भोपाल। मध्यप्रदेश मानवाधिकार आयोग में अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्तियों को लेकर सियासत गरमा गई है। सोमवार को मुख्यमंत्री निवास पर इस विषय को लेकर हुई बैठक में नेता प्रतिपक्ष उमंग सिंघार ने नियुक्ति प्रक्रिया पर गंभीर सवाल उठाए और इसे अपारदर्शी व कानूनी प्रावधानों के खिलाफ बताया।
बैठक में मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव और विधानसभा अध्यक्ष भी मौजूद थे। लेकिन नेता प्रतिपक्ष सिंघार ने शुरुआत से ही इस मुद्दे पर अपनी असहमति दर्ज कराते हुए कहा कि संवैधानिक संस्थाओं की नियुक्तियों में मनमानी या अस्थायी इंतजाम से जनता के अधिकारों पर सीधा असर पड़ता है।
उमंग सिंघार ने बैठक में कहा कि मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993 की धारा 21 के अनुसार आयोग में स्थायी अध्यक्ष की नियुक्ति अनिवार्य है। लेकिन 7 अक्टूबर 2022 को तत्कालीन अध्यक्ष न्यायमूर्ति (से.) एन. के. जैन का कार्यकाल समाप्त होने के बाद से अब तक कोई नियमित नियुक्ति नहीं की गई।
उन्होंने कहा कि सरकार लंबे समय से आयोग को कार्यवाहक अध्यक्षों के भरोसे चला रही है, जबकि धारा 25 केवल अस्थायी प्रभार देने की व्यवस्था करती है, यह स्थायी नियुक्ति का विकल्प नहीं हो सकता।
सिंघार ने कहा कि 26 सितंबर 2025 से आयोग में अध्यक्ष सहित न्यायिक सदस्य और विशेषज्ञ सदस्य, तीनों पद रिक्त हैं। उन्होंने यह भी कहा कि आयोग को केवल एक सदस्य के आधार पर “क्रियाशील” दिखाना कानून की मूल भावना के खिलाफ है।
नेता प्रतिपक्ष ने मांग की कि सभी रिक्त पदों को एक ही प्रक्रिया में समूहबद्ध कर भरना चाहिए, ताकि आयोग सही मायनों में काम कर सके और पीड़ितों को समय पर न्याय मिल सके।
सिंघार ने यह भी आरोप लगाया कि राज्य सरकार ने मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में हलफ़नामा दिया था कि 31 अगस्त 2024 तक स्थायी अध्यक्ष की नियुक्ति कर दी जाएगी। लेकिन आज तक यह नियुक्ति नहीं हुई, जो कि न्यायालय और जनता, दोनों के साथ किया गया वादा तोड़ने जैसा है।
नेता प्रतिपक्ष ने बैठक में कहा कि आयोग के पदों के लिए न तो किसी राजपत्र में विज्ञापन जारी हुआ, न ही किसी सरकारी पोर्टल या अख़बार में सूचना दी गई।
सिंघार ने सुप्रीम कोर्ट के उन आदेशों का भी हवाला दिया, जिनमें लोकपाल और CIC जैसे निकायों की नियुक्तियों में खुला विज्ञापन और स्पष्ट मानदंड तय करने को कहा गया था।
बैठक में उमंग सिंघार ने सुप्रीम कोर्ट के डी.के. बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (2015) के ऐतिहासिक फैसले का भी उल्लेख किया। इस फैसले में कहा गया था कि राज्य मानवाधिकार आयोग में रिक्त पदों की नियुक्ति तीन महीने के भीतर अनिवार्य रूप से की जानी चाहिए।
उन्होंने सवाल उठाया कि जब यह आदेश स्पष्ट है, तो मध्यप्रदेश सरकार ने अब तक नियुक्ति क्यों नहीं की।
सिंघार ने यह भी कहा कि समिति को भेजे गए नामों में एससी/एसटी समुदाय का कोई प्रतिनिधित्व नहीं दिख रहा। भले ही अधिनियम में आरक्षण का प्रावधान न हो, लेकिन मानवाधिकार जैसे महत्वपूर्ण निकाय में समावेशी और विविध प्रतिनिधित्व जरूरी है, ताकि हर वर्ग की आवाज़ उठ सके।
नेता प्रतिपक्ष ने यह भी आपत्ति जताई कि अधिनियम की धारा 21(1) में केवल तीन श्रेणियाँ- अध्यक्ष, न्यायिक सदस्य और विशेषज्ञ सदस्य, का ही प्रावधान है। “सदस्य (प्रशासनिक)” जैसी कोई श्रेणी अधिनियम में नहीं है, इसलिए इस तरह के पदनाम देना कानून के खिलाफ है।
बैठक के बाद मीडिया से बात करते हुए उमंग सिंघार ने कहा कि मानवाधिकार आयोग आम जनता की आखिरी उम्मीद है। जब प्रशासनिक व्यवस्था जनता को न्याय नहीं देती, तो लोग आयोग की शरण में आते हैं।
इस संबंध में द मूकनायक से बातचीत में नेता प्रतिपक्ष उमंग सिंघार ने कहा, “ऐसे पदों पर अपात्र व्यक्तियों की नियुक्ति न्याय के सिद्धांतों के खिलाफ होगी। भाजपा सरकार संवैधानिक संस्थाओं को कमजोर कर रही है। अगर हमारी आपत्तियाँ नहीं मानी गईं, तो हम हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाएँगे।”
सिंघार ने यह भी कहा कि राहुल गांधी बार-बार कह चुके हैं कि भाजपा से संविधान को खतरा है, और आज यह खतरा साफ नजर आ रहा है।
मानवाधिकार आयोग एक अर्ध-न्यायिक (Quasi-Judicial) संस्था है, जो नागरिकों के मौलिक और मानवाधिकारों की रक्षा के लिए बनाई गई है। इसका गठन मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993 के तहत हुआ। यह आयोग उन मामलों की जांच करता है जहाँ पुलिस, प्रशासन या अन्य सरकारी एजेंसियों पर मानवाधिकार उल्लंघन के आरोप लगते हैं। आयोग पीड़ित पक्ष को न्याय दिलाने के लिए सिफारिशें करता है, जैसे दोषियों पर कार्रवाई, पीड़ित को मुआवजा, या नीतिगत सुधार। हालांकि इसके आदेश बाध्यकारी नहीं होते, लेकिन सरकार को उन पर विचार कर कार्यवाही की जानकारी देनी होती है।
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