TM Exclusive: MP में आठ साल से लंबित प्रमोशन पर सरकार ने दिया समाधान, फिर विधि विशेषज्ञों से तैयार कराए गए गोरकेला ड्राफ्ट को क्यों किया गया दरकिनार?

आखिर गोरकेला ड्राफ्ट जैसे गंभीर और सुस्पष्ट दस्तावेज को लागू न करने के पीछे सरकार की मंशा क्या थी?
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आरक्षणGraphic- The Mooknayak
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भोपाल। मध्य प्रदेश सरकार ने राज्य के करीब चार लाख शासकीय अफसरों और कर्मचारियों की आठ वर्षों से अटकी पदोन्नति की मांग को लेकर बड़ी घोषणा की है। मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव की अध्यक्षता में हुई उच्चस्तरीय बैठक में एक फार्मूले को अंतिम रूप दे दिया गया है, जो जल्द ही कैबिनेट की मंजूरी के बाद लागू होगा।

यह अधिनियम लंबित प्रमोशन विवाद को हल करने के उद्देश्य से तैयार किया गया है और इसमें पदोन्नति में 'वर्टिकल रिजर्वेशन' को आधार बनाया गया है। इसके तहत कर्मचारी जिस वर्ग में नियुक्त हुए हैं, उन्हें उसी वर्ग के पदों पर पदोन्नति दी जाएगी। यदि किसी वर्ग में योग्य अभ्यर्थी कम होंगे, तो पद रिक्त रह जाएंगे। सरकार के अनुसार यह फार्मूला सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के अधीन होगा, और उसके अनुसार अंतिम रूप से अमल में लाया जाएगा।

लेकिन इस पूरी प्रक्रिया के बीच एक अहम सवाल उठ खड़ा हुआ है—कि सरकार ने आखिर उस गोरकेला ड्राफ्ट को अमल में क्यों नहीं लाया, जिसे वर्ष 2017 में सरकार द्वारा विशेष रूप से पदोन्नति में आरक्षण को लेकर तैयार किया गया था? यह ड्राफ्ट तब की सरकार द्वारा गठित एक समिति की सिफारिशों पर आधारित था और इसे सुप्रीम कोर्ट के ‘नागरज बनाम भारत सरकार’ फैसले को ध्यान में रखते हुए तैयार किया गया था।

गोरकेला समिति ने पदोन्नति में आरक्षण को संविधान सम्मत और न्यायिक दृष्टि से टिकाऊ बनाने की दिशा में एक ठोस प्रारूप तैयार किया था, जिसमें तीन शर्तों—प्रतिनिधित्व, प्रशासनिक दक्षता (मेरिट), और सामाजिक पिछड़ापन (बैकवर्डनेस)—को समाहित किया गया था और इसमें सभी वर्ग के अधिकारी कर्मचारियों के अधिकारों का विधि सम्मत ख्याल रखा गया था l

इस ड्राफ्ट का उद्देश्य यह था कि सरकार के किसी भी प्रमोशन निर्णय को कोर्ट में चुनौती न दी जा सके और उसे न्यायिक रूप से टिकाऊ बनाया जा सके। लेकिन दुर्भाग्यवश, यह ड्राफ्ट कभी भी कैबिनेट से पारित नहीं हुआ और न ही इसे आधिकारिक रूप से लागू किया गया। यह केवल कागजों और फाइलों में सिमट कर रह गया।जिसका सेवारत समाज में अच्छा संदेश नहीं गया वरन सरकार की कथनी और करनी में अंतर भी दिखाई दिया l

गौर करने वाली बात यह है कि अब जिस फार्मूले को सरकार ने अपनाया है, उसमें गोरकेला ड्राफ्ट की जटिलताओं से बचते हुए एक सरल और व्यावहारिक रास्ता चुना गया है। यह फार्मूला मुख्य रूप से पदों के वर्गानुसार वितरण पर केंद्रित है, जिसमें आंकड़ों की जटिल गणना या विस्तृत सामाजिक अध्ययन की आवश्यकता नहीं पड़ती। ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार ने कानूनी दांवपेंच से बचते हुए एक सीधा समाधान खोजा है, जिससे लंबे समय से चल रहे प्रमोशन विवाद को टाला जा सके।

लेकिन इस समाधान के साथ ही एक और चिंता जन्म ले रही है—क्या यह फार्मूला स्थायी समाधान है? जब सुप्रीम कोर्ट में यह मामला अब भी विचाराधीन है और हज़ार से अधिक याचिकाएं हाई कोर्ट में लंबित हैं, तो क्या यह फार्मूला न्यायिक समीक्षा की कसौटी पर खरा उतरेगा? क्या गोरकेला ड्राफ्ट को पूरी तरह दरकिनार करना भविष्य में एक नई कानूनी चुनौती को न्योता नहीं देगा?

SC/ST कर्मचारियों में रोष

मध्यप्रदेश के एक वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी, जो अनुसूचित जाति वर्ग से हैं, उन्होंने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि राज्य सरकार के पास गोरकेला ड्राफ्ट जैसा एक ठोस दस्तावेज़ मौजूद होने के बावजूद, उसे अब तक लागू न किया जाना कई सवाल खड़े करता है। उन्होंने कहा कि यह ड्राफ्ट पदोन्नति में आरक्षण को लेकर लंबे समय से चल रही असमंजस की स्थिति को दूर कर सकता था, लेकिन सरकार की उदासीनता और जल्दबाजी से ऐसा नहीं हो सका।

उन्होंने यह भी बताया कि गोरकेला समिति का मसौदा न केवल सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देशों के अनुरूप था, बल्कि यह सामाजिक न्याय को मजबूत करने की दिशा में एक ठोस कदम भी होता। जिसका सुखद संदेश देश के विभिन्न राज्यों को भी जाता l उनका मानना है कि यदि सरकार वास्तव में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के अधिकारों को लेकर प्रतिबद्ध होती, तो इस मसौदे को प्राथमिकता के साथ लागू किया जाता।

यह ऐसे समय लागू किया जा रहा है जबकि 4 दिन बाद प्रदेश में जन्में भारतीय संविधान के निर्माता भारतरत्न डॉ भीम राव अम्बेडकर जी की जयंती मनाने जा रहे हैं,ये संविधान तथा बाबा साहब के सम दृष्टि–सम व्यवहारिक के सिद्धांत के प्रतिकूल नहीं लगता l फिर एक बड़े वर्ग को विश्वास में लिए बगैर एकल निर्णय से व्यवस्थागत दोष को कैसे दूर किया जा सकता है?

गौरतलब है कि कुछ विभागों जैसे पशु चिकित्सा, नगरीय प्रशासन, विधि विभाग और चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों में हाई कोर्ट के आदेशों के आधार पर पहले ही प्रमोशन हो चुके हैं, लेकिन ये प्रमोशन भी सशर्त और कोर्ट की निगरानी में हुए हैं। सरकार का यह कहना कि नया फार्मूला सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अधीन रहेगा, अपने आप में यह दर्शाता है कि समाधान पूरी तरह से स्थायी नहीं है, बल्कि एक अस्थायी और तात्कालिक समाधान है।

ऐसे में यह सवाल और भी प्रासंगिक हो जाता है कि आखिर गोरकेला ड्राफ्ट जैसे गंभीर और सुस्पष्ट दस्तावेज को लागू न करने के पीछे सरकार की मंशा क्या थी? क्या यह केवल प्रशासनिक जटिलताओं से बचने का एक तरीका था या फिर कोई राजनीतिक रणनीति? अगर गोरकेला ड्राफ्ट में कोई खामी थी तो उसका सार्वजनिक विश्लेषण क्यों नहीं हुआ? आज भी राज्य सरकार के अधिकांश विभागों में क्लास वन और क्लास 2 की पोस्टों पर आरक्षण सम्मत पदपूर्ति नहीं हो सकी है यही कारण है कि आज लंबा बैकलॉग दिखाई देता है जिसकी भरणी सुनियोजित तरीके से होनी चाहिए जो लागू किए जाने वाले एकल निर्णय से पूर्ण होना समझ से परे है

द मूकनायक से बातचीत करते हुए कांग्रेस नेता एवं राज्य अनुसूचित जाति आयोग के पूर्व सदस्य प्रदीप अहिरवार ने कहा- मुख्यमंत्री की घोषणा और इस पूरी प्रक्रिया से एक बात तो स्पष्ट हो जाती है कि मध्यप्रदेश में नीति निर्माण और उसका क्रियान्वयन अब भी सामाजिक न्याय, पारदर्शिता और संवैधानिक मूल्यों से कोसों दूर है। गोरकेला ड्राफ्ट एक ऐसा दस्तावेज था, जिसमें पदोन्नति के विवाद को सुलझाने के लिए कानूनी और संवैधानिक आधार मौजूद था। लेकिन आज, जब सरकार एक सरल फार्मूले की ओर बढ़ रही है, तो यह जरूरी हो जाता है कि गोरकेला ड्राफ्ट जैसे प्रयासों का मूल्यांकन किया जाए और उन्हें सिरे से नकारा न जाए।

उन्होंने आगे कहा, "मुख्यमंत्री राजधर्म का पालन करें और सामाजिक न्याय की भावना के अनुरूप 'गोरकेला ड्राफ्ट' को लागू करें, जिसमें समुचित आरक्षण की व्यवस्था की गई है। साथ ही यह स्पष्ट करें कि इस महत्वपूर्ण ड्राफ्ट को दरकिनार क्यों किया गया है?"

ज्ञात हो कि पदोन्नति में आरक्षण की मांग को लेकर सड़क से संसद तक एक बड़ी लड़ाई लड़ने वाली मध्य प्रदेश की आरक्षित वर्ग की सबसे बड़ी संगठन अजाक्स के विचारों को भी समाहित ना करना जल्दबाजी में उद्देश्य की पूर्ति करने जैसा लगता है l

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