ग्राउंड रिपोर्ट: मूल पहचान से क्यों दूर हो रही मध्य प्रदेश की सहरिया जनजाति?

श्योपुर जिले के कराहल, मोरवन, टिकटौली सहित दर्जनों गाँव में साल के 10 महीने सन्नाटा पसरा होता है, क्योंकि ज्यादातर सहरिया समाज के लोग घटते वन, उपज और रोजगार नहीं होने के कारण अपना पुश्तैनी जड़ी-बूटी संकलन का काम छोड़कर मजदूर हो गए हैं।
श्योपुर जिले का मोरवन गांव
श्योपुर जिले का मोरवन गांव फोटो: अंकित पचौरी, द मूकनायक

भोपाल। मध्य प्रदेश की पिछड़ी जनजातियों में से एक सहरिया समुदाय के टुंडाराम आदिवासी द मूकनायक से बातचीत में समुदाय की समस्या साझा करते हुए कहते हैं कि, "मैं श्योपुर जिले के कराहल में रहता हूँ, एक समय था जब प्रदेश में यह क्षेत्र जड़ी-बूटी के संकलन और व्यापार के लिए जाना जाता था। जंगलों से जड़ी-बूटी (औषधि) लाकर उसे बेचकर हम परिवार का पालन-पोषण करते थे। लगभग हर परिवार में औषधि संकलन का काम होता रहा है। लेकिन अब न तो जंगलों में जड़ी-बूटी बची हैं, और न ही कोई उन्हें खरीदता है। कुछ व्यापारी औषधि खरीदने आते भी है, तो अच्छा दाम नहीं मिलता।"

कराहल निवासी टुंडाराम ने आगे कहा, "अब ऐसे लोगों की कमी है जो औषधियों को जंगल से पहचान कर तोड़ने काम करते हों. वन में घटती उपज के कारण ज्यादातर लोग यह काम छोड़ चुके हैं।"

ग्वालियर-चंबल संभाग के सहरिया आदिवासी अपनी मूल पहचान खो रहे हैं। इसका मुख्य कारण वन उपज का लगातार घटता क्रम एवं नई पीढ़ी को औषधि संकलन के गुर नहीं सीख पाना है।
द मूकनायक ने सहरिया समुदाय की खो रही मूल पहचान पर पड़ताल की।

श्योपुर जिले के कराहल क्षेत्र जो पूरे मध्य प्रदेश में औषधि के संकलन के लिए मशहूर था। वह आज प्रदेश में सर्वाधिक कुपोषण और पिछड़े इलाकों में गिना जाने लगा है। सहरिया आदिवासी समुदाय की संख्या वृद्धि शून्य है। शिक्षा, स्वास्थ्य और आर्थिक रूप से पिछड़े इस समुदाय को भारत सरकार ने विशेष पिछड़ी जनजाति (PVTGs) में शामिल किया है।

टिकटौली गांव
टिकटौली गांव फोटो: अंकित पचौरी, द मूकनायक

यहां के मोरवन, टिकटौली सहित दर्जनों गाँव में साल के 10 महीने सन्नाटा पसरा होता है, क्योंकि ज्यादातर सहरिया समाज के लोग घटते वन उपज और रोजगार नहीं होने के कारण अपना पुश्तैनी जड़ी-बूटी संकलन का काम छोड़कर मजदूर हो गए हैं। हम जब इस गांव में पहुचें तो ज्यादातर घरों में ताले लटके थे, गांव में पूछने पर पता लगा की ज्यादातर लोग मजदूरी के लिए गांव से बाहर गए हैं, यहां दिन के समय महिलाएं, बच्चे और बुजुर्ग ही हमें मिले। यहां के लोग रोजगार के लिए श्योपुर, शिवपुरी, ग्वालियर सहित अन्य राज्यों में पलायन कर जाते हैं।

मध्य प्रदेश में सहरिया आदिवासी समुदाय में बढ़ती बेरोजगारी के कारण पलायन भी बढ़ रहा है। प्रदेश के ग्वालियर, श्योपुर, शिवपुरी, अशोकनगर और गुना जिले के ग्रामीण इलाकों में निवासरत विशेष पिछड़ी जनजाति सहरिया समुदाय के लोग राज्य के बाहर जाकर मजदूरी कर रहें हैं.

औषधियों की पहचान में पारंगत सहरिया आदिवासी अब जैविक खेती और जंगलों से औषधियों के संकलन का काम छोड़ चुके हैं। यह लोग अपनी मूल पहचान और पुश्तैनी काम को छोड़ कर मजदूरी के तलाश में रहते हैं। इसका सबसे बड़ा कारण जंगलों में औषधियों की कमी और सरकार की बेरुखी है।

द मूकनायक से बातचीत करते हुए शिवपुरी जिले के पोहरी क्षेत्र के प्रदीप आदिवासी ने बताया कि उनके पिता और दादा आसपास के जंगलों में जाकर औषधि लेकर आते थे, और इन्हीं जड़ी-बूटियों को शहर के व्यापारी गांव से खरीदकर ले जाते थे। यह उनका मुख्य व्यापार था। लेकिन बदलते समय में औषधियों का व्यापार कम होने लगा। अब स्थिति यह है कि सहरिया समुदाय के पास गांव में रहकर परिवार चलाना मुश्किल हो गया है। प्रदीप ने कहा, "सिर्फ बारिश के मौसम में आज भी कुछ लोग जड़ी-बूटियों का संकलन करने जंगल में जाते हैं। लेकिन इनकी मात्रा कम होना और बाजार में सही दाम नहीं मिलने के कारण ज्यादातर लोग यह काम छोड़ चुके हैं।"

कराहल ब्लॉक के आदिवासी गांव में पत्थर और छप्पर के घर.
कराहल ब्लॉक के आदिवासी गांव में पत्थर और छप्पर के घर. फोटो: अंकित पचौरी, द मूकनायक

औषधियों की खेती से, बड़ी समस्या

आयुर्वेदिक दवाओं में उपयोग होने वाली ज्यादातर औषधियों की खेती अब किसान कर रहे हैं। इस कारण से भी इन्हें जंगल से लाने बाले सहरिया समुदाय के रोजगार पर असर हुआ है। सफेद मूसली, ग्वारपाठा, गुड़मार जैसी औषधियों की खेती सीधे ही की जा रही है। श्योपुर मोरवन गांव के दिलीप आदिवासी एक वनोपज समूह के संचालक हैं, वह बताते हैं-

जंगलों में वनोपज की भारी कमी होती जा रही है, शतावर, सफ़ेद मूसली, गुड़मार, पमार जैसी जड़ीबूटीयां जिनकी बाजार में अच्छी मांग है अब यहां बिलकुल नहीं हैं। जबकि इनमें से अधिकांश जड़ी बूटी की खेती की जाने लगी है।
दिलीप

वन उपज पर काम कर रही मध्य प्रदेश विज्ञान सभा के सदस्य वीरेंद्र पराशर ने द मूकनायक प्रतिनिधि से बातचीत कर बताया कि सहरिया समाज में अब औषधि संकलन के काम में विशेष रुचि नहीं हैं। इसका कारण वनों में औषधि की उपज में लगातार कमी होना है। इसके अलावा संकलन की गई औषधियों का बाज़ार में सही दाम न मिलना है। उन्होंने आगे कहा, "सहरिया समाज के बुजुर्गों के पास औषधि संकलन की जो समझ थी, वो नई पीढ़ी में नहीं है। गलत तरह से पौधों को तोड़ना इन्हें तेजी से खत्म कर रहा है। इसलिए भी अब संकलन करने में कठनाई आ रही है।"

यह जनजातीय हैं, पिछड़ेपन का शिकार

बीयू समाजशास्त्र विभाग के शोधार्थी इम्तियाज खान बताते हैं कि, देश में अति पिछड़ी 75 जनजातियां है, जो की 18 राज्यों में पाईं जाती है। मध्य प्रदेश में तीन जनजातियां वैगा, भारिया और सहरिया विशेष पिछड़ी जनजातियों में शामिल हैं। शिक्षा का निम्न स्तर होना इनके पिछड़ेपन का मुख्यकारण है। अपनी क्षेत्रीय बोली में ही यह बातचीत करते हैं इस कारण से भी यह शिक्षा के साथ मुख्यधारा से दूर हैं।

कुपोषण से जूझ रहे सहरिया

प्रदेश के शिवपुरी और श्योपुर जिले में ही सर्वाधिक आबादी में सहरिया समाज के लोग रहते हैं। प्रदेशभर में कुपोषण में श्योपुर जिला टॉप पर रहा है। यहां रह रहे सहरिया समाज कुपोषण का शिकार है। प्रशासन और महिला बाल विकास कुपोषण दूर करने के लिए कई तरह के अभियान चला रहे हैं। पर तमाम कोशिशों के बाद भी परिणाम संतोषजनक नहीं है।

अधिकारों का हनन

आदिवासी सहरिया समुदाय के लोगों के संवैधानिक अधिकारों और मूल्यों का हनन हो रहा है, शिक्षा और रोजगार के अधिकार से वंचित विशेष पिछड़ी जनजाति के यह लोगों का समता, समानता, आर्थिक न्याय जैसे संवैधानिक मूल्यों का हनन भी हो रहा है। सहरिया समाज की मूल पहचान पलायन और मजदूरी के बोझ में दब रही है। संविधान में हम सभी देश के नागरिकों को अपनी पहचान के साथ जीवन जीने का अधिकार है। लेकिन पिछड़ी जनजाति होने के बावजूद भी इनके अधिकारों का संरक्षण करने के बजाए सरकार सिर्फ इनकी दुर्दशा को देख रही है।

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