बुद्ध की धरती पर 'जय श्रीराम' के नारे, बौद्ध भिक्षुओं से मारपीट! क्या बोधगया में दोहराया जा रहा है मनुवादी इतिहास?

बोधगया में महाबोधि महाविहार को लेकर बौद्धों और ब्राह्मणवादी ताकतों के बीच टकराव तेज, भिक्षुओं से मारपीट और धार्मिक आस्था पर हमलों के गंभीर आरोप।
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महाबोधि महाविहार में बौद्धों पर हमले: क्या भारत के बौद्धों की आस्था और अधिकार खतरे में हैं?ग्राफिक- राजन चौधरी, द मूकनायक
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नई दिल्ली: बिहार के बोधगया स्थित महाबोधि महाविहार, जहाँ भगवान बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था — वह स्थल आज न केवल बौद्ध आस्था का केंद्र है, बल्कि विवादों, नारों, आक्रोश और कथित हमलों का प्रतीक बनता जा रहा है। सोशल मीडिया और ज़मीनी रिपोर्टों से सामने आ रही घटनाएँ गंभीर चिंता का विषय हैं, खासकर तब जब यह सब बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर हो रहा है, जब दुनिया भर में बौद्ध श्रद्धालु भगवान बुद्ध को श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे हैं।

वंचित बहुजन अघाड़ी के राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रकाश आंबेडकर ने एक गंभीर आरोप लगाते हुए लिखा कि बोधगया में ब्राह्मणवादी और मनुवादी ताकतों द्वारा बौद्धों और भिक्षुओं पर हमले किए जा रहे हैं। उन्होंने इसे #महाबोधि_मुक्ति_आंदोलन को कमजोर करने की साजिश बताया और बौद्ध समुदाय से आह्वान किया कि वे इस दमन के खिलाफ संगठित हों और ब्राह्मणवादी सोच को बेनकाब करें।

प्रकाश आंबेडकर ने ट्वीट में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर निशाना साधते हुए कहा कि यह न केवल भारत के बौद्धों का, बल्कि दुनिया भर के 50 करोड़ बौद्धों का भी अपमान है।

In the presence of the Governor, Brahmin priests performed the worship of Shivling in the Mahabodhi Mahavihara campus.
महाबोधि महाविहार परिसर में राज्यपाल की मौजूदगी में ब्राह्मण पुजारियों से शिवलिंग की पूजा करवाई गई.फोटो साभार- इंटरनेट

“शिवलिंग की पूजा” और बौद्ध भिक्षुओं की बेबसी

बुद्धिस्ट भंते सुमित रतन ने आरोप लगाया कि महाबोधि महाविहार परिसर में राज्यपाल की मौजूदगी में ब्राह्मण पुजारियों से शिवलिंग की पूजा करवाई गई और भिक्षु तमाशबीन बने खड़े रहे। उनका आरोप था कि चंदा चोरी और आंतरिक लड़ाई-झगड़े के चलते आंदोलन कमजोर पड़ा है, और यही कमजोरी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बौद्ध धर्म की प्रतिष्ठा को ठेस पहुँचा रही है।

मारपीट, गुमशुदगी और सांप्रदायिक नारे

एक अन्य चिंताजनक घटना में अखिल भारतीय दलित, आदिवासी, पिछड़ा एवं अल्पसंख्यक संयुक्त मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. ओम सुधा ने दावा किया कि महाबोधि महाविहार परिसर में कुछ असामाजिक तत्वों ने बौद्ध भिक्षुओं के साथ मारपीट की और भंते विनाचार्य कल रात से लापता हैं। वहीं, ऑल इंडिया पँथर सेना के अध्यक्ष दीपक केदार ने ट्वीट कर आरोप लगाया कि आंदोलन स्थल पर “जय श्रीराम” जैसे सांप्रदायिक नारे लगाए गए, जिससे बौद्ध भिक्षुओं की सुरक्षा को खतरा उत्पन्न हो गया।

उन्होंने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को ज्ञापन देते हुए माँग की:

  1. आंदोलन स्थल पर तत्काल पुलिस तैनात की जाए।

  2. सांप्रदायिक नारे लगाने वालों की गिरफ्तारी हो।

  3. बोधगया टेंपल एक्ट 1949 को रद्द कर मंदिर का नियंत्रण बौद्धों को सौंपा जाए।

  4. घटना की निष्पक्ष जांच के लिए स्वतंत्र समिति गठित की जाए।

सवालों के घेरे में संवैधानिक संस्थान

इस पूरे घटनाक्रम की विडंबना यह है कि यह सब उस समय हो रहा है जब भारत के मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई स्वयं बुद्धिस्ट हैं, जब देश के कानून मंत्री अर्जुनराम मेघवाल अनुसूचित जाति समुदाय से आते हैं, और जब अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री किरेन रिजिजू भी स्वयं बुद्धिस्ट हैं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या भारत के संवैधानिक पदों पर बैठे इन प्रतिनिधियों के रहते भी बौद्ध समुदाय असुरक्षित और उपेक्षित महसूस कर रहा है?

ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य और वर्तमान आंदोलन

बोधगया महाबोधि मंदिर का प्रबंधन लंबे समय से विवाद का विषय रहा है। बोधगया टेंपल एक्ट 1949 के तहत मंदिर का नियंत्रण राज्य सरकार और हिंदू-बहुल प्रबंधन समिति के हाथों में है, जबकि यह स्थल बौद्ध आस्था का केंद्र है। यही कारण है कि वर्षों से बौद्ध समुदाय महाबोधि महाविहार मुक्ति आंदोलन के तहत इस स्थल का नियंत्रण बौद्धों को सौंपने की मांग करता रहा है।

क्या यह केवल एक धार्मिक विवाद नहीं है?

बोधगया की घटनाएं केवल धर्म या पूजा पद्धति से जुड़ा मुद्दा नहीं हैं। यह भारत के लोकतंत्र, अल्पसंख्यक अधिकारों और धार्मिक स्वतंत्रता पर एक गंभीर प्रश्नचिह्न है। सवाल उठता है कि क्या बहुसंख्यक धार्मिक वर्चस्व के दबाव में भारत के मूलतः शांतिप्रिय बौद्ध समुदाय को अपमान और हमलों का सामना करना पड़ेगा?

मुद्दे पर नजर रखने वाले लोगों की राय में, अगर भारत को ‘बहुजातीय, बहुधार्मिक और बहुसांस्कृतिक’ राष्ट्र के रूप में खड़ा रहना है, तो ऐसी घटनाओं पर तुरंत और निष्पक्ष कार्रवाई होनी चाहिए। नहीं तो यह आंदोलन न केवल बोधगया में, बल्कि भारत और वैश्विक स्तर पर भी एक बड़ा राजनीतिक-सांस्कृतिक मुद्दा बन सकता है।

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