OBC आरक्षण पर सरकार का छल? हाईकोर्ट में सुनवाई टाली, एसोसिएशन ने कहा एमपी में 'संवैधानिक' संकट!

सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट ने 27% ओबीसी आरक्षण पर कोई स्पष्ट रोक नहीं लगाई है। छत्तीसगढ़ में भी इसी तरह का मामला है, लेकिन वहाँ सरकार सुप्रीम कोर्ट के निर्देशानुसार नियुक्तियां "अंतिम निर्णय के अधीन" रखकर दे रही है। मध्य प्रदेश सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में 87%-13% फॉर्मूले को लेकर कोई स्पष्ट स्थिति नहीं रखी है।
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भोपाल। मध्य प्रदेश में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) आरक्षण को लेकर चल रही कानूनी लड़ाई और प्रशासनिक रवैये ने एक बार फिर सवालों के घेरे में सरकार की मंशा को खड़ा कर दिया है। गुरुवार, 17 अप्रैल को जबलपुर हाईकोर्ट में ओबीसी आरक्षण से जुड़े 64 मामलों की सुनवाई सूचीबद्ध थी, लेकिन राज्य सरकार के महाधिवक्ता कार्यालय ने सुप्रीम कोर्ट में 21 अप्रैल को प्रस्तावित सुनवाई का हवाला देकर सभी मामलों में अगली तारीख बढ़वा दी।

क्या है मामला?

हाईकोर्ट की बेंच के समक्ष 64 याचिकाएं सीरियल नंबर 23 से 23.63 के तहत अंतिम सुनवाई के लिए सूचीबद्ध थीं। एडिशनल एडवोकेट जनरल हरप्रीत रूपराह ने कोर्ट को बताया कि सुप्रीम कोर्ट में 21 अप्रैल को ओबीसी आरक्षण के मामले की सुनवाई निर्धारित है, इसलिए हाईकोर्ट में फिलहाल इन मामलों पर सुनवाई न की जाए। कोर्ट ने अगली तारीख 16 मई निर्धारित कर दी।

वरिष्ठ अधिवक्ता विनायक प्रसाद शाह ने कोर्ट में तर्क दिया कि जिन मामलों में आरक्षण कानून की वैधता को चुनौती नहीं दी गई है, उन्हें खारिज कर देना चाहिए, जबकि जिन याचिकाओं की प्रकृति सारहीन हो चुकी है, उन्हें भी निरस्त किया जाना चाहिए।

सरकार की मंशा पर सवाल

ओबीसी एडवोकेट्स वेलफेयर एसोसिएशन ने इस घटनाक्रम को "संवैधानिक संकट" बताते हुए मध्य प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगाने की मांग की है। संगठन का आरोप है कि राज्य सरकार संविधान की अनदेखी करते हुए विधायिका द्वारा पारित कानूनों की जगह महाधिवक्ता कार्यालय के विचारों के आधार पर नियुक्तियां और कार्रवाइयाँ कर रही है।

ओबीसी एडवोकेट्स वेलफेयर एसोसिएशन का आरोप है कि सुप्रीम कोर्ट में सरकार ने "शिवम् गौतम बनाम मध्य प्रदेश शासन" केस में स्टे हटाने का आवेदन तो लगाया, लेकिन 27% आरक्षण की स्पष्ट मांग नहीं की। 87%-13% फार्मूले का कोई उल्लेख नहीं किया गया, जिससे यह स्पष्ट होता है कि सरकार ओबीसी आरक्षण लागू करने की इच्छुक नहीं है। आरक्षण मामलों में विशेषज्ञ अधिवक्ताओं से सलाह लेने के बजाय विधि छात्रों और गैर-प्रैक्टिशनर अधिवक्ताओं से राय ली जा रही है। साथ ही महाधिवक्ता कार्यालय सोशल मीडिया पर ओबीसी के प्रति प्रतिबद्धता का प्रचार कर रहा है, लेकिन अदालत या मीडिया के सामने ठोस स्थिति स्पष्ट नहीं की जाती।

विशेष अधिवक्ताओं की अनदेखी

बता दें कि राज्यपाल द्वारा 14 सितंबर 2021 को वरिष्ठ अधिवक्ता रामेश्वर सिंह ठाकुर और विनायक प्रसाद शाह को आरक्षण मामलों के विशेष अधिवक्ता के रूप में नियुक्त किया गया था। इनकी सलाह पर अक्टूबर 2021 में रुकी हुई भर्तियां शुरू हुई थीं। परंतु, वर्तमान महाधिवक्ता प्रशांत सिंह द्वारा इन अधिवक्ताओं से कोई सलाह नहीं ली जा रही। अब जब मामला उलझा है, तब वे विधि छात्रों और अन्य गैर-विशेषज्ञों के साथ बैठकें कर रहे हैं।

क्या है 87%-13% का विवाद?

मध्य प्रदेश सरकार ने ओबीसी वर्ग को 27% आरक्षण देने के लिए 87% सामान्य वर्ग और 13% आरक्षित वर्ग के आधार पर चयन प्रक्रिया शुरू की थी, जो न्यायिक और संवैधानिक रूप से विवादित हो गया। इस नियम के चलते हजारों उम्मीदवारों की नियुक्तियां रोक दी गईं।

सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट ने 27% ओबीसी आरक्षण पर कोई स्पष्ट रोक नहीं लगाई है। छत्तीसगढ़ में भी इसी तरह का मामला है, लेकिन वहाँ सरकार सुप्रीम कोर्ट के निर्देशानुसार नियुक्तियां "अंतिम निर्णय के अधीन" रखकर दे रही है। मध्य प्रदेश सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में 87%-13% फॉर्मूले को लेकर कोई स्पष्ट स्थिति नहीं रखी है।

द मूकनायक से बातचीत करते हुए आरक्षण मामलों के विशेषज्ञ अधिवक्ता रामेश्वर ठाकुर ने कहा कि, "यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि मध्य प्रदेश सरकार ओबीसी वर्ग के 27% आरक्षण को लेकर न तो सुप्रीम कोर्ट में गंभीर पैरवी कर रही है और न ही हाईकोर्ट में लंबित मामलों की सुनवाई सुनिश्चित करवा रही है। सरकार यदि वास्तव में प्रतिबद्ध होती तो छत्तीसगढ़ की तरह सभी नियुक्तियों को अंतिम निर्णय के अधीन रखते हुए प्रक्रिया आगे बढ़ा सकती थी, लेकिन यहां सिर्फ दिखावे की औपचारिकताएं निभाई जा रही हैं।"

क्या कहती है जनता और विशेषज्ञ?

प्रदेश में यह धारणा बन रही है कि सरकार ओबीसी वर्ग के अधिकारों के प्रति केवल दिखावटी समर्थन कर रही है। असल में सरकार न तो सुप्रीम कोर्ट में मजबूती से पक्ष रख रही है और न ही उच्च न्यायालय में पारदर्शी तरीके से मामलों का निपटारा चाहती है।

ओबीसी समाज के लोग और संगठन इस स्थिति को संविधान और सामाजिक न्याय के विरुद्ध मानते हैं। उनका कहना है कि अगर सरकार सच में आरक्षण लागू करना चाहती है, तो उसे छत्तीसगढ़ की तरह सुप्रीम कोर्ट में स्पष्ट रुख अपनाना चाहिए।

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