OBC को जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण देने की मांग पर SC सख्त, MP सरकार से तीन सप्ताह में जवाब तलब

सुप्रीम कोर्ट ने प्रारंभिक सुनवाई के दौरान मध्य प्रदेश शासन से तीन सप्ताह के भीतर विस्तृत जवाब प्रस्तुत करने का निर्देश दिया है।
Madhya Pradesh 27% OBC quota
OBC आरक्षण मध्यप्रदेशGraphic- The Mooknayak
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भोपाल। मध्य प्रदेश में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण देने की मांग एक बार फिर राष्ट्रीय बहस के केंद्र में आ गई है। ओबीसी एडवोकेट्स वेलफेयर एसोसिएशन ने उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर कर राज्य सरकार के आरक्षण अधिनियम, 1994 की धारा 4(2) को चुनौती दी है।

शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और संदीप मेहता की खंडपीठ ने याचिका की प्रारंभिक सुनवाई करते हुए मध्य प्रदेश शासन को नोटिस जारी कर तीन सप्ताह के भीतर जवाब मांगा है। कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि मामला अत्यंत गंभीर है क्योंकि यह सामाजिक न्याय और समान अवसर के संवैधानिक सिद्धांतों से जुड़ा हुआ है।

याचिका में क्या कहा गया है?

याचिकाकर्ता संस्था ओबीसी एडवोकेट्स वेलफेयर एसोसिएशन की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता रामेश्वर सिंह ठाकुर ने अदालत को बताया कि राज्य में लागू मध्य प्रदेश आरक्षण अधिनियम, 1994 की धारा 4(2) वर्तमान में अनुसूचित जाति (SC) को 16 प्रतिशत, अनुसूचित जनजाति (ST) को 20 प्रतिशत और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) को 27 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान करती है।

लेकिन 2011 की जनगणना के अनुसार, मध्य प्रदेश की आबादी में अनुसूचित जातियों का हिस्सा 15.6 प्रतिशत, अनुसूचित जनजातियों का 21.01 प्रतिशत और ओबीसी वर्ग का 50.01 प्रतिशत है।

इस आधार पर याचिकाकर्ताओं का तर्क है, की एससी और एसटी वर्गों को तो आबादी के लगभग अनुपात में आरक्षण दिया जा रहा है, जबकि ओबीसी वर्ग, जिसकी जनसंख्या सबसे अधिक है, उसे केवल 27 प्रतिशत तक सीमित रखा गया है।इसलिए अधिनियम की धारा 4(2) संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), 15 (भेदभाव निषेध) और 16 (समान अवसर का अधिकार) का उल्लंघन करती है।

धारा 4(2) ओबीसी के साथ भेदभाव करती है

वरिष्ठ अधिवक्ता ठाकुर ने कोर्ट में दलील दी कि यह धारा सामाजिक समानता के सिद्धांत के विपरीत है। उन्होंने कहा कि “जब आरक्षण का आधार सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन है, तो आबादी के अनुपात में प्रतिनिधित्व न देना न्याय के साथ अन्याय है।”

याचिका में यह भी उल्लेख किया गया है कि संविधान के अनुच्छेद 340 के तहत केंद्र और राज्य सरकारों को पिछड़े वर्गों की स्थिति का समय-समय पर मूल्यांकन करना चाहिए। लेकिन राज्य सरकार ने अब तक ओबीसी वर्ग की वास्तविक जनसंख्या और प्रतिनिधित्व के आधार पर कोई ठोस कदम नहीं उठाया है।

सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने याचिका को विचारार्थ स्वीकार करते हुए कहा कि मामला नीति निर्धारण से जुड़ा जरूर है, लेकिन संविधान की समानता की भावना से भी गहराई से संबंधित है।

सुप्रीम कोर्ट ने प्रारंभिक सुनवाई के दौरान मध्य प्रदेश शासन से तीन सप्ताह के भीतर विस्तृत जवाब प्रस्तुत करने का निर्देश दिया है। अदालत ने राज्य सरकार से यह स्पष्ट करने को कहा है कि -

  • ओबीसी आरक्षण को 27 प्रतिशत तक सीमित करने का आधार क्या है?

  • क्या राज्य सरकार ने ओबीसी वर्ग की जनसंख्या का अद्यतन आंकलन किया है?

  • क्या सरकार ने यह सुनिश्चित करने के लिए कोई ठोस कदम उठाए हैं कि ओबीसी वर्ग को उनकी वास्तविक जनसंख्या और सामाजिक प्रतिनिधित्व के अनुपात में आरक्षण का लाभ मिल सके?

कोर्ट ने यह भी टिप्पणी की कि बिना अद्यतन जनसांख्यिकीय आंकड़ों और वैज्ञानिक मूल्यांकन के आधार पर आरक्षण प्रतिशत तय करना संवैधानिक समानता और न्याय के सिद्धांतों के अनुरूप नहीं माना जा सकता। इसलिए राज्य सरकार को यह बताना होगा कि उसने किन तथ्यों, अध्ययनों या आयोगों की रिपोर्ट के आधार पर यह 27 प्रतिशत सीमा तय की है।

संवैधानिक प्रावधान

  • अनुच्छेद 14: सभी नागरिकों को कानून के समक्ष समानता और समान संरक्षण का अधिकार।

  • अनुच्छेद 15: धर्म, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध।

  • अनुच्छेद 16: सार्वजनिक रोजगार में समान अवसर की गारंटी और पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान।

याचिकाकर्ता संस्था का कहना है कि इन अनुच्छेदों की भावना के अनुरूप आरक्षण का निर्धारण होना चाहिए, न कि मनमाने प्रतिशत के आधार पर।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी नोटिस के बाद अब मध्य प्रदेश सरकार पर यह जिम्मेदारी होगी कि वह स्पष्ट करे कि ओबीसी को केवल 27 प्रतिशत आरक्षण क्यों दिया गया है, जबकि उनकी जनसंख्या राज्य में आधे से अधिक है।

द मूकनायक से बातचीत में वरिष्ठ अधिवक्ता रामेश्वर सिंह ठाकुर ने बताया कि कानून ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण तक सीमित नहीं करता। संविधान की भावना के अनुसार, उन्हें उनकी वास्तविक जनसंख्या के अनुपात में, यानी लगभग 50 प्रतिशत तक, प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए। वर्तमान में ओबीसी वर्ग को उसकी आबादी के आधे से भी कम आरक्षण दिया जा रहा है, जो समानता और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों के विपरीत है।”

उन्होंने आगे कहा कि “राज्य सरकार को यह स्पष्ट करना होगा कि उसने 27 प्रतिशत की सीमा किस आधार पर तय की, जबकि कोई ताज़ा जनगणना या आयोग की रिपोर्ट इस सीमा का समर्थन नहीं करती। हमारा मानना है कि जब तक ओबीसी वर्ग को उसकी आबादी के अनुरूप अवसर नहीं मिलेंगे, तब तक संवैधानिक समानता अधूरी रहेगी।”

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