फिल्म रिव्यू- जेएनयू की रिसर्चर की नज़र से जानें क्या है फिल्म जय भीम में ख़ास…

जय भीम-फिल्म रिव्यू
जय भीम-फिल्म रिव्यू

बक़लम- आरती रानी प्रजापति, शोधार्थी, जेएनयू

निर्देशन- टीजे ग्नानावेल

प्रोड्यूसर- सुरिया, ज्योथिका

दक्षिण भारतीय सिनेमा में पिछड़े तबके के प्रश्नों को लगातार दर्शाया जा रहा है। ये फिल्मी दुनिया एक मायने में बेहद स्पष्ट है और वह है इनका यथार्थ प्रदर्शन। जो है या हो रहा है, ये उसे दिखाते हैं। बॉलीवुड सिनेमा की ज्यादातर फ़िल्मों की तरह ये पितृसत्ता को सर पर नहीं बैठाते। देखा जाए तो बॉलीवुड एक ऐसे छवि का निर्माण करता है तो चुपचाप सहने में ही विश्वास करती है। बॉलीवुड अक्सर हमें एक काल्पनिक दुनिया में ले जाता है। ऐसी दुनिया जिसकी असल दुनिया से कोई लेना-देना नहीं। खासकर पिछड़े, आदिवासी, दलित, महिला, मुस्लिम समाज को लेकर उनकी अपनी अलग ही समझ है। यहां की फिल्मों में मुस्लिम वही है जो टोपी पहनता है, दाढ़ी बढ़ाता है। इसी तरह के पूर्वाग्रहों से भरी होती हैं ज्यादातर बॉलीवुड की फिल्में। वहीं दक्षिण भारतीय सिनेमा कई बार पिछड़े तबकों को बारीकी से दिखाने की कोशिश करता है।

इसी कोशिश को आगे बढ़ाते हुए एक फिल्म आई है, 'जय भीम'। फिल्म का उद्देश्य आदिवासियों को समस्याओं को सामने लाना है। किस तरह से देश में आज़ादी के कई साल बाद भी एक पूरा समाज है जो मूलभूत सुविधाओं से वंचित है। जहां शिक्षा के नाम पर हस्ताक्षर तक की पहुंच नहीं है। यह इतने पिछड़े हैं कि देश के लोकतंत्र में इनका कोई हिस्सा नहीं है। राशन कार्ड से लेकर कोई भी सरकारी पत्र इनके पास नहीं है। इनके मां-बाप, बच्चे कभी भी जान गंवा सकते हैं क्योंकि जहां कोई भी अपराध होगा वहां इन्हें सबसे पहले बेगुनाह होते हुए भी पकड़ा जाएगा। वास्तव में यह फिल्म उस सच को दिखाती है जो यह बताता है कि हम जानते हैं कि तुमने कोई अपराध नहीं किया लेकिन इस विशेष समुदाय में पैदा होना ही तुम्हारा अपराध है। इस अपराध की सजा लोगों को मारपीट कर, महिलाओं को बलत्कृत करके दी जाती है।

फिल्म में चंद्रु नाम का वकील है जो कि मार्क्स, अम्बेडकर और पेरियार की विचारधारा को मानता है। वह मानवाधिकार के मामलों को मुफ्त में लड़ता है। उसकी उम्र कोर्ट के सभी वकीलों से कम है लेकिन वह अपनी हर गलती से सीखना चाहता है। बार-बार तर्क से अपनी दलील पेश करता है और इसी तरह कई निर्दोष लोगों की जान बचाता है। वह अंधे कानून को गूंगा होने से रोकता है और सफल भी होता है।

ऐसा लगता है कि वकील चंद्रु ही वह मुख्य पात्र है। कहानी उसके इर्द-गिर्द ही बनी है। फिल्म में वह नायक है लेकिन ऐसा नहीं है। वास्तव में कहानी की मुख्य पात्र है वह आदिवासी महिला जो शुरू से अंत तक फिल्म में एक दृढ निश्चय के साथ खड़ी है। राजा की पत्नी संघिनी। एक प्रेमिका, पत्नी, मां के रूप में लड़ने वाली महिला। महिलाएं कमजोर होती हैं, लड़ नहीं सकती हैं…. ऐसी छवि को यह महिला पूरी तरह खारिज करती है। उसे अपने पति से प्रेम है लेकिन पति द्वारा महल बनाने की उसकी आशा नहीं है। बस उसका साथ ही उसके लिए महत्वपूर्ण है। वह शिक्षा का महत्व जानती है इसलिए कठिन परिस्थिति में भी अपनी बच्ची की पढ़ाई नहीं रोकती है। गर्भावस्था के मुश्किल समय में वह महिला भ्रष्ट पुलिस, अधिकारियों, कानून के दांव पेचों से लड़ जाती है। जिसका आदमी भले ही कानून के तथाकथित रखवालों द्वारा मार दिया जाता है लेकिन उसके अंदर जो जिंदा है वह उसका ज़मीर।

एक सीन में पुलिस द्वारा बेटी को उठाए जाने पर जब डीजीपी कहते हैं कि उस महिला को गाड़ी में घर तक छोड़ दो, वो इनकार कर देती है। बार-बार उस महिला को खरीदने की कोशिश की जाती है, केस वापस लेने के लिए उस पर दबाव बनाया जाता है लेकिन वह इधर से उधर नहीं होती।

क्या तुम इस हालत में केरल तक जा सकती हो?

'मैं अपने पति के लिए कहीं भी जा सकती हूं'

फिल्म में पति की हत्या जेल में पुलिस अत्याचार के कारण होती है। कहां पूरा पुलिस विभाग, गांव का सरपंच और मंत्री की बातें, कहां वह साधारण सी अनपढ़ गर्भवती महिला। लेकिन वह हार नहीं मानती, लड़ती है और जीतती है। चंद्रू का योगदान उसकी इस सफलता में बहुत बड़ा है लेकिन संघर्ष की पहल सिंघिनी ख़ुद करती है। पैसे के आगे न झुकने का फैसला उसके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता है।

फिल्म 'जय भीम'क्या वास्तव में अंबेडकरवादी फिल्म है? क्या नाम जय भीम रख देने से कोई चीज अंबेडकरवादी हो जाती है? फिल्म को इस परिपेक्ष्य में समझना पड़ेगा। संविधान, कानून में विश्वास, फिल्म का मुख्य बिंदु है। व्यक्ति यदि संविधान के साथ है, सच के साथ लड़ता है तो उसे देर से सही, सफलता मिलेगी। फिल्म मार्क्सवादी, आंदोलनकारियों को दिखाती है। कहीं नीले झंडे का इस्तेमाल नहीं हुआ, लेकिन देश के सबसे निचले पायदान पर जिंदगी बसर कर रहे लोगों के लिए सिर्फ मार्क्स काफी नहीं है। वह चूहे मार कर खाने वाले लोग हैं। इतनी गरीबी कि छत कब टपक और टूट जाए पता नहीं चलता। चप्पल, कपड़ा कुछ ठीक नहीं लेकिन जीना है। फिल्म भले ही मार्क्स के झंडे और व्यक्तियों को दिखाती है लेकिन डॉ.अंबेडकर के मूल सिद्धांत 'शिक्षित बनो','संघर्ष करो','संगठित रहो' पर टिकी है। जब तक वह इन तीनों को नहीं मानते उनकी जिंदगी खतरे में रहती है। राजा के दो भाई जो पांडुचेरी के जेल में बंद थे उनकी रक्षा संगठित होकर ही की गई। पूरी फिल्म में महिला और उसका समुदाय, जीवन और न्याय के लिए संघर्ष करते हैं। अंत में चंद्रू के साथ सिंघिनी की बेटी का चंद्रू के अंदाज में बैठकर स्वाभिमान से अखबार पढ़ना शिक्षा की ओर उनका प्रयास है। व्यक्ति शिक्षित होगा तो वह उसकी जगह ले सकता है, जिसको समाज बड़ा मानता है।

फिल्म की खासियत यह है कि यह फिल्म किसी पुरुष अभिनेता को केंद्र बनाकर नहीं लिखी गई है। न ही इसमें पुरुष पात्र को मार-धाड़ करने की जरूरत पड़ती है। फिल्म में बहुत अधिक संवाद भी नहीं है। चंद्रु ज्यादा नहीं बोलता, उसकी भाव भंगिमा ही अधिक मुखर है। फिल्म में पुरुषों के पुरुषार्थ को उभारने की डायरेक्टर ने कोशिश नहीं की है बल्कि महिला की संगठन शक्ति, उसकी दृढ़ इच्छा शक्ति, लड़ने की ताकत को फ़िल्म बताती है। दक्षिण भारतीय फिल्मों से यह फ़िल्म इस मायने में अलग हो जाती है।

कुल मिलाकर यह फ़िल्म एक अलग तरह की फिल्म है जिसमें कई बार आपके रोंगटे खड़े करने, दिमाग को चेतनाशील बनाने की ताकत है और हाशिए के समाज की वह सच्चाई भी है जो अधिकतर लोग नकारते हैं। देश का विकास शहरों से नहीं उसके गांवों से तय होगा। देश की शिक्षा का स्तर शहर नहीं गांव बताएंगे। भले ही ये फ़िल्म 1995 के गांव की घटना के आधार पर बनी है लेकिन आज भी दलित, आदिवासी, मुस्लिम, पिछड़े तबके के पुरुष और स्त्रियों की स्थिति कुछ खास नहीं बदली है। आज भी गांवों में वही छुआछूत भेदभाव है। शहरों में इसका रूप बदला है। महिला को न्याय के लिए तब भी और अब भी लगातार भटकना ही पड़ता है। कुछ तो न्याय मिलते मिलते मर जाती हैं। कब किसे पकड़कर मार दिया जाए, गायब कर दिया जाए नहीं पता। वास्तव में शहर एक कल्पना है और गांव यथार्थ और इसी यथार्थ को पेश करती फिल्म है 'जय भीम'।

एडिटिंग- शुभी चंचल

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