सत्ता और व्यापार के लिए ब्राह्मणवादी देवताओं का राजनीतिकरण

सत्ता और व्यापार के लिए ब्राह्मणवादी देवताओं का राजनीतिकरण

22 जनवरी 2024 को देश ने एक अद्भुत दृश्य देखा है. प्रधानमंत्री मोदी ने देश के प्रमुख अख़बारों में प्रकाशित अपने भाषण में इसे 'राजा की घर वापसी' की संज्ञा दी  – जबकि पूरा ब्राह्मणवादी मीडिया उन्हें ही विष्णु का अवतार सिद्ध करने पर आमादा था.  कांग्रेस और अन्य सहयोगी दलों ने सांकेतिक ही विरोध किया– कार्यक्रम का नहीं, बल्कि शंकराचार्यों को अनदेखा कर इसे राजनैतिक बनाने पर ही आपत्ति की, शंकराचार्यों ने भी इसके राजनीतिकरण पर विरोध किया है,पर उन्ही में से एक ने "शूद्र" पुजारी नियुक्त होने का विरोध कर अपनी असली मंशा ज़ाहिर ही कर दी है.

संघ द्वारा परिचालित मंदिर ट्रस्ट ने यह कहकर मुद्दे को घुमाने की कोशिस  कि पूजा रामानन्दा सम्प्रदाय के हिसाब से हो रही है, इसलिए शंकराचार्यों की बात मानी नहीं जा सकती। प्रगतिशील लेखक जैसे प्रताप भानु मेहता ने दुःख ज़ाहिर किया की हिन्दू धर्म का राजनीतीकरण मुकम्मल हो चूका है और अब पीछे मुड़ने का कोई रास्ता नहीं है। सबने अपने अपने ढंग से हिन्दू धर्म का आवरण किया, परन्तु जाती,धर्म और पहचान को लेकर सभी राजनैतिक शिविर में जातिवादी कुंठाएं जगजाहिर था.

कौनसा न्याय बहाल किया जा रहा था और किसके द्वारा - किसकी मर्यादा का गुणगान किया जा रहा था? यह लेख भारत में युगों से जारी वास्तविक धार्मिक हाशिए के सवाल को सीधे तौर पर उठाता है - बहुजन धार्मिकता का हाशिए की बात करता है.

हम इस लेख में ओडिशा को केंद्र में लेकर बात रखेंगे - वही ओडिशा जो हिंदू धर्म के चार तीर्थों में से एक है और पूरी शंकराचार्यों की गद्दी भी. ये शंकराचार्य अपनी जातिवादी बयानों के लिए कुख्यात हैं  – अमेरिका में जातिवाद स्थापित करने से आह्वान को लेकर, मंदिरों में दलितों के प्रवेश पर प्रतिबंध लगाने का आह्वान तक. ऐसे जातिवादी, ब्राह्मणवादी मानसिकता नई नहीं है, दरअसल यह ओडिशा के सामाजिक-राजनतिक मानचित्र में रच-बस गया है. ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन बाबू ने मोदी के तर्ज आनेवाले चुनावों में लाभ पाने की उम्मीद में पूरी जगन्नाथ मंदिर परिक्रमा पथ को बनवाने में जनता के पैसे से 800 करोड़ फूँक दिए है। हम इन्ही विषयों पर आगे चर्चा करते हैं.

हमारे भगवन हमारे झोपडी में लौटा आएं! जगन्नाथ से डोखरी बूढी तक की कहानी

सन 1881 को पूरी स्थित जगन्नाथ मंदिर पर महिमा अलेख आंदोलन के (जिसमें ज्यादातर दलित और आदिवासी वर्गों से आते थे) लोगों ने जगन्नाथ मंदिर पर हमला किया था। उनका कहना था की भगवान जगन्नाथ पहले एक आदिवासी देवता थे, ओडिशा के मूलनिवासि/आदिवासीयों से चुराया गया और भब्य मंदिर में कैद कर लिया गया था. वे अपने घरों से लाए गए पका हुआ चावल के बर्तन के साथ मंदिर में घुस गए और जगन्नाथ के 'भोग' को अपवित्र कर दिया। उनको सन्देश स्पष्ट था – जगन्नाथ हमारे हैं और हमारा रोजमर्रा का भोजन उनका भोग/प्रसाद ही है। महिमा अलेख धार्मिक आंदोलन की उत्पत्ति 19वीं शताब्दी के कंध भीम भोई आदिवासी कवी ने की थी. यह महिमा अलेख आंदोलन कालाहांडी-बलांगीर-कोरापुट (केबीके) के आदिवासी,दलित आबादी वाले क्षेत्रों से सुरु हुई और आसपास के छत्तीसगढ़ के आदिवासी-दलित समाज में भी अच्छा प्रभाव रखता है। यह आंदोलन सामंतवादी रूढ़ियों को तोड़ने एवं ब्राह्मणवादी दमनकारी कर्मकांड और मूर्तिपूजक का घोर विरोधी था. कर्मकांड जो की अंग्रेज़ों के साथ ही दलित, आदिवासियों के औपनिवेशिक संपर्क में आया था. महिमा धर्म ने मंदिर में भगवन की मंदिरों में स्तापना के विचार को अमान्य किया था। इसी तर्ज पर हम आदिवासी- दलित को एक मानते हुए आदिवासी अथवा दलित अथवा शूद्र अथवा "मूलनिवासी" उपयोग एक समावेशी शब्द के रूप में करते हैं जो ओडिशा के मूल निवासियों - हाशिए पर रहने वाली जातियों को शामिल करता है।

ये सांकेतिक विरोध  घर के बने भात-दाल भोजन  की थी न की सांप्रदायिक कट्टरता और नफरत द्वारा फावड़ा (कुदाल) की थी - कुदाल जो राम जन्मभूमि के मंदिर परिसर में कारसेवक लेकर बाबरी मस्जित पर चढ़े थे और कितने लोगों की जान चली गयी थी, देश की बिबिधता को चोट की थी. अपनी धार्मिकता का परिचय देते हुए ये कहना की 'जगन्नाथ चोरी से लाये गए हैं', 'मंदिर वहीँ बनाएंगे' वाली संकीर्ण नारेबाजी के मुकाबले एक गहन सन्देश देता है. ये महिमा धर्म की मूर्तिभंजन और जातिवाद तोड़ने का प्रतिक बन गया है - न की अस्मिताओं के गृह युद्ध का।  इस घटना ने दिखा दिया की दलित-आदिवासियों के भगवान खेत,खलिहान और जंगल में भात दाल खाकर खुश है, न की छप्पन भोग बना कर ब्यापार करने का है. ऐसा इसलिए है की  झोपड़ी के बजाए एक भव्य मंदिर में भगवान की स्थापना  ब्राह्मण पुजारी के द्वारा अभिजात्य वर्ग की स्थापना है और कुछ नहीं है, ऐसा विचार जिसे महिमा आंदोलन और ओडिशा के मूल निवासी दोनों अस्वीकार करते हैं।

जैसा की कांचा इलियाह शेफर्ड अपनी किताब 'व्हाई आई  एम नॉट ए हिन्दू ’ में लिखते हैं : “दलित-बहुजन समाज ने कभी भी ऐसे पुरोहित वर्ग/जाति को उभरने नहीं दिया जो उत्पादन से बिलुप्त हो या लोगों से देवी-देवताओं को दूर करता हो. श्रमण वर्ग/जाति "शूद्र" पुरोहित्त की प्रथा, देवी-देवताओं और लोगों के बीच बहुत कम या कोई दूरी ना होना, यह विचार ओडिशा की मूलनिवासी धार्मिकता का केंद्र था जो उत्तर भारत के विपरीत प्रथा था। ओडिशा के कई स्थानीय और स्वदेशी मंदिरों में माली, राउल, नाई जैसे कई शूद्र जातियां पुजारी हुआ करते थे, पर आज वहां ब्राह्मण पुरोहित पूजा करते हैं और इन मंदिरों को हिन्दू एकता के नाम पे संगठित तरीके से बर्चस्ववादी ब्राह्मणवादी हिंदुत्व वाले बलपूर्वक हथिया  ले जा रहा है।

ब्राहमणवादिओं के द्वारा यह बलपूर्वक हथियाने की प्रक्रिया ओडिशा का के.बी.के क्षेत्र (कालाहांडी, बोलांगीर, कोरापुट) में स्पष्ट रूप से देखी जा सकता है. इसी क्षेत्र में  डाक्यूमेंट्री फिल्म ' Flames of Freedom ' के निर्देशक सुब्रत कुमार साहू कालाहांडी स्थित इच्छापुर गांव में मूलनिवासी देवी डोकरी बुढ़ी' एक खंभे के रूप में पूजा जाता था, जो की  ब्राह्मणों द्वारा चोरी करके भव्य मंदिर स्थापित करके अगवा करने की काहानी बताते हैं। गांव के ब्राह्मण संप्रदाय ने मूलनिवासी देवी को उसी स्थान पर पक्का मंदिर बनाकर' कनक दुर्गा ' के रूप में स्थापित करदिया और नए मंदिर में संस्कृत भाषा में श्लोकों का उच्चारण किया जाता है. ब्राह्मणवादी कर्मकांड करके मूलनिवासियों जिनमें दलित,आदिवासी और ओबीसी (माली, तेली,डोम और धोबी आदि जातियों) को अपने ही देवी से विमुख और बिलुप्त कर दिया है, सुब्रत कुमार साहू की यह फिल्म आगे के संघर्ष की कहानी बताती है।

ओडिशा के दलित साहित्यकार लेखक अखिल नायक द्वारा रचित प्रथम दलित उपन्यास  'भेद' इसी हिंदू धार्मिक प्रतीकों और बहुजन देवताओं  के दार्शनिक टकराव को दिखाता है। इस तर्क के लिए मूलनिवासी और ब्राह्मण भगवान में कोई पार्थक्य न होने की बात पर आग- बबूला होकर, कुछ ऐसा कहता है जो आपको सोचने पर मजबूर करेगी: सभी देवता एक जैसे होते हैं, मूलनिवासी पुजारी एक पात्र को याद दिलाते हैं कि केवल कुछ ब्राह्मणीकृत देवताओं के लिए साहूकारों द्वारा भव्य मंदिर क्यों बनाए गए? जबकि मूलनिवासी देवता छोटी झोपड़ियों में रहते है। नीचे दिया गया पैराग्राफ शिक्षाप्रद है, क्योंकि यह एक विद्रोही भगवान के विचार को प्रस्तुत करता है, जो  मूलनिवासीयों/बहुजनों  का पक्ष लेता है.

हां अब आप मुद्दे पर आ रहे हैं. ब्राह्मण के देवी देवता बड़े मेहलों में रहते हैं,परन्तु हमारे थुटीमैली किसी मंदिर में नहीं रहती,क्या आप जानते हैं क्यों? क्या यह केवल थुटीमैली है? हमारा कोई भी देवी-देवता मंदिर में नहीं रहता है। हम लोग तो कामगार,किसान,मजदूर और गरीब लोग हैं। हमारे घर एक या दो कमरे से ज्यादा नहीं, मिट्टी और टहनियों से बनी झोपड़ी घर है. तो फिर क्या हमारे देवी-देवता पेड़ों के नीचे या झोपड़ियों में हमें छोड़ कर बड़े मंदिरों में रहना पसंद करेंगे?” हमारे आराध्य हमें छोड़ प्रसादों में क्या करेंगे? उन्हें जंगल, पेड़ और मिट्टी के घर ही रास आते हैं." (पृ.121)

अब इसकी तुलना राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा समारोह में प्रधानमंत्री के द्वारा भाषण की पहली पंक्तियों से कीजिए, “हमारे राम लल्ला अब तंबू में नहीं रहेंगे, हमारे राम लल्ला अब भव्य मंदिर में राज करेंगे.” आदिवासी,दलित इन पंक्तियों को सुनकर याद करती है की उन्हे उन दिब्य मंदिरों की दरवाजे कभी खुले ही नहीं थे. दिव्य मंदिर ब्राह्मण पुजारियों के साथ रहते है और उनसे दूर रखा जाता है मानो जैसे जेलों की तरह हैं जो उनके देवताओं को उनसे हथियाकर उन्हें कैद कर दिया जाता है।

मूलनिवासी भगवानों की बेअदबी करके नष्ट करना,जल जमीन,जंगल की चोरी करना: ब्राह्मण गोँतीआ (जमींदार)और  हिंसक कंपनियां

 

नियमगिरि में आदिवासी पहाड़ को अपना भगवान मानते हैं - हमारे 'नियमराजा' जिनके डंगरिया कंध वंशज हैं. पिछले दो दशकों में, राज्य (एक उच्च जाति के मुख्यमंत्री के नेतृत्व में) ने उनके आदिवासी भगवान की भूमि पर बॉक्साइट खनन करने की कोशिश की है -  यह जानते हुए की उनके भगवान की सरासर बेअदबी है,पहाड़ पर खनन करना उनकी धार्मिक मान्यताओं का अपमान होगा। हमने नियमगिरि में एक किस्सा सुना : एक बार सरकारी बाबू ने खनन का विरोध करने वाले कंध नेता से कहा, "पहाड़ के बारे में चिंता मत करो, कंपनी बही बॉक्साइट ही चाहती है जो पहाड़ के नीचे है,बॉक्साइट को नीचे से हटा दिए जाने के बाद पहाड़ वैसा ही रहेगा जैसा वह अभी है"? जवाब में कंध नेता ने कहा, “सर आप महा ज्ञानी हैं,आप बहुत पढ़े-लिखे हैं, परन्तु मैं आपकी पेट की आंतें और धमनियां निकाल दूं तो आप वैसे ही बने रहेंगे जैसे अभी है"?  यह कहानी दर्शाती है कि कैसे ब्राह्मणवादी व्यवस्था द्वारा  हिंदू धर्म के नाम पर भव्य मूर्ति-केंद्रित ब्यपारिकरण ने दलित,आदिवासियों के सांस्कृतिक और धार्मिक चेतना तथा संवेदनाओं के साथ अकल्पनीय हिंसा किये है - यह सब खनिज संपदा को लूटकर अनिल अग्रवाल द्वारा संचालित वेदांत कंपनी, गौतम अदानी, मुकेश अंबानी जैसे क्रोनी कैपिटलिस्ट बनिया,सेठों के पॉकेट भारती है और उनको लाभ पहुंचाने तथा उनके पैसे से सत्ता हतियाने के लिये किया जा रहा है। नवीन पटनायक जगन्नाथ मंदिर परिक्रमा के नाम पे हजारो करोड़ फुक देते है और अपने डेपुटी के साथ टीवी चैनल पे राम लल्ला के सामने सर झुकाए तस्वीर खींचते हैं, मोदी भब्य मंदिर का उद्घाटन करके अपने राजनैतिक बैतरणी पार करना चाहते है,  यह सव तस्वीर न्यूज़ चैनल पर जव आते है  तो आदिवासी, दलित समझते है कि इसका क्या मतलब है।

ये चर्चा हमें ब्राह्मणवादी धार्मिकता के एक मूल सत्य को परिचित कराता है–ये न केवल धार्मिक सामंतवाद है बल्कि सामाजिक - आर्थिक गुलामगिरी भी है. कालाहांडी के इच्छापुर गांव में जहां मूलनिवासी देवी डोकरी बूढ़ी की जगह ब्राह्मणवादी कनक दुर्गा  देवी ने ले ली थी, वहां के मूलनिवासी इस सच्चाई से रूबरू हो गए हैं। आज तक गांव में एक ब्राह्मण गोँतीआ (जमींदार) है और संख्या में नगण्य होने के बावजूद ब्राह्मण के पास सारी जमीनें हैं। ब्राह्मण गोँतीआ साहब  चुने हुए सरपंच के समानांतर गांव का धार्मिक,सामाजिक और आर्थिक कर्ता धर्त्ता होने का दावा भी करता है।

दलित उपन्यास 'भेद '– जिसका पहले जिक्र आया  – लेखक अखिला नायक ने दिखाया है की किस तरह यह ब्राह्मण अंग्रेजों के औपनिवेशिक नीतियों के चलते यहां आए और उन्ही नीतियों के बलबूते पर मूल निवासियों से छलपूर्वक जमीन हथियाकर जमींदार बन बैठे है. आजतक इन मूलनिवासी बहुल क्षेत्र में ब्राह्मणों तथा  उच्च जातियों के पास भूमि पर नियंत्रण बना हुआ है - 'भूमि सुधार' के वादों के बावजूद। यह धार्मिक गुलामगिरि से आर्थिक, सामाजिक,राजनैतिक गुलामगिरी की और लेके जा रहा है. जमींदारों और साहूकारों द्वारा कर्ज के जाल में फंसाकर आदिवासी-दलितों को गुलाम बनाने की कुख्यात गोटी सांस्कृतिक प्रथा आज भी जारी है - अपने ही पूर्वजों को जमीन पर मूलनिवासी को खेती करने के लिए मजबूर कर दिया गया है।

हम मूलनिवासी ये राम जगन्नाथ मंदिर में प्रार्थना नहीं करेंगे! अयोध्या की हिंसक धार्मिकता को अस्वीकार करते हैं

उनके कहानी संकलन  ‘दा आदिवासी विल नॉट डांस’ में  हंसदा सोवेंद्र शेखर का आखरी गल्प एक आदिवासी नृत्य  मंडली की की दुर्दशा का वर्णन करती है, जिन्हे उनके पारंपरिक जमीन से विस्थापित कर बनाया गए स्टील प्लांट के उद्घाटन पर प्रदर्शन करने के लिए मजबूर किया जाता है. उद्घाटन समारोह में आदिवासी राज्य के महामहिम राज्यपाल के सामने मंच पर खड़े होकर पुलिसिया अत्याचार का दंश झेलते हुए सच कहते हैं-आदिवासी अपने विनाश की धुन पर नहीं नाचेंगे न ही कोई जश्न मनायेंगे।

राम मंदिर का उद्घाटन और ब्राह्मणीकृत मूर्तिपूजा का भव्य तमाशा हमारे अंदर एक समान भावना पैदा करता है। हमें अपने घरों से बिस्थपित करके,हमारे देवताओं की चोरी करके, हमारी ज़मीनों को हड़पने और ऊंची जातियों की दासता में अपने जीवन की संघर्ष को याद आती है।

इसलिए, हम राम मंदिर में प्रार्थना करने  सिरे से नकारते हैं. हमारे देवता और जमीन हमें लौटा दो। जैसा कि अंबेडकर की 22 प्रतिज्ञाओं में से एक है, "मैं राम और कृष्ण में कोई आस्था नहीं रखूंगा, जिन्हें भगवान का अवतार माना जाता है और न की मैं उनकी पूजा करूंगा.”

लेखक- अम्लान और मधुसूदन ओडिशा में मूलनिवासी समाजसेवक संघ के कार्यकर्ता हैं.
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति The Mooknayak उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार The Mooknayak के नहीं हैं, तथा The Mooknayak उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.
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