूद्रकरण, ईसाईकरण से विभाजित करना, विरोध में सांस्कृतिक प्रतिरोध करना और आदिवासी मूलनिवासी समाज को बनवासी बनाने का नीच प्रयास का प्रतिरोध करना है।
तीसरा उद्देश्य ओडिशा में चल रहे अन्य दलित-आदिवासीयों के जन आंदोलन को एक मंच में लाकर ब्राह्मणवादी, पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ़ संघर्ष करना है। इस साल 24 से 26 फरवरी 2023 तक धांगडांग बाटा पर्वत के शिखर में नियम गिरी पर्व हुआ। हजारों की संख्या में दलित, आदिवासी देश के अन्य जगहों से भी इस पर्व को देखने के लिये आए थे, इस पर्व में प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों की पूजा की जाती है।
आदिवासी जल, ज़मीन, विविधता से भरे पेड़, पौधे, पत्थर, नए खेत के जैविक विविधता को असली जीवंत देवता मानते हैं और पूजा करके प्रकृति को मनुवादियों, पूंजीवादियों, ग्लोबल वार्मिंग, जल वायु जैसे भयंकर संकट से बचाने के लिए संकल्प लेते हैं। सदियों से ब्राह्मणों ने आदिवासी परम्परा को चुराकर और उसे हिन्दू धर्म के 33 करोड़ देवता बोलकर प्रचार किया है, गिना किसने है और आज वे जिंदा है कि नहीं पता नहीं, यह एक सवाल है। इस सांस्कृतिक प्रतिरोध पर्व में आदिवासी अपने परम्परा जैसे नाच, गाने, उनके स्थानीय भाषा एवं संस्कृति का प्रदर्शन करते हैं, सामूहिक भोजन करते हैं, आज के राजनैतिक, सामाजिक संकट के ऊपर खुले चर्चे होते हैं।
नियमगिरी आंदोलन के लिए कांग्रेस का पूंजीपति प्रेम, आदिवासी, दलित विरोधी नीति-नियत तो 75 साल से देखते आ रहे हैं। मोदी सरकार ने 2014 में आते ही नियमगिरी सुरक्षा समिति को माओवादी संगठन बोलकर प्रेस रिलीज दिया था, काफ़ी दुष्प्रचार किया था, जो हम कभी भूलेंगे नहीं। नवीन सरकार ने तो वेदांत का खुल्लमखुल्ला एजेंट बनकर नियमगिरी में वेदांत टाउनशिप बनाया है।
छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के साथ जो अत्याचार कर रहा है, केरल में कम्युनिस्ट सरकार वहीं अत्याचार आदिवासियों के साथ कर रहा है। बिजडी-भाजपा सरकार भी ओडिशा में आदिवासियों के साथ ठीक वैसे ही अत्याचार कर रहा है। हमारे नजर में यह सब पार्टियों का आर्थिक, सामाजिक एजेंडा दलित, आदिवासी विरोधी है, मनुवादी मिश्रित पूंजीपतियों समक्ष होता है। इन पार्टियों का नाम अलग अलग है, लेकिन चाल, चरित्र मिलता है, "Divided by names but united by Castes" है जो सवर्णों केंद्रित है।
हमारे नियमगिरी आदिवासियों के लिए इंसान के शरीर का रिश्ता प्रकृति के पानी से, इंसान के साँस का रिश्ता प्रकृति के हवा से, इंसान के हड्डियों का रिश्ता प्रकृति के पहाड़, खनिज सम्पद से है। हमारे आदिवासियों के लिए शिक्षा सिर्फ डिग्री हासिल करके खुद के स्वार्थ के लिए भैतिकवादी इच्छा को पूरा करना नहीं है, बल्कि समाज के लिए कुछ देके जाना है, कर गुजरना है। यहां व्यक्तिगत स्वार्थ का मतलब सामाजिक स्वार्थ होता है।
यहां के दलित,आदिवासी ने नेतृत्व सामाजिक आंदोलन को कभी चुनावी फायदे नुकसान से नहीं देखा है, ना ही उसको किसी पार्टियों को बेचा हैं बल्कि अपने दलित, आदिवासी समाज के लिए यह आंदोलन निस्वार्थ संघर्ष, सेवा करने के लिए है। आज भाजपा, कांग्रेस, बिजडी, जदयू, समाजवादी पार्टी, अन्य पार्टियां या कुछ वामपंथी पार्टियों के लिये विकास की परिभाषा बिल्डिंग, नाले, बांध बनाने का है।
हमारे नज़र में यह पार्टियां मनुवादि ग्रसित संविदात्मक परामर्शदाता (contractual consultancy) हैं और इन पार्टियों के नेता लोग वेदांत, जिंदल, टाटा, बिरला, अडानी, अम्बानी जैसे चुनिंदा पूंजीपतियों के दलाल (broker) हैं। हमारे आदिवासियों के लिये विकास की परिभाषा ऐसी है जैसे गर्भवती महिला के पेट में 3 महीने का बच्चा हो और उसके नए पीढ़ियों के लिये संशाधन, समृद्धि को छोड़के जाना है जिसे हम "sustainable development" कहते है। यह लड़ाई contractual development बनाम sustainable development के बीच है। यह लड़ाई मनुवादी ग्रसित सवर्णों, तानाशाही केंद्रित राजनैतिक पार्टी बनाम विविधता से भरी मिट्टी को बचाने की है। यह लड़ाई बाबा साहेब अंबेडकर के संघर्ष से मिला संविधान को लागू करने का बनाम हिन्दूराष्ट्र या किसी भी जाति, धर्म आधारित राष्ट्र बनाने की है। यह लड़ाई सत्ता, संपत्ति, माइनिंग माफिया पोषित पद, पैसा बनाम स्वभिमान को जिंदा रखकर सच्चाई और समाज की अच्छाई के लिए संघर्ष करने के बीच है। इस लड़ाई में आप अपने आपको कहाँ देखते है, आप किस तरफ खड़े है, यह राजनैतिक पार्टियां किसके लिए काम कर रहे हैं, जरा सोचिए, विचार कीजिए।
नियमगिरि आंदोलन, माली पर्वत, खंडूआल माली के आंदोलन, पश्चिम ओडिशा के किसान आंदोलन, ओडिशा के विभिन्न दलित, आदिवासी आंदोलन आज देश नहीं दुनिया के लिये मिशाल है कि कैसे संघर्ष करके, खुद की लड़ाई खुद लड़कर जीती जा सकती है। क्योंकि नियमगिरी आंदोलन का विचार दिल्ली, भुवनेश्वर की पूंजीपति, ब्राह्मणवादी नीतियों को लागू नहीं होने देना एवं स्थानीय लोगों का शासन चालू करना है। नियमगिरी आंदोलन का नारा है "गांव का निर्णय, देश का निर्णय हैं"। यहाँ नियमगिरी सुरक्षा समिति के सहमति से ही लोग स्थानीय पंचायत चुनाव से बिना पैसे ख़र्च किए अपने कैंडिडेट्स उतारते है और निर्वाचन भी जीतते है, जो आंदोलन के लिये सहयोग भी करते हैं।
एक तरफ देश के आर्मी को बॉर्डर पर तैनात किया जाता है, जो हम सबकी सुरक्षा करते हैं, उन सभी सैनिक को मेरा सलाम है। लेकिन तानाशाही सरकार हमारे आर्मी को ही अपने देश के आदिवासी से लड़ाई करने के लिए कैम्प लगाके तैनात कर दिए हैं। क्या हम आदिवासी देश के नागरिक नहीं है? जब नियमगिरी आंदोलनकारी बिना हथियार उठाए संविधानिक तरीके से हक के लिए लड़ रहे है तो आर्मी, पुलिस को हाथ में बड़े-बड़े लाठी, डंडे, बंदूक लेकर आमने-सामने क्यों लड़वाया जा रहा है?
सरकार के हथियार, अत्याचार के तमाम कोशिश के बाद भी नियमगिरी आंदोलन "संविधानिक मूल्यों" पर चल रहा है। "PESA" कानून, "FRA" कानून को लागू करने के लिए नियमगिरी आंदोलन शुरू से ही गणतांत्रिक पद्धति से लड़ा है। साल 2017 में देश में पहली बार सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आया था यह बोलकर की ग्रामसभा के सहमति से ही नियमगिरी जंगल को कंपनी को दिया जायेगा।
साल 2017 में सरकार ने 12 गांव को ग्रामसभा के लिए चुना था जिसमें रायगड़ा जिले का 7 गांव (गांव के नाम - लाख पदर, लंबा, जरपाख, खम्बेसी, बातूड़ी, शेखरपाड़ी, केशरपाड़ी) और कालाहांडी जिल्ले के 5 गांव (ईजुरूपा, फुलडुमेर, कुनाकाडू, पालवारी, काड़ीसुला) था। सरकार और वेदांत कंपनी ने करोड़ों खर्चा किया, लेकिन एक व्यक्ति भी नहीं बिका, आज पढे़-लिखे लोग कुछ शराब, पद, पैसों के लिए अपने आपको बेच देते हैं। रायगड़ा, कालाहांडी के जज भी ग्रामसभा में उपस्थित थे, हर आदिवासी नियमगिरि के जल, जमीन, जंगल को बचाने के पक्ष में खड़ा हुआ, कोई भी सरकार, वेदांत कंपनी के पक्ष में खड़ा नहीं हुआ था।
हमारे आदिवासियों के लिये खनिज पदार्थ, पर्वत, जंगल को नष्ट करना जैसे इंसान के शरीर के पेट में से नाभि को निकालना, आंख, किडनी, कलेजा निकालके शरीर को अधमरा छोड़ देना है। क्या हमारा शरीर विभिन्न अंगों को निकालकर ज़िंदा रह सकता है, अगर नहीं तो आदिवासि पर्वत, खनिज, जल, उपजाऊ ज़मीन के बिना कैसे रह सकते है?
दलित, आदिवासी, किसान, मजदूर, पिछड़े, वंचित, शोषित वर्ग के संघर्ष के साथ जो भी सच्चे मन से खड़ा है वे सब हमारे लोग हैं, उनका जाति, धर्म नहीं पूछना चाहिए। सवर्णों के हाथ में नेतृत्व का जिम्मा नहीं देना चाहिए क्योंकि यह जिसकी लड़ाई हैं वहीं खुद अच्छे-सच्चे तरीके से लड़ सकते हैं। सवर्णों को अगर वंचित, सोशित समाज के प्रति प्रेम है और ब्राह्मणवाद, पूंजीवाद से सच में लड़ना है तो अंबेडकर, फुले, पेरियार, बिरसा मुंडा, भगत सिंह के मार्ग से ही लड़ सकते है।
सवर्णों को खुद को D-caste and D-class करना पड़ेगा, आदिवासी, दलितों के बीच रहकर कम से कम 5 साल सामाजिक, आर्थिक गैर बराबरी असमानता को समझना पड़ेगा, अपने सवर्णों समाज में जाके पहले जागरूक करना पड़ेगा। दिल्ली, भुवनेश्वर के बंगले में बैठ कर जंगल, गांव में रह रहे लोगों की राय सोशल मीडिया में पढ़कर नहीं ले सकते है।
आज मोदी सरकार को चुनावों में जो चुनौती देगा उन विपक्ष पार्टियां के साथ हमें मोदी बनाम मुद्दे आधारित समर्थन करना चाहिए, वे आएंगे तो हमारे समाज के लिए क्या करेंगे, वंचित, शोषित समाज के लिए वादे नहीं इरादे दिखने चाहिए।
कांग्रेस का छत्तीसगढ़ में आदिवासी के ऊपर, राजस्थान में दलितों के ऊपर, कम्युनिस्ट सरकार का केरल में आदिवासियों के ऊपर जो अत्याचार हो रहा है और दलित, आदिवासी विरोधी मानसकिता हैं उसका उन्हें जवाब देना चाहिए। जन संगठन को मज़बूत करने की जरूरत है क्योंकि कोई भी विचारधारा की पार्टी आ जाएगी पर वंचित, सोशित समाज का कोई फायदा नहीं होगा जब तक वो खुदकी लड़ाई खुद नहीं लड़ेगा। वोट के ताकत से और समाज को एक साथ आकर अपना हिस्तेदारी छिनना पड़ेगा, यह हमारी सामाजिक और नैतिक जिम्मेदारी है।
जय नियमगिरी, जय भीम, हुल जोहर
लेख- मधुसूदन (अध्यक्ष, जन जागरण अभियान)
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