दिल्ली हाईकोर्ट ने नाबालिग बेटी के यौन शोषण की देरी से रिपोर्ट करने वाली मां के खिलाफ POCSO केस किया खारिज

कोर्ट ने कहा—यौन अपराधों की रिपोर्टिंग में देरी हमेशा अपराध नहीं होती, कई बार यह ट्रॉमा और सामाजिक दबाव की मानवीय प्रतिक्रिया होती है।
दिल्ली हाई कोर्ट
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नई दिल्ली: दिल्ली हाईकोर्ट ने सोमवार को एक महिला के खिलाफ पॉक्सो (POCSO) एक्ट के तहत चल रही कार्यवाही को खारिज कर दिया। महिला पर आरोप था कि उसने अपनी नाबालिग बेटी के यौन शोषण की जानकारी समय पर पुलिस को नहीं दी। कोर्ट ने कहा कि ऐसे मामलों में देरी को “अपराध की भावना” नहीं, बल्कि “एक जटिल और संवेदनशील स्थिति में मानवीय प्रतिक्रिया” के रूप में देखा जाना चाहिए।

महिला ने सेशन कोर्ट के उस आदेश को हाईकोर्ट में चुनौती दी थी, जिसमें उसके खिलाफ पॉक्सो एक्ट की धारा 21 के तहत आरोप तय किए गए थे। पीड़िता ने अपने पिता और 12 वर्षीय चचेरे भाई पर यौन शोषण के आरोप लगाए थे।

जस्टिस स्वर्णा कंता शर्मा ने अपने फैसले में महिला की पारिवारिक पृष्ठभूमि पर ध्यान देते हुए कहा कि वह खुद भी अपने पति और ससुरालवालों द्वारा घरेलू हिंसा की शिकार रही हैं। नाबालिग बच्ची के बयान से भी यह स्पष्ट होता है कि उसकी मां असहाय थी और वह एक बेहद प्रतिकूल माहौल में जी रही थी। अदालत ने यह भी कहा कि परिवार के अन्य सदस्यों ने बच्ची को मामला आगे न बढ़ाने की सलाह दी, ताकि "परिवार में कलह न हो" और "बहू से रिश्ते खराब न हों।"

जस्टिस शर्मा ने यह भी उल्लेख किया कि महिला ने अपने परिवार के खिलाफ पहले भी कई शिकायतें दर्ज कराई थीं, जिससे यह स्पष्ट होता है कि वह अपने सामाजिक और घरेलू हालात की सीमाओं में रहते हुए हिंसा का विरोध करने की कोशिश कर रही थी।

कोर्ट ने कहा, “यौन शोषण के आरोपों पर शुरू में संदेह करना महिला की ओर से जानबूझकर की गई उपेक्षा नहीं है, बल्कि यह वर्षों की प्रताड़ना, निर्भरता और प्रतिकूल वैवाहिक माहौल में जीने की मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रिया है। यह वह मामला नहीं है जहां पीड़िता ने अपराध को छिपाने या अपराधियों को बचाने की कोशिश की हो।”

न्यायालय ने कहा कि मां का व्यवहार आपराधिक दोष नहीं है, बल्कि उसकी विलंबित कार्रवाई भी साहस और अपने बच्चे को बचाने की प्रवृत्ति को दर्शाती है।

अदालत ने कहा, “उसने अपराध को हमेशा के लिए नहीं छिपाया। जैसे ही उसमें हिम्मत आई, वह खुद बच्ची को लेकर पुलिस स्टेशन गई, अधिकारियों से संपर्क किया, और अपनी बेटी को न्याय दिलाने की प्रक्रिया में पहली गवाह बनी।”

जस्टिस शर्मा ने यह भी कहा कि अदालतों को समझना चाहिए कि किसी महिला के लिए ऐसे माहौल में कितनी असहायता और मानसिक उथल-पुथल होती है। कोर्ट ने कहा, “कानून को समझना होगा कि ट्रॉमा (आघात) एक सीधी रेखा में नहीं चलता—यह चुप्पी, देरी और हिचकिचाहट जैसे रूपों में सामने आता है।”

कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि महिला अपराधियों को बचाने में शामिल नहीं थी। कोर्ट ने कहा, “शारीरिक हिंसा और भावनात्मक अलगाव की शिकार होने के बावजूद, उसी ने महिला सेल से संपर्क किया, दिल्ली महिला आयोग (DCW) की हेल्पलाइन पर कॉल की और अपनी बेटी के साथ पुलिस स्टेशन जाकर एफआईआर दर्ज करवाई। नाबालिग पीड़िता की मेडिकल जांच और कानूनी प्रक्रिया की शुरुआत उसी की पहल पर हुई।”

आरोप खारिज करते हुए न्यायालय ने यह भी टिप्पणी की कि किसी भी व्यक्ति के व्यवहार का मूल्यांकन करते समय उसके सामाजिक-आर्थिक स्तर, शिक्षा, लिंग और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को ध्यान में रखना चाहिए।

भारत में, खासकर जब मामला परिवार के भीतर यौन शोषण का हो, तो ऐसे अपराधों की रिपोर्टिंग पर सामाजिक बदनामी का भारी डर होता है। परिवार अक्सर बेटी के भविष्य, सामाजिक बहिष्कार और ‘इज्जत’ को लेकर चिंतित रहते हैं। मां के लिए अपने पति या रिश्तेदारों के खिलाफ शिकायत करना सामाजिक और भावनात्मक रूप से बहुत तोड़ने वाला हो सकता है।

जस्टिस शर्मा ने कहा, “यह डर काल्पनिक नहीं है, बल्कि वास्तविक है। ऐसी कई महिलाएं हिचकती हैं, देरी करती हैं या निर्णय नहीं ले पातीं। कानून को इस हिचकिचाहट को अपराध नहीं, बल्कि एक मानवीय प्रतिक्रिया के रूप में देखना चाहिए। साहस हमेशा तुरंत नहीं आता—कई बार इसे बनने में समय लगता है। और जब वह साहस दिखाई दे, तो उसे सज़ा नहीं, सम्मान मिलना चाहिए। न्याय तब तक पूर्ण नहीं हो सकता, जब तक वह उन सामाजिक वास्तविकताओं को न देखे जिनमें लोग जीते हैं।”

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