2019 के लोकसभा चुनाव में सिकंदराबाद सीट पर ओवैसी और TRS में क्या डीलिंग हुई थी?

2019 के लोकसभा चुनाव में सिकंदराबाद सीट पर ओवैसी और TRS में क्या डीलिंग हुई थी?
2019 के लोकसभा चुनाव में सिकंदराबाद सीट पर ओवैसी और TRS में क्या डीलिंग हुई थी?

लेखक: तारिक़ अनवर चम्पारणी

हैदराबाद लोकसभा क्षेत्र के बगल में सिकन्दराबाद लोकसभा क्षेत्र है। 1952 के प्रथम लोकसभा चुनाव में सिकंदराबाद भी हैदराबद सिटी लोकसभा क्षेत्र का हिस्सा हुआ करता था और कांग्रेस की टिकट पर अहमद मोहिउद्दीन पहले सांसद चुने गए थे।

1957 के लोकसभा चुनाव में हैदराबाद सिटी लोकसभा क्षेत्र से काटकर सिकंदराबाद लोकसभा क्षेत्र का गठन हुआ और कांग्रेस की टिकट पर अहमद मोहिउद्दीन सांसद बने। फिर 1962 में भी यहां से कांग्रेस के अहमद मोहिउद्दीन सांसद बनें। 1967 में कांग्रेस के बाकर अली मिर्ज़ा सांसद बनें। 1971 में तेलंगाना प्रजा समिति के टिकट पर एमएम हाशिम सांसद चुने गये। बाद में एमएम हाशिम कांग्रेस में चले गये और 1977 में कांग्रेस की टिकट पर सांसद चुने गये। यानी 1957 से लेकर 1977 तक लगातार पांच बार सिकंदराबाद सीट से मुस्लिम सांसद चुने गये थे।

इसी तरह 1957 से लेकर 1977 तक हैदराबाद लोकसभा क्षेत्र से एक भी मुस्लिम सांसद नहीं चुने गये। क्योंकि उस समय के परिसीमन के अनुसार, हैदराबाद की तुलना में सिकंदराबाद लोकसभा क्षेत्र में मुस्लिम मतदाताओं की आबादी अधिक थी। 1980 के लोकसभा चुनाव में हैदराबाद और सिकंदराबाद दोनों सीट पर मुसलमान चुनाव नहीं जीत सके। बल्कि दूसरे स्थान पर भी मुस्लिम उम्मीदवार नहीं थे। लेकिन 1973 में जो परिसीमन आयोग का गठन हुआ उसमें मुस्लिम बहुल क्षेत्रों को सिकंदराबाद क्षेत्र से काटकर हैदराबाद लोकसभा क्षेत्र में जोड़ दिया गया। 1977 के लोकसभा चुनाव में हैदराबाद लोकसभा सीट पर निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में सुल्तान सलाहुद्दीन ओवैसी दूसरे स्थान पर रहे थे। 1984 के चुनाव में सलाहुद्दीन ओवैसी निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में पहली बार 3481 मतों से चुनाव जीतने में सफल हुए और 1984 से अभी तक हैदराबाद लोकसभा सीट ओवैसी परिवार के पास है। 

लेकिन हम यहां पर चर्चा सिकंदराबाद सीट की कर रहे है। सिकंदराबाद सीट पर AIMIM पहली बार 1989 में चुनाव लड़ी और उसके उम्मीदवार मोहम्मद नजीरुद्दीन को 76729 मत प्राप्त हुए। 1991 में AIMIM इस सीट पर चुनाव नहीं लड़ी थी। 1996 में अजीमुद्दीन आज़मी चुनाव लड़े और मात्र 19025 मत प्राप्त हुआ था। 1998 और 1999 के लोकसभा चुनाव में AIMIM उम्मीदवार नहीं उतारी थी। 2004 के चुनाव में AIMIM की हुमेरा अज़ीज़ को 38394 वोट हासिल हुआ।

1989, 1996 और 2004 के लोकसभा चुनाव में AIMIM चुनाव लड़ी है तब काँग्रेस सिकंदराबाद जीती है। 1991, 1998 और 1999 के चुनाव में मजलिस चुनाव नहीं लड़ी है तब भाजपा जीती है। 2014 लोकसभा का चुनाव एकमात्र ऐसा चुनाव है जिसमें मजलिस लड़ी है और भाजपा जीती है। 2014 के लोकसभा चुनाव को भारत की राजनीति में राजनीतिक पंडित बिल्कुल भिन्न तरह से डील करते है। फिर यह हाइपोथिसिस भी ग़लत साबित हो जाती है कि AIMIM के कारण ध्रुवीकरण हुआ और भाजपा जीत गयी।

2009 में इस सीट पर AIMIM चुनाव नहीं लड़ी थी। 2014 के लोकसभा चुनाव में AIMIM ने एक हिन्दू उम्मीदवार नारला मोहन राव को उम्मीदवार  बनाया गया मगर वह भी 145120 वोट लाकर तीसरें स्थान पर रहे थे और भाजपा के बंडारू दत्तात्रेय 254735 वोटों से चुनाव जीतने में सफल रहा। चूंकि AIMIM इस सीट पर चार बार कोशिश कर चुकी थी बल्कि एक हिन्दू उम्मीदवार उतारकर भी देख चुकी थी मगर कामयाबी नहीं मिली। इसलिए 2019 में ओवैसी ने TRS से समझौता किया और मजलिस का उम्मीदवार नहीं उतारा। इसका एक फ़ायदा यह हुआ कि भाजपा के जीत की मार्जिन 254735 से घटकर 62114 पर पहुंच गयी। अगर कांग्रेस 173229 वोट नहीं काटती तो यह सीट भाजपा हार जाती। 

लेकिन सवाल यह है कि इस सीट पर ओवैसी ने उम्मीदवार क्यों हटा लिया? इसके पीछें क्या डीलिंग हुई थी? TRS हैदराबाद में ओवैसी के विरुद्ध उम्मीदवार उतारी थी। इससे यह साबित होता है कि कोई चुनावी गठबंधन नहीं था। मगर सिकंदराबाद में उम्मीदवार इसलिए हटा लिया क्योंकि ओवैसी इस सीट पर कामयाब नहीं हो रहे थे और इसके बदले में TRS ने मजलिस को विधान परिषद का सीट दिया था। TRS ने समर्थन देकर AIMIM के रियाजुल हसन आफंदी और हैदराबाद लोकल ऑथोरिटी से चुनकर AIMIM के अमीनुल हसन जाफ़री को विधान परिषद(MLC) में भेज दिया। एक सीट लगातार हारने से बेहतर है कि उसकी डीलिंग करके कुछ हासिल कर लिया जाये। इससे पहले पार्टी के पास विधान परिषद में केवल एक सदस्य थे मगर अब दो सदस्य हैं। विधान परिषद में सरकार को घेरने के लिए पार्टी की रणनीति थी। यह ओवैसी की एक दूरंदेशी वाली राजनीति थी। भारत में मुसलमानों को इस तरह की राजनीति सीखनी चाहिये।

सिकंदराबाद सीट पर जब-जब AIMIM चुनाव लड़ी है तब-तब कांग्रेस भी उस सीट से चुनाव लड़ी है। हैदराबद सीट पर कांग्रेस हमेशा ओवैसी परिवार के विरुद्ध उम्मीदवार उतारती रही है। फिर ओवैसी पर कांग्रेस के साथ गठबंधन का आरोप क्यों लगता है? गठबंधन तो तब समझा जाता है जब समझौता करके चुनाव लड़ा जाये या चुनाव जीतने के बाद समर्थन देकर कैबिनेट का हिस्सा बना जाये। मगर AIMIM ने कभी ऐसा नहीं किया। हां, चुनाव जीतने के बाद जरूरत पड़ने पर कांग्रेस को बाहरी समर्थन जरूर दिया। ऐसा तो दूसरी पार्टी भी करती रही है।

1977 में जनसंघ के समर्थन से जनता पार्टी की सरकार बनी थी। 1989 में भारतीय जनता पार्टी के समर्थन से वीपी सिंह प्रधानमंत्री और मुलायम सिंह मुख्यमंत्री बने थे। ओवैसी पर यह राजनीतिक आरोप तब सही साबित होता जब कांग्रेस की समर्थन से मंत्री, मुख्यमंत्री इत्यादि बने होते। इसलिए कम से कम कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के समर्थकों को गठबंधन वाले मुद्दें पर ओवैसी की आलोचना करने का नैतिक हक़ नहीं है।

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