MP के आयुर्वेदिक वैद्यों ने खोजीं 50 से अधिक स्थानीय वनस्पतियां, डाइबिटीज के इलाज में हो सकती हैं कारगर!

शोधकर्ता मानते हैं कि यह काम लंबी प्रक्रिया है। पौधों से दवा बनाने के लिए पहले उनके रासायनिक घटकों की पहचान करनी होगी।
आयुर्वेदिक वैद्यों ने खोजीं 50 से अधिक स्थानीय वनस्पतियां
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भोपाल। मधुमेह यानी डायबिटीज़ आज दुनिया के सबसे गंभीर स्वास्थ्य संकटों में गिना जाता है। भारत को तो "डायबिटीज़ कैपिटल" तक कहा जाने लगा है। हर साल लाखों लोग इस बीमारी के कारण जटिलताओं से जूझते हैं और कई की जान भी चली जाती है। अब इस बीमारी के इलाज को लेकर भोपाल से एक नई उम्मीद की किरण जागी है।

पंडित खुशीलाल शर्मा शासकीय आयुर्वेद महाविद्यालय के वैद्यों ने 50 से अधिक ऐसी स्थानीय वनस्पतियों की पहचान की है, जिनमें मधुमेह को नियंत्रित और संभवतः ठीक करने की क्षमता है। खास बात यह है कि इनमें कई पौधे ऐसे हैं, जिनका उल्लेख आयुर्वेद के प्राचीन ग्रंथों में तक नहीं मिलता। यह खोज न केवल आयुर्वेदिक चिकित्सा के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि यह आधुनिक स्वास्थ्य व्यवस्था में भी बड़ा बदलाव ला सकती है।

स्थानीय पौधों पर बड़ा शोध

महाविद्यालय के दृव्यगुण विभाग की प्राध्यापिका डॉ. अंजली जैन द मूकनायक से बातचीत में बताती हैं कि इन पौधों पर अभी तक वैज्ञानिक स्तर पर बहुत कम काम हुआ था। ग्रामीण इलाकों में इनका परंपरागत उपयोग जरूर होता रहा है, लेकिन वैज्ञानिक प्रमाण नहीं थे। इस शोध से यह अंतर भरने की कोशिश की जा रही है।

उनके अनुसार, खोजी गई पौधों में मिट्टीवती, जारूल और दहीमन प्रमुख हैं। ये पौधे देखने में साधारण लगते हैं और गांव-गली, खेत-खलिहान या यहां तक कि शहर के उद्यानों और सड़क किनारे भी मिल जाते हैं। लेकिन इनमें छिपे औषधीय गुण अब प्रयोगशालाओं में जांच के दौर से गुजर रहे हैं।

जारूल: एक आकर्षक वृक्ष है, जिस पर गर्मियों और बारिश के दिनों में बैंगनी फूलों का गुच्छा खिलता है। लोग इसे आमतौर पर सजावटी पेड़ के रूप में जानते हैं, लेकिन इसमें मौजूद तत्व मधुमेह और सूजन कम करने में मददगार हो सकते हैं।

मिट्टीवती: यह पौधा सूखी और दलदली जमीन पर आसानी से उगता है। आयुर्वेद में इसकी जड़ों का उपयोग त्वचा रोग और बुखार के इलाज में पहले से होता आया है। लेकिन अब शोध में पाया गया है कि यह मधुमेह नियंत्रण में भी उपयोगी साबित हो सकता है। मिट्टीवती मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने में भी सहायक है।

दहीमन: यह छोटा पौधा गांवों में आमतौर पर दूधिया रस के साथ दिखाई देता है। इसकी पत्तियां और तना पारंपरिक चिकित्सा में दस्त, बुखार और त्वचा संक्रमण के इलाज में उपयोग किए जाते हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि इसमें मधुमेह से लड़ने वाले तत्व भी पाए जाते हैं।

आयुर्वेद और विज्ञान का संगम

डॉ. अंजली जैन का कहना है कि यह शोध न सिर्फ नई दवाओं के विकास में मदद करेगा बल्कि विदेशी औषधीय पौधों पर हमारी निर्भरता को भी कम करेगा। अभी तक मधुमेह की कई दवाएं या तो आयातित पौधों से बनती हैं या फिर उनका उत्पादन महंगा पड़ता है। यदि स्थानीय पौधों से प्रभावी औषधि विकसित हो जाए, तो इसकी लागत काफी कम हो जाएगी।

उन्होंने बताया कि फिलहाल पौधों के अर्क का प्रयोगशाला स्तर पर परीक्षण किया जा रहा है। इसके बाद क्लिनिकल ट्रायल यानी मानव शरीर पर परीक्षण का दौर शुरू होगा। यह प्रक्रिया समय लेगी, लेकिन शुरुआती परिणाम उत्साहजनक हैं।

आयुर्वेदिक दवाओं की लागत में कमी

महाविद्यालय के डीन डॉ. उमेश शुक्ला ने कहा कि यह शोध केवल चिकित्सा विज्ञान में नई दिशा ही नहीं खोलेगा, बल्कि आम मरीजों को राहत भी देगा। मधुमेह जैसी बीमारी का इलाज अक्सर जीवनभर चलाना पड़ता है, जिससे मरीज पर भारी आर्थिक बोझ पड़ता है।

"अगर हम अपने आसपास मिलने वाले पौधों से असरदार और सस्ती दवाएं बना सकें, तो इसका लाभ केवल मरीजों को ही नहीं बल्कि पूरे समाज को मिलेगा। आयुर्वेद का यही उद्देश्य है, स्थानीय संसाधनों से लोगों को स्वास्थ्य उपलब्ध कराना।"

मधुमेह : एक बढ़ती चुनौती

भारत में हर 12वां वयस्क मधुमेह से पीड़ित है। भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (ICMR) की एक रिपोर्ट बताती है कि शहरी इलाकों में हर पांच में से एक व्यक्ति मधुमेह या प्री-डायबिटीज़ का शिकार है। ग्रामीण इलाकों में भी यह तेजी से बढ़ रहा है।

मधुमेह सिर्फ शुगर की बीमारी नहीं है। यह दिल की बीमारियों, किडनी फेल होने, आंखों की रोशनी घटने और नसों की समस्या जैसी कई गंभीर दिक्कतों को जन्म देता है। ऐसे में इसका सस्ता और प्रभावी इलाज देश की स्वास्थ्य व्यवस्था के लिए भी वरदान साबित हो सकता है।

ग्रामीण समाज में बड़ा लाभ

इस खोज का सबसे बड़ा फायदा ग्रामीण समाज को मिल सकता है। गांवों में लोग अक्सर महंगी दवाओं और लंबे इलाज का खर्च नहीं उठा पाते। वहीं, अगर यही औषधीय पौधे उनके आसपास मिलें और उनसे बनी किफायती दवाएं उपलब्ध हो जाएं, तो यह उनके जीवन की गुणवत्ता को बेहतर बनाएगा।

इसके अलावा, इन पौधों की खेती से ग्रामीणों को अतिरिक्त आय का स्रोत भी मिल सकता है। औषधीय पौधों का उत्पादन बढ़ने पर किसान और वनवासियों को रोजगार मिलेगा और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलेगी।

वैश्विक स्तर पर पहचान

आयुर्वेद लंबे समय से पश्चिमी दुनिया का ध्यान आकर्षित करता रहा है। योग और प्राकृतिक चिकित्सा के बाद अब आयुर्वेदिक दवाओं की मांग विदेशों में भी तेजी से बढ़ रही है। अगर भोपाल के शोध से तैयार दवाएं सफल होती हैं, तो यह न सिर्फ भारतीय मरीजों बल्कि दुनिया भर के लोगों के लिए लाभकारी होंगी। साथ ही, भारत को वैश्विक औषधीय बाजार में मजबूत पहचान मिलेगी।

शोधकर्ता मानते हैं कि यह काम लंबी प्रक्रिया है। पौधों से दवा बनाने के लिए पहले उनके रासायनिक घटकों की पहचान करनी होगी। फिर उनकी सुरक्षित मात्रा और असरकारिता की पुष्टि करनी होगी। इसके बाद ही औद्योगिक स्तर पर उत्पादन संभव होगा।

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