राम मंदिर निर्णय में केंद्र का था समर्थन: पूर्व जज संजीव कुमार ने बताया बुद्धिस्ट CJI होने के बावजूद BT Act पर बौद्ध भावनाओं के आधार पर Supreme Court में फैसला क्यों मुश्किल

कुमार ने बौद्ध गया मंदिर प्रबंधन कमेटी में हिन्दू वर्चस्व की संरचना के पीछे के ऐतिहासिक तर्क पर सवाल उठाया, जो बिहार विधानसभा द्वारा 1949 में पारित किया गया जब डॉ. बी.आर. अंबेडकर केंद्रीय मंत्री थे।
CJI Gavai on Judicial Misconduct: ‘Corruption Erodes Public Faith in Judiciary’
कुमार ने कहा कि बौद्ध मुख्य न्यायाधीश का होना यह गारंटी नहीं देता कि फैसला बौद्धों के पक्ष में होगा, क्योंकि न्यायिक निर्णय संवैधानिक सिद्धांतों पर आधारित होते हैं, न कि धार्मिक संबद्धताओं पर। Pic- The Mooknayak
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नई दिल्ली- पूर्व जज और इंडियन दलित फोरम के संस्थापक संजीव कुमार ने बोधगया मंदिर एक्ट 1949 को चुनौती देने वाली याचिका पर सुप्रीम कोर्ट के आगामी फैसले को लेकर सतर्क रुख अपनाया है। उन्होंने कहा कि राम मंदिर का फैसला जनभावनाओं और केंद्र सरकार के समर्थन के आधार पर हुआ, लेकिन बौद्ध समुदाय की भावनाओं के आधार पर इस एक्ट को रद्द करने का फैसला संदिग्ध है, क्योंकि केंद्र या बिहार सरकार का ऐसा कोई समर्थन नहीं दिखता।

कुमार ने उल्लेख किया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहले भारत को बुद्ध की धरती कहते थे, लेकिन अब वह राम मंदिर और भगवान कृष्ण की मूर्तियों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भेंट करते हैं, जो उनकी प्राथमिकताओं में बदलाव दर्शाता है। उन्होंने स्पष्ट किया कि बौद्ध मुख्य न्यायाधीश का होना यह गारंटी नहीं देता कि फैसला बौद्धों के पक्ष में होगा, क्योंकि न्यायिक निर्णय संवैधानिक सिद्धांतों पर आधारित होते हैं, न कि धार्मिक संबद्धताओं पर। कुमार ने कहा कि 1949 में बिहार विधानसभा ने सोच-समझकर यह कानून बनाया होगा, जिसके पीछे कोई ठोस तर्क रहा होगा, और याचिका का परिणाम अभी अनिश्चित है।

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सुनवाई में देरी कोई साजिश नहीं, न्यायिक व्यवस्था पर वर्क ओवरलोड

एक न्यूज़ चैनल को दिए साक्षात्कार में पूर्व जज संजीव कुमार ने बोधगया मंदिर एक्ट 1949 को लेकर सुप्रीम कोर्ट में 30 अक्टूबर को होने वाली अंतिम सुनवाई पर बौद्ध समुदाय की उम्मीदों के प्रति सतर्क संशय व्यक्त किया। गया में महाबोधि महाविहार मुक्ति आन्दोलन के तहत पिछले छह महीनों से बौद्ध भिक्षु और भिक्षुणियां हिंदू-प्रधान नियंत्रण से मंदिर की मुक्ति की मांग को लेकर भूख हड़ताल पर हैं।

कुमार ने जोर देकर कहा कि सुप्रीम कोर्ट में 13 साल से चल रहे इस मामले में देरी कोई साजिश नहीं, बल्कि न्यायिक व्यवस्था पर अत्यधिक बोझ का परिणाम है। उन्होंने बताया कि सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई की तारीखें रजिस्ट्री के कंप्यूटरीकृत सिस्टम द्वारा निर्धारित की जाती हैं, और तारीखों को प्रभावित करने की कोशिश को अनैतिक माना जाता है। अगर मामले दैनिक सूची में नीचे हैं, तो सुनवाई नहीं हो पाती, जैसा कि 29 जुलाई के स्थगन में देखा गया, क्योंकि मामलों की संख्या न्यायिक क्षमता से अधिक है।

पूर्व जज के अनुभव के आधार पर कुमार ने जजों की भारी कमी की ओर ध्यान दिलाया, उन्होंने बताया कि सुप्रीम कोर्ट में वर्तमान में मुख्य न्यायाधीश सहित केवल 34 जज हैं, जो 150 करोड़ की आबादी को सर्व करते हैं। जज दो, तीन या पांच की बेंच में बैठते हैं, जिससे केवल 17 कोर्ट ही प्रभावी रहते हैं जो समय पर सुनवाई को चुनौतीपूर्ण बनाता है। उन्होंने त्वरित सुनवाई और जजों की संख्या बढ़ाने के लिए न्यायिक सुधारों की जरूरत पर जोर दिया और आगे बताया कि संसद और राज्य विधानसभाओं से नए कानून और संशोधन कोर्ट पर बोझ बढ़ाते हैं। देरी को साजिश मानने के बजाय कुमार ने इसे सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में सामान्य बताते हुए रणनीतिक दृष्टिकोण की सलाह दी।

पूर्व जज और इंडियन दलित फोरम के संस्थापक संजीव कुमार
पूर्व जज और इंडियन दलित फोरम के संस्थापक संजीव कुमार

बौद्ध समुदाय की मांग जायज लेकिन बिहार असेंबली द्वारा पारित एक्ट को रद्द करवाना मुश्किल

1949 के एक्ट को चुनौती देने वाली याचिका पर कुमार ने बौद्ध समुदाय की शिकायतों को जायज माना। उन्होंने कहा कि महाबोधि जैसे बौद्ध मंदिर का प्रबंधन केवल बौद्धों के पास होना चाहिए। एक्ट में आठ सदस्यीय समिति में चार हिंदू और चार बौद्ध, और हिंदू जिला मजिस्ट्रेट (डीएम) या सरकार द्वारा नियुक्त हिंदू अध्यक्ष के साथ हिंदुओं को बहुमत (नौ में से पांच) मिलता है। कुमार ने इस संरचना के पीछे के ऐतिहासिक तर्क पर सवाल उठाया, जो बिहार विधानसभा द्वारा उस समय पारित किया गया जब डॉ. बी.आर. अंबेडकर केंद्रीय मंत्री थे।

उन्होंने 1949 के विधायी विमर्शों का अध्ययन करने की आवश्यकता बताई कि हिंदू नियंत्रण को क्यों प्राथमिकता दी गई। उन्होंने एक्ट की धारा 11 (1) का उल्लेख किया, जो हिंदुओं और बौद्धों को पूजा और पिंडदान के लिए मंदिर और इसकी भूमि तक पहुंच की अनुमति देता है, केवल पशु बलि, शराब और जूतों के साथ प्रवेश पर रोक लगाता है। कुमार ने पिंडदान की अनुमति को बुद्ध की शिक्षाओं के खिलाफ मानते हुए इसके पीछे के उद्देश्यों की जांच की जरूरत बताई।

कुमार ने बौद्धों की मांग का समर्थन करते हुए कहा कि हिंदुओं का मंदिर की समिति में वर्चस्व अनुचित है, भले ही पूजा के लिए प्रवेश की अनुमति हो। बौद्ध मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई को लेकर बौद्ध समुदाय की उम्मीदों पर कुमार ने साफ़ कहा कि न्यायिक निर्णय संवैधानिक सिद्धांतों पर आधारित होने चाहिए, न कि व्यक्तिगत या धार्मिक संबद्धताओं पर, और एक्ट की वैधता की धारणा बनी रहती है। याचिकाकर्ताओं को संवैधानिक उल्लंघन साबित करना होगा, जो चुनौतीपूर्ण है। कुमार ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा जन भावनाओं के अनुरूप राम मंदिर मामले के फैसले का उल्लेख किया क्योंकि वहां केंद्र सरकार का समर्थन था जिससे परिणाम हिन्दू पक्ष में आया लेकिन केंद्र या बिहार सरकार का बौद्धों के पक्ष में ऐसा कोई समर्थन नहीं दिखता, भले ही प्रधानमंत्री मोदी विदेश में यह कहते रहे हो कि वे 'बुद्ध की भूमि' से आये हैं। उन्होंने मोदी के हालिया हिंदू प्रतीकों जैसे कृष्ण और राम की मूर्तियों को विदेशों में भेंट करने की ओर ध्यान दिलाया, जो बौद्धों के पक्ष में राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी दर्शाता है।

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कुमार ने याचिका परिणाम को लेकर विचार पूछे जाने पर भविष्यवाणी से परहेज किया। कुमार ने कहा कि वे इस मामले में एडवोकेट नहीं हैं और ना ये जानते हैं कि पेटीशन के ग्राउंड्स क्या हैं लेकिन सार्वजनिक डोमेन पर उपलब्ध जानकारी के आधार पर उन्हें एक्ट के रद्द होने का भरोसा नहीं है, क्योंकि इसे बिहार विधानसभा में 1949 में सोच-समझकर ही पारित किया गया होगा। कुमार ने कहा, " अगर विधानसभा या पार्लियामेंट ने कोई भी एक्ट कोई भी कानून बनाया तो उसको लेकर presumption या धारणा होती है। लॉ में हम बोलते हैं कि वह एक्ट लीगली वैलिड है, संविधान अनुसार है। ये प्रीजमशन कही जाती है। अब जो उस एक्ट को चैलेंज करने के लिए कोर्ट में गए हैं तो उनकी ड्यूटी बनती है, वो दिखाएंगे संविधान में किस प्रावधान के तहत ये unconstitutional है। तो ये इन्हें बुद्धिस्ट लोगों को प्रूव करना पड़ेगा।

बोधगया मंदिर एक्ट याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में अंतिम सुनवाई 30 अक्टूबर को

1949 के एक्ट को निरस्त करने का महाबोधि महाविहार मुक्ति आंदोलन , मंदिर का पूर्ण प्रशासनिक नियंत्रण बौद्ध समुदाय को सौंपने की मांग करता है। इस अभियान की जड़ें 19वीं सदी के अंत में मिलती हैं, जब भंते अनागरिक धम्मपाल ने मंदिर पर बौद्ध नियंत्रण बहाल करने के प्रयास शुरू किए थे, जो 16वीं सदी से गैर-बौद्ध प्रबंधन के अधीन था।

2012 में, बौद्ध भिक्षुओं भंते आर्य नागार्जुन शुराई ससाई और गजेंद्र महानंद पंतावणे ने सुप्रीम कोर्ट में एक रिट याचिका (सिविल नंबर 0380 ऑफ 2012) दायर की, जिसमें एक्ट के प्रावधानों को चुनौती दी गई और मंदिर का विशेष रूप से बौद्ध प्रबंधन मांगा गया। इसकी महत्ता के बावजूद, याचिका एक दशक से अधिक समय तक अनसुनी रही, जिसके कारण बौद्ध भिक्षुओं ने इस मुद्दे की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए अनशन शुरू किया।

12 फरवरी, 2025 को अखिल भारतीय बौद्ध फोरम ने अनिश्चितकालीन रिले भूख हड़ताल शुरू की जो अब 185 दिनों से अधिक समय से चल रही है, जिसमें विरोध कर रहे भिक्षुओं की सेहत की गंभीरता को उजागर किया गया। बौद्ध इंटरनेशनल फोरम फॉर पीस के अध्यक्ष एडवोकेट आनंद एस. जोंधले ने एक हस्तक्षेप याचिका दायर की, जिसमें स्थिति की तात्कालिकता पर जोर देते हुए कहा कि भिक्षुओं का स्वास्थ्य बिगड़ रहा है और आगे की देरी उनके जीवन को खतरे में डाल सकती है।

द मूकनायक से बात करते हुए एडवोकेट जोंधले ने कहा कि 16 मई को हुई सुनवाई के दौरान, जस्टिस दीपांकर दत्ता और प्रसन्ना बी. वराले ने सरकार की निष्क्रियता पर नाराजगी जताई, 2012 की याचिका की सुनवाई में लंबी देरी के लिए सरकारी वकीलों की आलोचना की। कोर्ट ने 29 जुलाई को अंतिम सुनवाई तय की, लेकिन उस तारीख पर मामला सूचीबद्ध नहीं हुआ। इसके बाद 5 अगस्त को सुनवाई हुई। जोंधले ने अदालत को बताया कि सैकड़ों भिक्षु इस मांग के लिए भूख हड़ताल पर हैं, जो 13 साल पहले दायर याचिका का विषय है। उन्होंने निश्चित तारीख की मांग की, जिस पर जस्टिस सूर्यकांत ने 30 अक्टूबर को सुनवाई तय की और आश्वासन दिया कि यह केवल अंतिम सुनवाई होगी।

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