Sony Liv ओटीटी प्लेटफार्म पर शुक्रवार को रिलीज हुई फिल्म 'नरिवेट्टा' दर्शकों के दिलों को झकझोर रही है। केरल की 2003 की मुथंगा घटना से प्रेरित यह फिल्म सिस्टम के क्रूर चेहरे का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करता है जब दमनकारी प्रशासन अपने स्वार्थ की खातिर अपने ही कर्मचारियों की बलि देने से भी गुरेज नहीं करता और कैसे कानून और व्यवस्था का इस्तेमाल निर्दोष आदिवासियों पर करके उनकी आवाज को दबा देता है।
नरिवेट्टा (सियार का शिकार) - शीर्षक दर्दनाक रूप से सटीक साबित होता है, यह वर्गीज़ पीटर की कहानी है, जिसे टोविनो थॉमस ने निभाया है। यह एक ऐसा युवक है जो पुलिस में सेवा के महान उद्देश्य से नहीं बल्कि इसलिए भर्ती हुआ है क्योंकि उसे नौकरी चाहिए। वर्गीज़ की अवस्था भारत के किसी भी गाँव में रहने वाले एक साधारण युवा सी है जो पढ़ने लिखने के बाद एक सम्मानजनक नौकरी पाने की तमन्ना रखता है।
उसकी सामान्यता बेहद रिलेटेबल है- विधवा मां जो सिलाई करके घर का खर्चा चलाती है, छोटी सी जमीन जिसपर खेती करके बामुश्किल कुछ आमदनी होती है। अपने छोटे मोटे खर्चे के लिए वह अपनी गर्लफ्रेंड नैंसी पर निर्भर है। एक आम युवा के रूप में थोड़ी खामियों वाला, थोड़ा स्वार्थी, बस जीवन में आगे बढ़ने की कोशिश करता हुआ यह युवा अपनी पसंद के विपरीत पुलिस में कांस्टेबल की नौकरी को चुनने के लिए विवश हो जाता है।
लेकिन जब वह ड्यूटी के दौरान एक घटना में आदिवासियों के दमन का गवाह बनता है, तो उसकी चुप्पी टूटने लगती है। फिर जिस सिस्टम का वह हिस्सा है, उसी से टकराने को मजबूर हो जाता है।
तोविनो थॉमस की शानदार अदाकारी और अनुराज मनोहर की संवेदनशील दिशा में बनी यह फिल्म मुथंगा घटना पर आधारित है, जहां केरल के आदिवासियों के साथ पुलिस की बर्बरता ने इतिहास के काले अध्याय रच दिए थे।
फिल्म हिंसा को शूगरकोट नहीं करती। आदिवासियों की पिटाई, महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार, और यहाँ तक कि एक कुत्ते को जलाए जाने के दृश्य आपको झकझोर देते हैं। अनुराज मनोहर ने जानबूझकर इन दृश्यों को 'अनकम्फर्टेबल' बनाया है, ताकि दर्शक भी उस पीड़ा को महसूस कर सकें जो इन समुदायों ने झेली है। नरिवेट्टा हिंसा को साफ-सुथरा नहीं बनाती। फिल्म हमें इससे मुंह मोड़ने की इजाज़त नहीं देती कि जब राज्य तय करता है कि कुछ जिंदगियों का कोई मतलब नहीं तो क्या होता है।
भारत की 2011 की जनगणना के अनुसार अनुसूचित जनजातियाँ केरल की जनसंख्या का लगभग 1.45% हैं। फरवरी 2003 को केरल के वायनाड जिले के मुथंगा जंगल में घटी वो भीषण घटना आज भी केरल के इतिहास का सबसे काला अध्याय मानी जाती है, जब पुलिस ने भूमि के अधिकार की मांग कर रहे निहत्थे आदिवासियों पर 18 राउंड फायरिंग कर दी, जिसमें दो लोगों की मौत हो गई और सैकड़ों घायल हुए। बाद के एक बयान में सरकार ने आधिकारिक तौर पर मृतकों की संख्या पाँच बताई। गोलीबारी के फुटेज कई समाचार कार्यक्रमों में प्रसारित किए गए।
यह घटना 2001 में केरल सरकार द्वारा आदिवासियों को 5 एकड़ जमीन देने के टूटे वादे की परिणति थी, जिसके बाद आदिवासी गोत्र महासभा (AGMS) के नेतृत्व में 600 से अधिक परिवारों ने मुथंगा जंगल में धरना दिया था। 19 फ़रवरी 2003 को केरल पुलिस और केरल वन विभाग के अधिकारियों ने मुथंगा वन्यजीव अभयारण्य की ज़मीन पर कब्ज़ा कर चुके सैकड़ों आदिवासी परिवारों को बेदखल करने के लिए एक अभियान शुरू किया।
बेदखली के एक हिस्से के रूप में वन विभाग पर आदिवासी झोपड़ियों में आग लगाने और पालतू हाथियों को शराब पिलाने का आरोप लगाया गया था ताकि वे आदिवासी झोपड़ियों पर हमला करने के लिए प्रेरित हो सकें। धरना हटाने के लिए पुलिस ने बल प्रयोग किया जिसके बाद महिलाओं और बच्चों सहित प्रदर्शनकारी जंगल में और भीतर चले गए, जहाँ लगभग 200 लोगों ने आगे बढ़ते सुरक्षा बलों का सामना किया। बार-बार चेतावनी और आंसू गैस के इस्तेमाल के बावजूद, प्रदर्शनकारियों ने तितर-बितर होने से इनकार कर दिया और लाठी, पत्थर और अन्य अस्थायी हथियार लहराकर जवाबी कार्रवाई की।
हिंसक बेदखली के बाद कानून प्रवर्तन एजेंसियों ने 132 लोगों को गिरफ्तार किया, जिनमें 99 महिलाएँ, 33 पुरुष और 37 बच्चे शामिल थे। महिलाओं पर वन्यजीव संरक्षण अधिनियम के प्रावधानों के तहत आरोप लगाए गए, जबकि पुरुषों पर भारतीय दंड संहिता की विभिन्न धाराओं के तहत आरोप लगाए गए। सभी बंदियों को 15 दिनों की न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया और कन्नूर ज़िले की केंद्रीय जेल भेज दिया गया। 24 फ़रवरी 2003 को सामाजिक कार्यकर्ता ए. वासु ने बताया कि एजीएमएस नेता सीके जानू और एम. गीतानंदन ने दावा किया कि पुलिस गोलीबारी के दौरान लगभग 15 लोग गंभीर रूप से घायल हो गए।
पुलिस की इस कार्रवाई की केरल के बौद्धिक और साहित्यिक हलकों में व्यापक निंदा हुई, जिसके परिणामस्वरूप प्रदर्शनकारियों के साथ एकजुटता दिखाने के लिए बड़े पैमाने पर प्रदर्शन हुए। मुथंगा में हुई गोलीबारी के लिए यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (यूडीएफ) सरकार को ज़िम्मेदार ठहराया गया था। यह व्यापक रूप से स्वीकार किया जाता है कि तत्कालीन वन मंत्री के. सुधाकरन ने इस घटना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। हालाँकि, यह गोलीबारी केरल के अधिकांश प्रमुख राजनीतिक दलों के समर्थन या कम से कम मौन स्वीकृति से की गई थी। घटना से दो दिन पहले, कई राजनीतिक दलों ने मुथंगा के जंगलों से आदिवासियों को बेदखल करने की मांग को लेकर हड़ताल का आह्वान किया था।
इस घटना ने न सिर्फ केरल बल्कि पूरे देश में आदिवासी अधिकारों की बहस को नई दिशा दी, जिसके परिणामस्वरूप 2004 में केंद्र सरकार ने केरल को 7,840 हेक्टेयर बंजर वन भूमि आदिवासियों को देने की अनुमति दी और 2014 तक 6,841 परिवारों को 3,588 हेक्टेयर जमीन वितरित की गई। दिसंबर 2014 में एजीएमएस के लंबे विरोध प्रदर्शन के बाद केरल मंत्रिमंडल ने आदिवासी बहुल पंचायतों में पेसा के कार्यान्वयन को मंजूरी दी, जिसकी शुरुआत इदामालक्कुडी और अरलम से हुई।
2023 तक आते-आते मुथंगा प्रदर्शन में शामिल अंतिम 37 परिवारों को भी जमीन के पट्टे दिए गए, साथ ही प्रत्येक प्रभावित परिवार को 1 एकड़ जमीन और 2.5 लाख रुपये आवास सहायता देने का प्रावधान किया गया, जबकि जेल गए बच्चों को 1 लाख रुपये मुआवजा दिया गया। इस घटना ने साबित कर दिया कि जन आंदोलन कैसे सिस्टम को बदलने की ताकत रखते हैं, हालांकि इसकी कीमत आदिवासी समुदाय को अपने लोगों के खून से चुकानी पड़ी।
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