प्रो. लक्ष्मण यादव को नौकरी से निकाला, जानिए क्या है पूरा मामला?

'डीयू ने नौकरी छीन ली, हिम्मत नहीं छीन सकते'; जानिए प्रोफेसर लक्ष्मण यादव के साथ क्या हुआ?
प्रो. लक्ष्मण यादव
प्रो. लक्ष्मण यादवGraphic- The Mooknayak

नई दिल्ली। मेरे लहजे में जी हुजूर न था, इससे ज्यादा मेरा कसूर न था...। दिल्ली विश्वविद्यालय के जाकिर हुसैन कॉलेज के असिस्टेंट प्रोफेसर लक्ष्मण यादव ने जैसे ही इन लाइनों के साथ अपने टरमिनेशन लेटर को सोशल मीडिया पर साझा किया, लोगों का गुस्सा डीयू प्रशासन पर फूट पड़ा। प्रो. लक्ष्मण को नौकरी से निकाल दिया गया है। इस संबंध में बुधवार दोपहर को एक औपचारिक पत्र जारी किया गया। हालांकि, पत्र में नौकरी से निकाले जाने का कारण नहीं बताया गया है।

कॉलेज प्रिंसिपल प्रो. नरेन्द्र सिंह ने पत्र में लिखा है कि हिन्दी व दर्शनशास्त्र विभाग में एडहॉक पर कार्यरत सभी असिस्टेंट प्रोफेसर की सेवाएं 6 दिसम्बर 2023 से समाप्त की जा रही हैं। इसमें डॉ. लक्ष्मण यादव का नाम लिखा गया है।

यादव दिल्ली यूनिवर्सिटी में गत 14 साल से पढ़ा रहे थे। बिना किसी वाजिब कारण के बाबा साहब भीमराव अंबेडकर के परिनिर्वाण दिवस पर नौकरी जाने से प्रोफेसर लक्ष्मण मायूस नजर आए। उनके स्थान पर अन्य प्रोफेसर को नियुक्ति दे दी गई है।

प्रोफेसर लक्ष्मण ने एक वीडियो जारी कर कहा कि जैसे-जैसे लोग शिक्षित हो रहे हैं, उन्हें दबाने की कोशिश की जा रही है। जो सच बोलेगा वह मारा जाएगा। प्रोफेसर का कहना है लगातार सच बोलने के कारण उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया।

प्रोफेसर लक्ष्मण ने द मूकनायक को बताया, "1 सितंबर 2010 को मैंने दिल्ली यूनिवर्सिटी से सम्बद्ध जाकिर हुसैन कालेज के हिंदी विभाग में बतौर असिस्टेंट प्रोफेसर नौकरी की शुरुआत की थी। 6 सितंबर 2010 को मैंने पहली बार कक्षा में गया। यह मेरे लिए एक सपने के पूरे होने जैसा था।"

प्रोफेसर लक्ष्मण द मूकनायक को बताते हैं, "यह सफर काफी लंबा रहा। आजमगढ़ के छोटे से गांव में गाय-भैंस चराने वाला काम करता था। मुझे यह कभी अंदाजा नहीं था कि मैं इस मंजिल तक पहुंच जाऊंगा। मेरे माता-पिता और परिजनों का इसमें अहम योगदान रहा है। घर के सभी लोगों ने मेरी शिक्षा के लिए कुर्बानियां दी। उन्होनें मेरे लिए सपने देखे। उन्होंने कलम और किताब की अहमियत समझकर मुझे इलाहाबाद यूनिवर्सिटी पढ़ने के लिए भेजा। हम उसी परिवार से आने वाले लोग हैं जिनके जूते फटे हुआ करते थे। जिनके घर में पेंट नहीं होता था। क्योंकि उनके परिवार का सदस्य बाहर पढ़ने गया होता था।"

"इलाहाबाद विश्वविद्यालय की फीस 300 रुपये हुआ करती थी। मेहनत से जोड़कर पढ़ाई की। इसका फल भी मिला। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में टॉप किया। बीए और एमए के दौरान गुरुओं और साथियों से बहुत कुछ सीखने को मिला। इसी सीख ने हमें गढ़ा है", प्रोफेसर आगे बताते हैं, "इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से निकलकर मैं जब दिल्ली गया, तब मुझमें आईएएस बनने का सपना था। प्रतियोगी परीक्षा में मैंने नेंट जेआरएफ की परीक्षा पास कर ली। गांव-देश मे लोगों की यही सोच थी कि इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में टॉप करने वाला मैं आईएएस अधिकारी बनूंगा।"

आर्थिक स्थिति कमजोर होने के कारण ली फेलोशिप

प्रोफेसर बताते हैं, 'मैं दिल्ली आईएएस बनने के सपने से आया था। आर्थिक स्थिति मजबूत नहीं थी। घर वालों का कहना था कि पढ़ाई के लिए लंबे समय तक दिल्ली में रख पाना मुश्किल है। फेलोशिप के लिए दिल्ली में पीएचडी में एडमिशन लिया।'

"हम पीएचडी कर रहे थे। इस दौरान हमने प्रोफेसर बनने के सपने को उड़ान दी और पहली बार दोस्तों के साथ लक्ष्मीबाई कालेज गया था। इस कॉलेज का माहौल ऐसा था कि दो मिनट के इंटरव्यू में ही मना कर दिया गया। हमें कहा गया हम बच्चे हैं। जिसके बाद हम जाकिर हुसैन कॉलेज में इंटरव्यू देने गए। यह तारिख थी 31 अगस्त 2010। मैं अपने दोस्तों के साथ यह निर्णय लेकर गया था कि इंटरव्यू खराब नहीं होने देंगे। इस इंटरव्यू में दर्जनों लोगों में मुझे चुना गया। मेरी उम्र महज 21 साल थी", उन्होंने कहा.

प्रोफेसर ने नौकरी से निकाले जाने को लेकर कहा है कि "मुझे शो कॉज नोटिस जारी किया गया। क्योंकि में यूनिवर्सिटी के बाहर प्रधानमंत्री के खिलाफ बोलता हूँ। लेकिन कोई भी नियम नहीं कहता कि किसी की आलोचना करना बुरा है। मैं जानता था मेरे साथ यह होगा। लोग मेरी नौकरी छीन सकते हैं। लेकिन मैं लोगों की नजरों में हमेशा प्रोफेसर ही रहूंगा।"

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