नंदुरबार (महाराष्ट्र): आज़ादी का अमृत महोत्सव इस बार नंदुरबार जिले के सुदूरवर्ती आदिवासी गांव उदाद्या के लिए खास साबित हुआ। यहां पहली बार स्वतंत्रता दिवस पर तिरंगा फहराया गया।
उदाद्या के 20 वर्षीय गणेश पवार ने इस काम को संभव बनाया। गांव में बिजली नहीं है और मोबाइल नेटवर्क भी बेहद कमजोर है, फिर भी उन्होंने स्वतंत्रता दिवस से एक दिन पहले इंटरनेट से एक वीडियो डाउनलोड किया जिसमें सिखाया गया था कि झंडे को सही तरीके से खंभे पर कैसे बांधा जाए ताकि फहराने में दिक्कत न हो।
अगले दिन, गणेश पवार ने करीब 30 बच्चों और ग्रामीणों के साथ मिलकर गांव के इतिहास का पहला झंडा वंदन करवाया। सतपुड़ा की पहाड़ियों में बसा यह गांव मुंबई से लगभग 500 किलोमीटर और नजदीकी तहसील से 50 किलोमीटर दूर है। करीब 400 लोगों की आबादी वाले इस गांव में अब तक कभी तिरंगा नहीं फहराया गया था।
पवार एक स्कूल में बच्चों को पढ़ाते हैं, जिसे यंग फाउंडेशन नामक संस्था संचालित करती है। संस्था के संस्थापक संदीप देओरे बताते हैं— “यह इलाका प्राकृतिक सौंदर्य और उपजाऊ जमीन से समृद्ध है। नर्मदा नदी भी यहीं से बहती है, लेकिन यह पहाड़ी इलाका होने के कारण पहुंचना बेहद मुश्किल है।”
इस साल यंग फाउंडेशन ने तय किया कि उदाद्या, खपरमाल, सदरी और मंजनिपाड़ा जैसे गांवों में भी स्वतंत्रता दिवस पर ध्वजारोहण होना चाहिए। शुक्रवार को चारों गांवों में पढ़ने वाले 250 से अधिक बच्चे और सैकड़ों ग्रामीण इस ऐतिहासिक क्षण के गवाह बने।
इन गांवों में न तो कोई सरकारी स्कूल है, न ही ग्राम पंचायत कार्यालय। इसलिए आज़ादी के सात दशक बीत जाने के बाद भी यहां कभी झंडा नहीं फहराया गया था। देओरे कहते हैं, “यह पहल सिर्फ एक प्रतीकात्मक उपलब्धि नहीं थी, बल्कि ग्रामीणों को उनके लोकतांत्रिक अधिकारों के प्रति जागरूक करने का प्रयास भी था। यहां के आदिवासी स्वाभाविक रूप से स्वतंत्र जीवन जीते हैं, लेकिन संविधान में दिए गए अधिकारों के बारे में सभी को जानकारी नहीं है। इसी कारण वे अक्सर मज़दूरी और लेन-देन में शोषण का शिकार हो जाते हैं।”
इलाके की बड़ी समस्या पहुंच और शिक्षा है। सदरी गांव तक सड़क नहीं है। वहां के लोग कई घंटे पैदल चलते हैं या नर्मदा नदी में नाव से सफर कर दूसरे गांवों तक पहुंचते हैं। सदरी के निवासी भुवानसिंह पवार कहते हैं— “हमारे बच्चों को वही कष्ट न झेलना पड़े, इसलिए मैंने अपनी ज़मीन पर स्कूल के लिए जगह दी।”
आज भी इन गांवों तक बिजली ग्रिड नहीं पहुंची है। ज़्यादातर घर छोटे-छोटे सोलर पैनल से रोशनी का इंतज़ाम करते हैं। यहां की बोली ‘पावरी’ है, जो न तो शुद्ध मराठी है और न हिंदी, इसलिए बाहरी लोगों से संवाद करना मुश्किल हो जाता है।
देओरे बताते हैं कि शुरुआती दिनों में ग्रामीणों का भरोसा जीतना कठिन था। उन्होंने कहा, “पहले वे हिचकिचा रहे थे, लेकिन जब उन्हें हमारे इरादे सच्चे लगे तो उन्होंने पूरा सहयोग दिया।”
आपको बता दें कि, यंग फाउंडेशन डोनेशन के जरिए स्कूल चलाती है। इससे शिक्षकों को वेतन और बुनियादी सामग्री का खर्च निकाला जाता है। हालांकि सरकारी स्कूलों की तरह यहां मिड-डे मील की सुविधा उपलब्ध नहीं है। आंगनवाड़ी भी ज्यादातर जगहों पर सिर्फ नाम के लिए हैं। अपवाद स्वरूप खपरमाल की आंगनवाड़ी कार्यकर्ता आज़मीबाई गांव में ही रहती हैं और ईमानदारी से अपनी जिम्मेदारी निभाती हैं।
ग्रामीणों के लिए इस साल का स्वतंत्रता दिवस केवल झंडा फहराने का दिन नहीं था, बल्कि यह अपनी पहचान और लोकतांत्रिक यात्रा में शामिल होने का गर्व महसूस करने का क्षण था।
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