तीन दशकों में 177 फीसदी बढ़े आदिवासियों पर अत्याचार

उत्तर प्रदेश में होते हैं एससी -एसटी पर सबसे ज्यादा जुल्म, 46.68% मामलों में 60 दिनों बाद दायर हुई चार्जशीट. 76% मामलों में लगाई गई एफआर, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार में सर्वाधिक मामले
तीन दशकों में 177 फीसदी बढ़े आदिवासियों पर अत्याचार

नई दिल्ली। देश मे अनूसूचित जाति समुदायों के विरुद्ध होने वाले अपराधों में बेताहाशा वृद्धि हो रही है। बीते तीन दशकों में यानी 1991 और 2021 के बीच अनुसूचित जाति समुदायों के खिलाफ अपराधों में 177.6% की बढ़ोतरी हुई है। इसी अवधि में अनुसूचित जनजाति समुदायों के प्रति अपराधों में 111.2% की वृद्धि हुई है। ये चौंकाने वाले आंकड़े दलित मानवाधिकार रक्षक नेटवर्क (डीएचआरडीनेट) ने अपनी रिपोर्ट में उजागर किये हैं। संस्था द्वारा 'अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम' के कार्यान्वयन पर शोध किया गया जिसके आधार पर डीएचआरडी नेट ने एक रिपोर्ट तैयार की है। यह रिपोर्ट राष्ट्रीय महिला नेताओं की परिषद (एनसीडब्ल्यूएल) और मानवाधिकार कानून नेटवर्क (एचआरएलएन) सहयोग से पूरी की गई है। रिपोर्ट में एससीएसटी एक्ट को और भी प्रभावी ढंग से लागू करने के सुझाव भी दिए हैं।

नेटवर्क के द्वारा सार्वजनिक की गई रिपोर्ट में सार्वजनिक सरकारी आंकड़ों और सूचना का अधिकार अधिनियम के माध्यम से एकत्रित प्राथमिक और माध्यमिक आंकड़ों का उपयोग किया गया है। अध्ययन के लिए कुल 15 राज्यों को चुना गया था। पीओए अधिनियम के लिए नोडल अधिकारी, गृह विभाग, कानूनी और अभियोजन विभाग, जिला न्यायालयों, राज्य अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो, सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय और राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के आंकड़ों को शामिल किया गया है। चयनित राज्यों में 100 से अधिक अत्याचार-प्रवण जिलों में आरटीआई आवेदन भी दायर किए गए थे। जिसके आधार पर रिपोर्ट तैयार की गई है।

शोध में सामने आए चैंकाने वाले तथ्य

रिपोर्ट के अनुसार, अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति समुदायों के खिलाफ अधिकांश अपराध उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और बिहार में होते हैं। ये राज्य भारत की आबादी का 36% प्रतिनिधित्व करते हैं, लेकिन अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदायों के खिलाफ दर्ज सभी अपराधों का लगभग दो-तिहाई अपराध दर्ज करते हैं। जाति-आधारित हिंसा के व्यापक प्रसार के बावजूद, भारत में 733 से अधिक जिलों का केवल पांचवां हिस्सा 'अत्याचार-प्रवण' घोषित किया गया है।

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एससी/एसटी पीओए अधिनियम के तहत अत्याचार के मामलों में चार्जशीट 60 दिनों के भीतर दायर की जानी चाहिए। लेकिन, डीएचआरडीनेट की रिपोर्ट में बताया गया कि विश्लेषण से पता चलता है कि 2016-2020 के बीच दर्ज अत्याचार के लगभग 46.68% मामलों में चार्जशीट 60 दिनों के बाद दायर की गई। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदायों के खिलाफ 76% अपराधों का परिणाम "झूठी रिपोर्ट", "कानून की गलती” या “नागरिक विवाद" दिखाया गया है।

नियमों की अनदेखी, सालों तक लंबित मामले

एससी/एसटी पीओए अधिनियम लंबित मामलों को कम करने और सजा की दर बढ़ाने के लिए विशेष या अनन्य अदालतों की स्थापना का आदेश देता है। विशेष या अनन्य न्यायालयों से अपेक्षा की जाती है कि वे दो साल के भीतर सुनवाई पूरी करें। हालांकि, मध्य प्रदेश में औसतन चार साल तक मामले लंबित रहते हैं। बिहार में विशेष अदालत की उपस्थिति ने दोषसिद्धि दर में सुधार नहीं किया है, जो कि 4.79% पर बनी हुई है। डीएचआरडीनेट ने यह भी पाया कि कई मामलों में अत्याचार के मामलों की जगह गैर-अत्याचार के मामलों को प्राथमिकता दी जाती है। कर्नाटक और गुजरात में अनन्य न्यायालयों के रूप में नामित अदालतों ने पीओए अधिनियम के तहत मामलों की तुलना में गैर-अत्याचार मामलों के लिए अधिक सुनवाई की गई।

समय पर नहीं मिलता मुआवज़ा

एससी/एसटी पीओए अधिनियम प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने के एक सप्ताह के भीतर मुआवजे की पहली किश्त जारी करने का भी आदेश देता है जो अत्याचार के 10% से कम मामलों में होता है। मध्य प्रदेश में जिन 15,935 पीड़ितों को मुआवजा दिया गया, उनमें से किसी को भी समय पर मुआवजा नहीं मिला। उत्तर प्रदेश में 47,851 में से सिर्फ 7 को – 0.014% – एक सप्ताह के भीतर मुआवजा मिल पाया।

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इसके अलावा, मुख्यमंत्री की अध्यक्षता वाली उच्च-शक्ति वाली सतर्कता और निगरानी समिति की साल में दो बार बैठक होनी चाहिए। 2016 से 2020 के बीच गुजरात को छोड़कर सभी राज्य ऐसा करने में विफल रहे। कई राज्यों में अभी तक समिति का गठन भी नहीं हुआ है। इसी तरह, लगभग एक तिहाई जिलों ने अनिवार्य जिला सतर्कता और निगरानी समितियों का गठन नहीं किया है। यहां तक कि बनाई गई समितियां भी अनिवार्य रूप से सालाना तीन बैठकें नहीं कर पाई हैं।

अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम को और भी प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए नेटवर्क ने सरकारों को सुझाव दिए है:

  • मानक पद्धतियों का उपयोग करते हुए अत्याचार-प्रवण क्षेत्रों की पहचान।

  • नियमित त्रैमासिक निगरानी कि चार्जशीट 60 दिनों के भीतर दायर की जाए और देरी के कारणों को आधिकारिक तौर पर दर्ज किया जाए।

  • विशेष या जांच अधिकारियों और विशेष लोक अभियोजकों की सक्रिय भर्ती हो।

  • उच्च लम्बित और कम दोषसिद्धि दर वाले क्षेत्रों में अतिरिक्त अभियोजकों को भर्ती किया जाए।

  • सुनवाई में तेजी लाने के लिए विशेष अदालतों को अत्याचार के मामलों की सुनवाई को प्राथमिकता देनी चाहिए; मौद्रिक मुआवजा, रोजगार और अन्य पुनर्वास उपाय प्रदान करने की प्रक्रिया में तेजी लाएं और अधिनियम के अनुसार इसका आधिकारिक रिकॉर्ड बनाएं।

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