उच्च शिक्षा संस्थानों में जातिगत अपमान: छात्रों को 'बकासुर' की उपमा तो छात्राओं पर कोठे से आने का तंज

भारतीय उच्च शिक्षा संस्थानों में जाति भेदभाव किस कदर हावी है, वंचित और बहुजन समाज के विद्यार्थियों को किस तरह रोजमर्रा कैम्पस जीवन में अपमान का घूंट पीना पड़ता है, इस व्यापक समस्या का खुलासा हाल ही में एक शोध पत्र में किया गया है।
उच्च शिक्षा संस्थानों में जातिगत अपमान: छात्रों को 'बकासुर' की उपमा तो छात्राओं पर कोठे से आने का तंज

"Caste: A Global Journal on Social Exclusion" नामक इस पत्रिका में प्रकाशित एक हालिया अनुसंधान रिपोर्ट में भारतीय विश्वविद्यालयों में गहराई तक जड़े पसार चुके जातिगत भेदभाव को उजागर किया गया है।

इस शोध का शीर्षक "जाति अस्मिता और चुनौतियों की संरचना: तिरस्कार, पूर्वाग्रह और भारतीय विश्वविद्यालयों में सामाजिक प्रतिनिधित्व" है, और यह संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएस) और यूनाइटेड किंगडम (यूके) के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों के विद्वानों द्वारा गहन अनुसंधान के बाद तैयार किया गया संयुक्त शोधपत्र है। यह अध्ययन "भारत में विषाद, भेदभाव और उच्चतर शिक्षा" परियोजना का हिस्सा है और यह ब्रिटिश अकादमी, यूके के अंतर्राष्ट्रीय साझेदारी और गतिविधि पुरस्कार 2016 के सहयोग से प्रवर्तित है।

शोध क्षेत्रीय अवलोकन, समूह चर्चाएं और व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर छात्रों और शिक्षकों के व्यापक सामाजिक पृष्ठभूमि से संबंधित दुखद अनुभवों को उजागर करता है। यह दिखाता है कि अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) से संबंधित छात्रों को शिक्षण स्थानों में भेदभाव, सामाजिक अवरोधन और अपमान का सामना करना पड़ता है।

अच्छे प्रदर्शन के बावजूद कम ग्रेड

शोध में एक चिंताजनक पहलू उजागर किया गया है कि कॉलेजों में प्रवेश प्रक्रिया के दौरान दलित, आदिवासी एव पिछड़े वर्ग के विद्यार्थियों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार प्रचलित है। उदाहरण के लिए, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के एमफिल प्रवेश परीक्षा के लिखित भाग में अच्छा प्रदर्शन करने वाले निचली जाति के छात्रों को वाइवा के दौरान पक्षपात पूर्ण तरीके से ग्रेड किया गया था। इससे संस्थागत पूर्वाग्रह का पता चलता है और सामाजिक समावेश्यता की मार्ग को रोकता है।

इसके अलावा, शोध में मार्जिनलाइज़्ड छात्रों के द्वारा विश्वविद्यालयों में वैमनस्य और पूर्वाग्रहों से पूर्ण माहौल पर जानकारी दी गयी है। बताया गया कि इस वर्ग के लोगों के साथ अपमानजनक टिप्पणियाँ, गाली गलौज और छात्र के तौर पर मान्यता के सवाल सामान्यतः होते हैं। अध्ययन में विशेष उठाया गया है कि आरक्षित श्रेणी के छात्रों को उनकी जाति की पहचान से संबंधित अपमानजनक टिप्पणियों का सामना करना पड़ता है। यह उनके स्वाभिमान, कल्याण और शैक्षिक प्रदर्शन पर गहरा प्रभाव डालता है।

जाति भेदभाव का प्रभाव केवल छात्राओं और छात्रों तक ही सीमित नहीं होता है। आरक्षित श्रेणी के शिक्षक भी गैर-श्रेणी के छात्रों, शिक्षकों और प्रशासनिक कर्मचारियों से सूक्ष्म और प्रत्यक्ष भेदभावपूर्ण व्यवहार का सामना करते हैं। शोध एक चिंताजनक वास्तविकता को दर्शाता है जहां सामाजिक अवरोधन का दैनिक अनुभव आरक्षित वर्ग के छात्रों के जीवन में एक नकारात्मकता पूर्ण दृष्टिकोण का समावेश करता है।

शोध दलित और आदिवासी छात्रों में अवसाद , अस्वस्थता और आत्महत्या की चिंता की चरम संख्या पर भी प्रकाश डालता है, जो मुद्दे की गंभीरता को और भी बढ़ाता है। इस अध्ययन से स्पष्ट होता है कि भारतीय शिक्षा प्रणाली में जातिगत भेदभाव के खिलाफ रोकथाम के लिए प्रयास बहुत आवश्यक है।

आरक्षित वर्ग से ताल्लुक रखने पर शर्मिंदगी

संवैधानिक रूप से, एससी, एसटी और ओबीसी छात्रों के लिए उच्चतर शिक्षा संस्थानों में (प्रत्येक के लिए क्रमशः 15 प्रतिशत, 7.5 प्रतिशत और 27 प्रतिशत) और सार्वजनिक क्षेत्र के रोजगार में आरक्षित सीटें होती हैं। सांविधिक रूप से वे (आरक्षित) श्रेणी के छात्र या कोटा छात्र कहलाते हैं। 'श्रेणी के छात्र' अपने अनुभवों की रिपोर्ट प्रस्तुत करते हैं, जिनमें वे बताते हैं कि उन्हें दूसरे छात्रों, शिक्षकों और प्रशासनिक कर्मचारियों से पूर्वाग्रह का सामना करना पड़ता है।

शोध में कुमार (2016) द्वारा आयोजित एक अध्ययन के हवाले से ये बताया गया कि किस तरह उच्च शिक्षा संस्थानों में लड़कियों को अपमान का सामना करना पड़ता है जब उनसे पूछा जाता है, "क्या आप कोटे (आरक्षण ) के माध्यम से आए हैं या कोठे से आए हैं?" यहां, "कोटा" शब्द हिंदी में "कोठा" यानी वेश्यालयों से संगत होता है। उसी तरह, स्कॉलर गुरु ने अपने शोध में इस बात पर जोर दिया है कि "सरकारी दामाद" जैसे अपमानजनक शब्द आरक्षित श्रेणी के व्यक्तियों को नीचा दिखाने के लिए प्रयुक्त होते हैं। ऐसी अपमानजनक भाषा इन छात्रों को गंदगी, कचरे और बीमारी के वाहक के रूप में प्रॉजेक्ट करके लगातार उपेक्षित करने में योगदान देते हैं।

विद्वान एन. सुकुमार (2008) के निजी अनुभवों के अनुसार, हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में आरक्षित श्रेणी के छात्र गैर-दलित सहपाठियों और मेस कर्मचारियों से अपमानजनक टिप्पणियों और निन्दापूर्ण आचरण का सामना करते हैं।

इन अपमानजनक टिप्पणियों में हिंदू पौराणिक कथाओं के नकारात्मक पात्रों जैसे बकासुर और कुम्भकर्ण का उल्लेख होता है। इसके अलावा, आरक्षित श्रेणी के छात्रों को "सूअर," "सरकार के दामाद," "हरामजादा," "भिखारी" और अन्य अपमानजनक टिप्पणियों का सामना करना पड़ता है, जो उनके पितृत्व को भी सवाल खड़ा करते हैं जो घोर अपमानजनक होता है।।

यह अपमान छात्रों से आगे बढ़ता है, क्योंकि आरक्षित श्रेणी के शिक्षकों को भी भेदभावपूर्ण व्यवहार का सामना करना पड़ता है। वे कक्षाओं, कर्मचारी कक्षों, आवासीय आवास क्षेत्रों में स्थायी निवासी कर्मचारियों के साथ बातचीतों, हॉस्टल कैंटीन हॉलों में भी अपमानजनक टिप्पणियों और भेदभावपूर्ण व्यवहार का सामना करते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि जाति-आधारित भेदभाव व्यापक है और यह विभिन्न पहलुओं पर प्रभाव डालता है, जिससे आरक्षित श्रेणी के छात्राओं व छात्रों और शिक्षकों के लिए उच्च शिक्षा संस्थान में एक आतंकपूर्ण वातावरण पैदा होता है।

निजता और गोपनीयता करते है भंग

शोध के मुताबिक भारतीय विश्वविद्यालयों में, गोपनीयता के संबंध में संस्थागत नियमों की कमी ने एक चिंताजनक वातावरण बनाया है जहां शैक्षिक कर्मचारी और संकाय छात्रों की जाति पहचान खुले आम उजागर होने से सामान्य वर्ग के जन आरक्षित वर्ग के विद्यार्थियों और शिक्षकों के साथ अपमानजनक व्यवहार होता है।

इस कड़ी में कॉलेज-यूनिवर्सिटीज में एडमिशन के समय पूरे नाम और जाति के साथ प्राप्त अंकों की प्रकाशित सूचियां शामिल होती हैं। इसके अलावा, पंजीकरण प्रक्रिया के दौरान, अकस्मात (अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी), अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी), और अनारक्षित "सामान्य" श्रेणी) के छात्रों के लिए अलग काउंटर स्थापित किए जाते हैं। ऐसे प्रावधान निर्देशित जाति-आधारित भेदभाव को बढ़ाते हैं, जो एससी/एसटी छात्रों की मौलिक गरिमा और गोपनीयता के अधिकारों का गंभीर उल्लंघन भी करते हैं।

मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक सपोर्ट की आवश्यकता

जातिगत भेदभाव के इस व्यापक मुद्दे को संबोधित करने के लिए प्रयासों को नीतियों और विनियमों से परे बढ़ाने की आवश्यकता है। अध्ययन में सिफारिश की गई है कि जाति-आधारित भेदभाव के पीड़ित व्यक्तियों के लिए पर्याप्त मनोवैज्ञानिक, भावनात्मक, और शारीरिक सहायता प्रणाली की स्थापना की जाए, जैसे कि परामर्श और सुरक्षा उपायों को सुधारा जाए। इस अनुसंधान के परिणाम दिखाते हैं कि भारतीय उच्च शिक्षा संस्थानों में जाति-आधारित भेदभाव को उखड़ाने और सभी छात्रों के लिए समान अवसर प्रदान करने के लिए शैक्षिक संस्थानों, नीति निर्माताओं, और समाज के बड़े पैमाने पर संयुक्त प्रयासों की आवश्यकता है। इस गहन जड़ी हुई समस्या का समाधान न करने से छात्रों की प्रगति में बाधाऐ समाप्त नहीं होंगी और भारतीय उच्च शिक्षा संस्थानों में सामाजिक अन्याय को बनाए रखेगी।

शोधकर्ताओं की टीम:

इस अध्ययन को निम्नलिखित शोधकर्ताओं की टीम द्वारा पूर्ण किया गया:

गौरव जे. पथानिया (Gaurav J. Pathania) - समाजशास्त्र और शांति स्थापना के सहायक प्रोफेसर, ईस्टर्न मेनोनाइट यूनिवर्सिटी, हैरिसनबर्ग, वर्जीनिया, संयुक्त राज्य अमेरिका

सुश्रुत जाधव (Sushrut Jadhav) - पारस्परिक सांस्कृतिक मनोशास्त्र के प्रोफेसर, यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन, यूके

अमित थोराट (Amit Thorat) - सहायक प्रोफेसर, केंद्रीय क्षेत्रीय विकास के अध्ययन केंद्र, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली, भारत।

डेविड मोसे (David Mosse) - प्रोफेसर, सामाजिक नृत्य विज्ञान, स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज़ (एसओएस), लंदन, यूके

सुमीत जैन (Sumeet Jain) - उच्च व्याख्याता, सामाजिक कार्य के विद्यालय, सामाजिक और राजनीतिक विज्ञान के स्कूल, एडिनबर्ग यूनिवर्सिटी, संयुक्त राज्य अमेरिका।

इन शोधकर्ताओं ने ब्रिटिश अकादमी द्वारा प्रदान की गई एक अंतरराष्ट्रीय साझेदारी और नेटवर्क मोबिलिटी ग्रांट के माध्यम से इस शोध को पूर्ण किया। इस टीम में संयुक्त राज्य अमेरिका , यूके और भारत से विशेषज्ञों को शामिल किया गया था जो जाति संबंधी मुद्दों का अध्ययन करते हैं।

अध्ययन ने भारतीय उच्च शिक्षा संस्थानों में जाति-आधारित अपमान और भेदभाव के अनुभवों पर डेटा जुटाने के लिए क्वालिटेटिव एथनोग्राफिक अनुसंधान विधियों, फील्ड ऑब्जरवेशन, फोकस्ड ग्रुप डिस्कशन आदि का उपयोग किया गया।

गौरव पथानिया ने द मूकनायक से बातचीत में कहा कि "यह शोध अध्ययन जाति-आधारित भेदभाव और अधिकारिता में तेजी से सुधार करने के लिए एक चेतावनी के रूप में काम करता है। यह संपूर्ण नीति परिवर्तन, संस्थागत सुधार और विभिन्न संकायों के बीच संवादों की मांग करता है ताकि जातिवादी भेदभाव की रोकथाम के लिए सार्वभौमिक उपाय निर्धारित किए जा सकें। सामाजिक विज्ञान और नैदानिक दृष्टिकोण के बीच का अंतर समाप्त करके, विश्वविद्यालय उच्च और निचली जातियों के लिए उपचार केंद्र के रूप में विकसित हो सकते हैं, जो समावेशीता को बढ़ावा देते हैं और सभी छात्रों को सफलता प्राप्त करने की क्षमता प्रदान करते हैं।"

शोध में बताए गए चौंकाने वाले तथ्य:

  • 2019 में छात्रों की आत्महत्याओं की चौंकाने वाली संख्या 10,335 थी, जो लगभग हर घंटे एक आत्महत्या के औसत को दर्शाती है। यह दो दशकों में सबसे अधिक छात्रों की आत्महत्याएं है और शिक्षा प्रणाली में एक प्रगट चिंता को उजागर करती है। (स्रोत: टाइम्स ऑफ इंडिया, 7 सितंबर 2020)

  • 2017 अप्रैल 13 को, भारत के सबसे राजनीतिक रूप से जागृत कैंपस जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के एक दलित M.Phil छात्र ने खुद को फांसी लगाई।

  • 2016 में, हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमुला (जिसकी आत्महत्या राष्ट्रीय स्तर पर प्रदर्शनों का कारण बनी ) ने एक पत्र में लिखा था कि विश्वविद्यालय प्रशासन को "मेरी तरह के छात्रों के लिए यूथेनेसिया ( इच्छा मृत्यु) की व्यवस्था करनी चाहिए"।

  • एक चिंताजनक आंकड़ा यह दिखाता है कि भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों (आईआईटी) में संकाय सदस्यों में दलित और जनजाति समुदाय का प्रतिनिधित्व 3 प्रतिशत से भी कम हैं। (स्रोत: जस्टिस न्यूज, 1 जनवरी 2019)

  • दलितों को उनकी जाति पहचान के साथ आरक्षण कोटे के लाभ के लिए दोहरे स्तर पर अपमान का सामना करना पड़ता है।

  • 2008 में, हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र सेंथिल कुमार ने आत्महत्या की। इस पर जांच करने वाले प्रोफेसर एन. सुकुमार ने अपने निष्कर्ष रिपोर्ट में घटना को 'हमारे विश्वविद्यालयों में जाति भेदभाव की काली सच्चाई' के रूप में उध्दृत किया (सेंथिल कुमार सॉलिडैरिटी कमेटी 2008, पृ. 10)

  • 2006 में, भारत के शीर्ष मेडिकल एजुकेशन संस्थान में हॉस्टलमेट्स द्वारा जातिगत अपमान से त्रस्त होकर एक दलित छात्र ने आत्महत्या की। इसके परिणामस्वरूप, भारत सरकार ने प्रोफेसर थोराट समिति का गठन किया।

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