भारतीय सामाजिक व्यवस्था में जेण्डर का सवाल एक बड़ा सवाल है जिस पर पुरुष वर्ग सदियों से चुप्पी साधे रहा है। स्त्री-पुरुष समानता की बात न तो गैर-दलित पुरुषों में दिखायी देती है और न ही दलित पुरुषों में। यही कारण है कि स्त्री विमर्श का उदय हुआ और उसके बाद जाति, वर्ग और जेण्डर का सवाल लेकर दलित स्त्री विमर्श भी उदित होता है।
पितृसत्तात्मक व्यवस्था एक दमनकारी व्यवस्था है जिसका नियमन मनु ने किया और मनुवादी मानसिकता से ग्रस्त लोग ही जिसे अभी भी पाल-पोष रहे हैं। वर्णाश्रम व्यवस्था भी इसी से संचालित है। दलित विमर्श वर्णाश्रम व्यवस्था का निषेध करता है। इस व्यवस्था के विध्वंश से ही निम्न तबके दलित और स्त्रियों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अधिकार मिल सकते हैं और वे भी समाज में सम्मानपूर्ण जीवन जी सकते हैं।
किन्तु जिस मनुवादी मूल्यों के नकार में दलित आंदोलन और दलित साहित्य विकसित हुआ वह, खासकर हिंदी का दलित साहित्य स्त्रियों के मुद्दों पर मनुवाद को कितना नकारता है, यह विचारणीय है। हिंदी के दलित विमर्श से यह प्रश्न है कि वह स्त्री को एक मानवी के रूप में दर्जा देने तथा सभी मूलभूत अधिकारों को मुहैया कराने में उसका कितना सहयोगी है?
एक स्वतन्त्र प्राणी के रूप में वह उसे कितनी स्वतन्त्रता प्रदान करता है? क्योंकि दलित विमर्श जिन उद्देश्यों के लिए लड़ रहा है उसमें वंचितो, शोषितों, स्त्रियों, आदिवासियों की मुक्ति का उद्देश्य भी शामिल है किन्तु स्त्री के अधिकारों के लिए वह कितना प्रयत्नशील दिखायी देता है? यह महत्वपूर्ण सवाल है ।
दुनिया के बड़े-बड़े आन्दोलनों ने भी दलित स्त्री के मुद्दों को अनदेखा कर दिया। चाहे वह मार्क्सवादियों का आंदोलन हो, स्त्री आंदोलन हो या फिर आज़ादी के लिए भारतीय स्वाधीनता आंदोलन ही क्यों न हो? जहां तक दलित आंदोलन है वह डॉ. भीमराव अम्बेडकर के आंदोलन से अपना निहितार्थ ग्रहण करता है इसलिए अपने समुदाय की स्त्रियों की मुक्ति के लिए उससे अधिक उम्मीद की गयी। जहां घोर निराशा हाथ लगी।
दलित स्त्री विमर्श के दृष्टिकोण से मूल्यांकन करने पर कुछ प्रश्न खड़े होते हैं कि क्या जेण्डर के आधार पर दलित स्त्री के साथ होने वाले शोषण को उन्होंने अपनी रचनाओं में जगह दी है? सवाल यहां केवल यही नहीं है।
सवाल यह भी है कि क्या दलित समाज में पितृसत्तात्मक व्यवस्था कायम नहीं है? यदि है, तो वहां दलित स्त्री का घर के अन्दर होने वाले लैंगिक शोषण का चित्रण क्या दलित पुरुष रचनाकारों ने अपनी रचनाओं में किया है? या बाहरी जगत में गैर-दलित जातियों द्वारा होने वाले लैंगिक शोषण का ही चित्रण बहुत बढ़ा-चढ़ा कर किया गया है । दलित स्त्रियाँ वहां मानुषी के रूप में आती हैं या नहीं? इस प्रश्न के उत्तर में जाने पर हमें एक गहरे यथार्थ का बोध होता है कि दलित पुरुषों में भी गैर-दलित पुरुषों की भांति पितृसत्ता व्याप्त है ।
श्यौराज सिंह बेचैन इतना तो मानते हैं कि दलित स्त्रियाँ दलित पुरुषों द्वारा सतायी गई हैं किन्तु इसके पीछे वे सामन्ती प्रभाव को जिम्मेदार ठहराते हैं, “दलित महिलाएं दलित पुरुषों द्वारा भी यदि कहीं सतायी गई हैं, तो वे सवर्ण-सामंती प्रभावों के कारण सतायी गई हैं ।”
अपनी आत्मकथा ‘मेरा बचपन मेरे कंधों पर’ में सौतेले पिता भिकारी द्वारा अपनी माँ के ऊपर किये गये अत्याचार का वर्णन करते हुए वे लिखते हैं-- “अम्मां पाली में भी परेशान रहती थी। सबसे दुखद यह कि भिकारी अम्मा को लाठी-डण्डे, कलाबूत या फरहे से मारा-पीटा करता था।” दलित पुरुष भी अपनी स्त्रियों पर अपना अधिकार समझकर उन्हें मारते-पीटते हैं। ‘‘भिकारीलाल और अम्मां में अकसर झगड़ा होता था। वे पति-पत्नी एक-दूसरे की ज़रूरत और मजबूरी थे, किन्तु उनके स्वभाव और संस्कारों में कोई मेल नहीं था। न तो वे एक-दूसरे को समझ पा रहे थे और न समायोजन कर पा रहे थे सप्ताह में छह दिन उनमें झगड़ा ही होता था। भरण-पोषण कर्ता होने, घर का मालिक और पुरुष होने के नाते भिकारी माँ को तिहरे अधिकार से मारता था।’’
इसी तरह तुलसीराम ने भी दलित पितृसत्ता के दंश और उसके घृणित रूप का अपनी आत्मकथा ‘मुर्दहिया’ में वर्णन किया है । दलित समाज में पितृसत्ता का वीभत्स रूप हर घर में देखने को मिलता है । पितृसत्ता के वर्चस्व को जॉन स्टुअर्ट मिल ने सही अर्थों में व्याख्यायित किया है ..‘‘हर पुरुष के धड़ में एक हांड़-माँस की एक स्त्री के रूप में इसका अस्तित्व है, यह शक्ति किसी मोची-धोबी के पास भी उतनी ही है, जितनी किसी राजा-महाराजा के पास, और यह मामला कुछ ऐसा है कि इसमें शक्ति की इच्छा सबसे ज़्यादा होती है-क्योंकि जो लोग हमारे निकट होते हैं, उन्हीं पर शक्ति प्रदर्शन का सबसे ज़्यादा आनन्द आता है और उन्हीं की स्वतन्त्रता हमारी पसन्द-नापसन्द में दखलन्दाजी कर सकती है।’’ कमोबेश दलित स्त्रियाँ भी इसी अत्याचार और उत्पीड़न की शिकार होती हैं। दलित समाज में दलित पुरुष ठीक वैसा ही सुलूक अपनी स्त्रियों के संग करते हैं जैसा सवर्ण अपने घरों की स्त्रियों के साथ ।
राजेन्द्र यादव का मानना है कि, ‘‘स्त्री हमारा अंश और विस्तार है। वह हमारी ऐसी जन्मभूमि है, जिसे हमने अपना उपनिवेश बना लिया है । हमारी सोच और संस्कृति के सारे सामन्ती और साम्राज्यवादी मूल्य उपनिवेशों के आधिपत्य और शोषण को जायज ठहराने की मानसिकता से पैदा होते हैं । बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में दुनिया भर में जो उपनिवेश भौतिक और मानसिक रूप से स्वतन्त्र हुए, उनमें ‘स्त्री’ नाम का उपनिवेश भी है । दलित हमारे घरों और बस्तियों से बाहर होता है । स्त्री हमारे भीतर होती है, इसलिए उसका संघर्ष ज़्यादा जटिल है ।”
कांचा इलैया दलित समाज में दलितबहुजन पितृसत्ता की मौजूदगी को स्वीकारते हैं। वह इसे ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के एकदम विपरीत मानते हैं। दलितों में जो पितृसत्ता है वहां औरत उत्पादन और प्रजनन दोनों की भूमिका में है। चाहे वह घर हो या खेत कहीं भी औरत और पुरुष के काम में अन्तर नहीं है। कांचा इलैया दलितबहुजनों में पितृसत्ता को लोकतांत्रिक मानते हैं। इसके पीछे का कारण वह दलितों में परिवार तथा समुदाय के भीतर राजनीतिक संबंधों के लोकतांत्रिक होने से मानते हैं।
वह कहते हैं कि ‘माता-पिता और बच्चों के संबंध के रूप में राजनीति यहां जिस रूप में काम करती है उसे पितृसत्तात्मक लोकतंत्र कहा जा सकता है।’ इसके अतिरिक्त वह ‘व्यक्तिगत’ धारणा जैसी कोई बात दलितबहुजनों में नहीं पाते हैं । इस कारण वहां गृहस्थी अनिवार्य रूप से व्यक्तिगत नहीं है। फिर भी वह दलितों में पितृसत्ता को अनिवार्य मानते हैं क्योंकि वहां भी दलित पुरुष अपनी स्त्रियों पर अत्याचार करते हैं। वे लिखते हैं कि ‘इन जातियों में घर एक सामाजिक इकाई होता है । यह एक स्वीकृत मान्यता है। पत्नी की पिटाई करना एक पितृसत्तात्मक व्यवहार है, जो लगभग सभी जातियों में है। दलितबहुजन भी इससे मुक्त नहीं है।”
कौसल्या बैसंत्री ने अपने आत्मकथात्मक उपन्यास ‘दोहरा अभिशाप’ में दलित समाज के अभिशप्त और संत्रास जीवन का वर्णन तो किया ही है साथ ही दलित स्त्रियों के साथ हुए भीषण अत्याचार का भी चित्रण किया है। उन्होंने घरेलू हिंसा, जातिगत भेदभाव, सामाजिक हिंसा तथा दलित घरों में व्याप्त दलित पितृसत्ता की विद्रूपता को भी उघाड़ा है। दलित घरों में यह अकसर देखने को मिलता है कि पति शराब पीकर बच्चों एवं पत्नी से मारपीट करता है। उसके आत्म-सम्मान को हमेशा चोट पहुंचाता है जबकि पत्नी श्रम-परिश्रम करके सुचारु रूप से घर चलाने का प्रयत्न करती है। ‘दोहरा अभिशाप’ में लेखिका अपने पति देवेन्द्र की थोथी प्रगतिशीलता का कच्चा-चिट्ठा खोलते हुए उसके सामन्ती और पितृसत्तावादी मानसिकता का वर्णन करती है जिसका शिकार लेखिका को होना पड़ा – ‘‘मेरी और देवेन्द्र कुमार की नहीं बनी। देवेन्द्र कुमार सिर्फ अपने घेरे में रहने वाला आदमी है। गर्म मिजाज और जिद्दी। अपने मुंह से कहता कि मैं बहुत शैतान आदमी हूं। उसने मेरी इच्छा, भावना, खुशी की कभी कद्र नहीं की। बात-बात पर गाली, वह भी गंदी-गंदी और हाथ उठाना। मारता भी बहुत क्रूर तरीके से।’ देवेन्द्र कुमार को पत्नी सिर्फ खाना बनाने और उसकी शारीरिक भूख मिटाने के लिए चाहिए थी। दफ़्तर के काम और लिखना यही उसकी चिंता थी। मुझे किसी चीज की ज़रूरत है, इस पर उसने कभी ध्यान नहीं दिया।”
यह सच है कि जेण्डर के आधार पर होने वाले शोषण से अकेली स्त्रियाँ प्रताड़ित हैं। शरण कुमार लिंबाले अपने एक साक्षात्कार में दलित स्त्रियों के उत्पीड़न के पक्ष में अपना विचार रखते हैं कि ‘‘दलित स्त्री जैसे जाति-व्यवस्था की गुलाम है वैसे पुरुष-सत्ता की भी गुलाम है। उसका दोहरा शोषण होता है। दलित स्त्री जाति-व्यवस्था के विरुद्ध और दलित पुरुष सत्ता के विरुद्ध लड़ रही है। दलित पुरुष इस व्यवस्था का गुलाम है तो दलित स्त्री गुलाम बनी है। हम समता और सामाजिक न्याय का समर्थन करते हैं। हम दलित स्त्री पर होने वाले अन्याय के ख़िलाफ़ हैं । इतना ही नहीं हम किसी भी स्त्री पर होने वाले अन्याय के पक्ष में नहीं। दलित एक क्रांतिकारी मानसिकता है। यह मानसिकता किसी भी गुलामी का समर्थन नहीं कर सकती।”
मुख्यधारात्मक साहित्य हो या मार्क्सवादियों का साहित्य हो जिस तिहरे शोषण से दलित स्त्री अभिशप्त थी उससे निजात दिलाने के लिए स्वयं दलित साहित्यकारों ने भी कुछ नहीं किया। दलित पुरुष भाईयों द्वारा इस प्रकार की अनदेखी से दलित स्त्री रचनाकार बहुत आहत हुईं। इसी उपेक्षा के भाव को दलित कवयित्री रजनी तिलक अपनी कविता ‘मेरे भाई’ में दलित पितृसत्ता की सच्चाइयों को उघाड़ती चलती हैं, जिसमें वे (दलित पुरुष) अपनी मुक्ति तो चाहते हैं किन्तु अपने घर की (दलित स्त्रियों) जहां बात आती है वहां उन्हें अपने आंदोलन में दरारों की आंशका नज़र आती है। रजनी तिलक लिखती हैं –
“तुम मेरे कौमी भाई!
अपनी आज़ादी माँगते हो
बताते और हमें समझाते हो
उसे पूरी कौम की आज़ादी!
कौम की आज़ादी
क्या औरतों की गुलामी है?
ममत्व की छत्रछाया में पलने वाले
बड़े होते ही क्यों हो गये
तुम मर्द, तोप, तलवार के साये?
हमने झेली
तुम्हारी वेदनाएं, निराशाएं
महत्वाकांक्षा और तिलमिलाहट
फिर यो हमसे
यूं सामन्ती व्यवहार क्यों?
तुम्हें लोकतंत्र की दरकार
हमें नहीं?
यह वो आदर्श नहीं
जिसके लिए तुम
भीम सैनिक बने।’’
दलित स्त्री की आवाज को दलित साहित्य के भीतर कितना विरोध झेलना पड़ा है। कौसल्या बैसंत्री की आत्मकथा दोहरा अभिशाप पर डॉ.धर्मवीर की लिखी समीक्षा 'दोहरा अभिशाप कितना दोहरा?' 'एक डायनासोर औरत?' को पढ़कर जाना जा सकता है। ग़ौरतलब है कि दलित स्त्री जब स्वयं लिखती है तो भी उसको उलाहने देने के लिए दलित पुरुष तैयार रहता है। यह डॉ. धर्मवीर द्वारा की गयी समीक्षा और उनके लेखन से भी हम जान सकते हैं। रमणिका गुप्ता का मानना है कि स्वयं दलित समाज के भीतर भी वही नैतिक मूल्य, मान्यताएं और पितृसत्ता घुसपैठ कर चुकी हैं जो सवर्ण समाज के भीतर मौजूद रही हैं। कौसल्या बैसंत्री और सुशीला टाकभौरे की आत्मकथा इस बात को बहुत ही स्पष्ट कर देती हैं कि दलित समाज और पुरुष अपनी स्त्रियों का वैसा ही शोषण करते हैं जैसे कि सवर्ण समाज। जो स्त्री जितनी आत्मनिर्भर और चेतनासंपन्न और स्वतन्त्र होगी वह उसी मात्रा में अपने उत्पीड़न और पालतू बनाए जाने का विरोध कर पायेगी। डॉ.अम्बेडकर का मानना था कि- ‘पुरुष का प्रभुत्व हर समाज में रहा है, इसकी प्रतिष्ठा अधिक रही है। पुरुष की परंपरागत श्रेष्ठता के कारण उसकी इच्छाओं का सदा सम्मान किया जाता रहा है। दूसरी ओर नारी सदा धार्मिक, आर्थिक और सामाजिक असमानताओं का शिकार होती रही है।’
हिन्दी दलित साहित्य में कौसल्या बैसंत्री हों या फिर सुशीला टाकभौरे इन्होंने अपनी आत्मकथाओं ‘दोहरा अभिशाप’, ‘शिकंजे का दर्द’ में घर के भीतर दलित पितृसत्ता की गहरी पैठ का चित्रण किया है। मराठी दलित स्त्री लेखिकाओं ने भी अपनी आत्मकथाओं में दलित पुरुषों के दमन का खुलकर वर्णन किया है जिसमें बेबीताई कांबले का ‘जीवन हमारा’, उर्मिला पंवार का ‘आयदान’ प्रमुख है। सुशीला टाकभौरे के पति सुन्दरलाल टाकभौरे एक उच्च शिक्षित व्यक्ति और सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं किन्तु उनकी इस योग्यता में संदेह तब देखने को मिलता है जब वह अपनी पढ़ी-लिखी पत्नी पर घरेलू अत्याचार करते हैं। सामाजिक कार्यकर्ता होने के नाते उनके द्वारा इस तरह का व्यवहार अमानवीय कृत्य को प्रकट करता है।
अपनी आत्मकथा ‘शिकंजे का दर्द’ में सुशीला टाकभौरे अपने पति द्वारा किए गये अत्याचार की हिंसक घटनाओं का चित्रण करती हैं जो बहुत ही हैरतअंगेज है- “मेरे साथ घर में मार-पीट, गाली-गलौज सब कुछ हुआ। बाल पकड़कर खींचना, लातों से मारना, गर्दन पर मुक्के बनाकर मारना, पीठ पर घूंसे मारना। मैंने सब कुछ सहा। बेंत के निशान कई दिनों तक मेरे शरीर पर रहते थे, मार खाने के बाद मेरी हालत यह होती थी-घण्टों सिर चकराता, जैसे मैं हवा में उड़ रही हूं। ज़मीन से फिसल रही हूं, बड़े-बड़े पत्थर मेरी तरफ लुढ़कते आ रहे हैं, जैसे भागता हुआ हाथी आकर अचानक मेरे सिर पर पैर रखकर कुचल रहा है।” दलित बहुजनों के घरों में दलित स्त्रियों का दमन, उत्पीड़न और इस तरह का दोहरा शोषण बहुतायत मिलेगा।
दलित घरों में दलित स्त्रियों पर होने वाली हिंसाएं कम नहीं हैं। दलित स्त्रियों को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने के बावजूद भी दलित पुरुषों द्वारा अत्याचार और उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। चाहे पति शिक्षित ही क्यों न हो, वह पत्नी पर हिंसा करना अपना अधिकार समझता है। दलित विमर्श के तहत देखा जाय तो दलित पुरुष रचनाकारों द्वारा पितृसत्ता की मौजूदगी को अस्वीकार करना उनमें व्याप्त पितृसत्तावादी मानसिकता को ही दर्शाता है।
दलित स्त्री रचनाकार अपनी रचनाओं में अपने समाज में स्त्री के ऊपर होने वाले हर शोषण का यथार्थपूर्ण मार्मिक चित्रण करती है। इसी सन्दर्भ में किंगसन पटेल लिखती हैं कि “दलित विमर्श जाति आधारित वर्चस्व को खत्म कर देना चाहता है, लेकिन स्त्री को दोयम बनाये रखने के मामले में वह भी सवर्ण पुरुषों से सहमत है।’ धर्मवीर के हवाले से देखा जाय तो यह और भी वर्चस्वकारी तथा नियन्त्रणकारी है ‘दलित पुरुष को आर्य पुरुष की गुलामी से बचना है, तो उन्हें अपनी स्त्रियों के कब्जे में रखना होगा।”
ऐसी सोच ही दलित स्त्रियों में अपने विमर्श व अपने मुद्दों तथा अधिकारों के प्रति जबरदस्त संघर्ष शुरू करने की प्रक्रिया दिखायी देती है। इस संबंध में बजरंग बिहारी की टिप्पणी उचित जान पड़ती है- ‘पितृसत्ता के हिमायतियों की पहरेदारी बढ़ गई है। पितृसत्ता के सवर्ण और दलित खेमों ने जिस तरह से हाथ मिलाया है, उस दुरभिसंधि का सच भी दलित-स्त्री के लेखन में उजागर हो रहा है ।’
डॉ. अम्बेडकर के आंदोलन को अपनी ऊर्जा मानने वाला दलित आंदोलन का दोहरा चरित्र वहीं स्पष्ट हो जाता है जहां वह डॉ. अम्बेडकर के स्त्री-मुक्ति आंदोलन को अपनी विचारधारा में शामिल नहीं करता। यह बात पूरी तरह सही है कि दलित स्त्रियों के साथ उनके कौमी भाइयों ने बहुत ही ज्यादती की। घर में अपनी पत्नियों के साथ सामंती व्यवहार कर उनसे स्वतन्त्रता का हक़ भी छीन लिया। कहां-कहां किस पड़ाव पर दलित पुरुषों ने उनके साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार किया, इसका उल्लेख दलित स्त्री रचनाकार अपनी प्रत्येक रचनाओं में करती हैं।
यह सच है कि दलित स्त्रियाँ अपने ऊपर होने वाले किसी भी प्रकार के अत्याचार का आज प्रतिकार कर रही हैं। यदि घर के बाहर उनका शोषण गैर-दलित पुरुष करता है तो वे उसका मुंह तोड़ जवाब देने से पीछे नहीं हटतीं और घर के अन्दर दलित पुरुष के अत्याचार का बदला वे अन्याय के ख़िलाफ़ लड़कर लेती हैं। पितृसत्ता की शक्तिशाली चक्रव्यूह को धीरे-धीरे भेदना वे समझ गयी हैं, जिसके लिए उन्होंने कलम उठा लिया है।
डॉ. प्रियंका सोनकर बीएचयू में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं.
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