नई दिल्ली: बिहार विधानसभा चुनाव 2025 जैसे-जैसे करीब आ रहे हैं, वैसे-वैसे राजनीतिक दलों की नजर एक बार फिर दलित और अंबेडकरवादी वोट बैंक पर टिक गई है। लेकिन दूसरी ओर, बोधगया के महाबोधि मंदिर पर "अधिकार" की लड़ाई लड़ रहे बौद्धों के दर्द पर कोई भी मुख्यधारा की पार्टी संजीदगी नहीं दिखा रही है।
पटना से लेकर दिल्ली तक, राजनीतिक दल अपनी-अपनी गोटियाँ बिछाने में लग गए हैं। हर पार्टी की नजर राज्य के बड़े दलित और महादलित वोट बैंक पर है। मंचों से 'बाबा साहब अंबेडकर' के नाम की कसमें खाई जा रही हैं, 'संविधान' को बचाने के वादे हो रहे हैं। लेकिन इस सारे चुनावी शोर में एक असली और दशकों पुराना मुद्दा है, जिस पर अजीब सी खामोशी पसरी हुई है।
यह मुद्दा है बोध गया, वह पावन धरती जहाँ बुद्ध को ज्ञान मिला। आज उसी 'महाबोधि मंदिर' पर अपने पूरे अधिकार के लिए बौद्ध समुदाय सालों से संघर्ष कर रहा है, लेकिन कोई भी राजनीतिक दल - न सत्ताधारी NDA और न ही विपक्षी 'इंडिया' गठबंधन - उन्हें उनका हक दिलाने का खुला वादा करने को तैयार नहीं है।
2300 साल पुराना बोध गया का महाबोधि मंदिर यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में शामिल है। आज़ादी के बाद बिहार सरकार ने 1949 में "बोधगया टेंपल मैनेजमेंट एक्ट" (BTMC Act) बनाया। इस कानून के तहत मंदिर प्रबंधन के लिए 8 सदस्यीय समिति गठित की गई — चार हिंदू और चार बौद्ध सदस्य, जबकि गया का जिलाधिकारी इसका पदेन अध्यक्ष होता है।
बौद्ध समुदाय का आरोप है कि यह कानून बुद्ध के अनुयायियों के अधिकारों का हनन करता है, क्योंकि मंदिर का असली धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व बौद्धों से जुड़ा है। फिर भी प्रशासनिक रूप से इसका नियंत्रण हिंदू और सरकारी हाथों में है। बौद्ध भिक्षु वर्षों से मांग कर रहे हैं कि BTMC Act को रद्द कर महाबोधि मंदिर का पूर्ण प्रबंधन बौद्धों को सौंपा जाए।
सारा विवाद 'बोधगया टेम्पल मैनेजमेंट एक्ट (BTMC Act) 1949' को लेकर है। यह कानून आजादी के तुरंत बाद बनाया गया था। इसके तहत, मंदिर के प्रबंधन के लिए एक समिति (Bodhgaya Temple Management Committee) बनाई गई।
इस कानून की सबसे विवादित बात यह है कि 9 सदस्यों वाली इस कमेटी में 4 सदस्य बौद्ध और 4 सदस्य हिंदू होना अनिवार्य है। अध्यक्ष (Collector) समेत 5 हिंदुओं का बहुमत हमेशा बना रहता है। यही नहीं, कानून यह भी कहता है कि कमेटी का अध्यक्ष (जो गया का DM होता है) हिंदू ही होना चाहिए।
बौद्ध समुदाय का सवाल सीधा है कि:
वे दशकों से इस एक्ट को रद्द करने और मंदिर को पूरी तरह से बौद्धों को सौंपने की माँग कर रहे हैं।
बिहार की राजनीति में दलितों और बाबा साहब को मानने वालों का वोट 'किंगमेकर' की हैसियत रखता है। लेकिन विडंबना देखिए, जिस बाबा साहब ने अपने लाखों अनुयायियों के साथ हिंदू धर्म की कुरीतियों को छोड़कर बौद्ध धम्म का रास्ता अपनाया था, आज उन्हीं के अनुयायी अपने सबसे पवित्र स्थल के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं।
केंद्र में भाजपा की प्रचंड बहुमत वाली सरकार है और बिहार में भी NDA का शासन है। बौद्ध समुदाय ने कई सालों तक उम्मीद लगाई कि 'डबल इंजन' की सरकार उनकी सुनेगी। लेकिन महाबोधि मंदिर पर अपने अधिकार को लेकर उनका संघर्ष वैसा का वैसा ही है। अब बौद्धों को यह यकीन हो चला है कि भाजपा या NDA से उन्हें उनका हक शायद ही मिले, क्योंकि यह उनकी राजनीतिक विचारधारा से मेल नहीं खाता।
फरवरी 2025 से बोधगया में सैकड़ों बौद्ध भिक्षु धरने और आमरण अनशन पर बैठे हैं। उनका कहना है कि यह अधिनियम न सिर्फ संविधान की भावना के खिलाफ है, बल्कि बुद्ध की विरासत का भी अपमान है। आंदोलनकारी बताते हैं कि मंदिर से मिलने वाले दान और विदेशी सहयोग का इस्तेमाल बौद्ध धर्म के प्रचार की बजाय अन्य उद्देश्यों में हो रहा है।
यह विवाद कोई नया नहीं है — 1891 से लेकर आज तक कई बार बौद्धों ने इस मंदिर पर अपने अधिकार की मांग उठाई है। ब्रिटिश शासनकाल में भी यह मुद्दा चर्चित रहा और स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान कांग्रेस अधिवेशन में भी इस पर चर्चा हुई थी।
केंद्र में भाजपा और बिहार में NDA की सरकार होने के बावजूद बौद्धों की यह मांग आज तक अधूरी है। बौद्ध संगठनों का कहना है कि मोदी सरकार ने अयोध्या और काशी जैसे मंदिर मामलों में हिंदू भावनाओं को सम्मान दिया, लेकिन बुद्ध के नाम पर सिर्फ औपचारिक भाषणों और उत्सवों से आगे नहीं बढ़ी ।
महाबोधि मंदिर का प्रशासन आज भी उसी कानून से चलता है जो औपनिवेशिक मानसिकता की झलक देता है — जहां बौद्ध स्थल पर नियंत्रण गैर-बौद्धों के पास है। सरकार के रवैये से निराश बौद्ध संगठनों ने अब इसे एक राजनीतिक मुद्दा बनाने की तरफ रुख किया है।
अब आते हैं विपक्ष पर। पिछले कुछ सालों में कांग्रेस नेता राहुल गांधी की राजनीति में एक बड़ा बदलाव दिखा है। वह लगभग हर रैली, हर भाषण में 'संविधान', 'दलित', 'आदिवासी' और 'बाबा साहब अंबेडकर' का नाम प्रमुखता से लेते हैं। 'भारत जोड़ो न्याय यात्रा' के दौरान भी उन्होंने सामाजिक न्याय को अपना मुख्य एजेंडा बनाया।
लेकिन जब बात बोध गया की आती है, तो राहुल गांधी और कांग्रेस की तरफ से भी वही चुप्पी देखने को मिलती है जो भाजपा की तरफ से है। बिहार में चुनाव सिर पर हैं। 'इंडिया' गठबंधन अपना मैनिफेस्टो (घोषणा पत्र) तैयार कर रहा होगा। दलितों और अंबेडकरवादियों से वोट की अपील भी की जाएगी।
तो सवाल यह है कि कांग्रेस या 'इंडिया' गठबंधन अपने मैनिफेस्टो में यह सीधा वादा क्यों नहीं करता कि "अगर हमारी सरकार बनी, तो हम BTMC Act 1949 को रद्द करेंगे और महाबोधि मंदिर का प्रबंधन बौद्धों को सौंप देंगे?"
हाल ही में राहुल गांधी ने “जय संविधान यात्रा” भी निकाली, जिसमें उन्होंने कहा कि “जिस दिन संविधान नष्ट होगा, उस दिन गरीबों और दलितों के लिए कुछ नहीं बचेगा”। लेकिन उनकी पार्टी या INDIA गठबंधन के किसी नेता ने अब तक महाबोधि मंदिर या BTMC Act का नाम तक नहीं लिया है।
कई बौद्ध कार्यकर्ता सवाल उठा रहे हैं कि जब राहुल गांधी बहुजन और अंबेडकरवादी राजनीति को अपनाने की बात कर रहे हैं, तो क्या वे बौद्धों के इस सबसे पुराने संघर्ष को अपने घोषणापत्र में शामिल करेंगे? फिलहाल, कांग्रेस या महागठबंधन की किसी भी सार्वजनिक बैठक, रैली या दस्तावेज़ में “बोधगया टेंपल एक्ट” का उल्लेख नहीं मिलता ।
इसका जवाब 'वोट-बैंक' के नफा-नुकसान में छिपा है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि कोई भी दल इस मुद्दे पर खुलकर बोलकर बहुसंख्यक हिंदू वोटरों को नाराज करने का जोखिम नहीं लेना चाहता।
भाजपा का डर: भाजपा की पूरी राजनीति हिंदुत्व के इर्द-गिर्द घूमती है। कई हिंदू संगठन बोध गया को एक 'हिंदू-बौद्ध' स्थल मानते हैं (क्योंकि उनकी मान्यता में बुद्ध विष्णु के अवतार हैं)। अगर भाजपा बौद्धों के पक्ष में कोई कदम उठाती है, तो उस पर 'हिंदू हितों' की अनदेखी का आरोप लग सकता है, जो वह कभी नहीं चाहेगी।
कांग्रेस का डर: कांग्रेस 'सॉफ्ट हिंदुत्व' के रास्ते पर चलकर अपना खोया हुआ जनाधार वापस पाने की कोशिश कर रही है। कांग्रेस को डर है कि अगर उन्होंने बोध गया पर कोई वादा किया, तो भाजपा इसे तुरंत 'हिंदू-विरोधी' बताकर प्रचारित करेगी। कांग्रेस इस जाल में नहीं फँसना चाहती।
बिहार चुनाव 2025 में दलित वोट निर्णायक माने जा रहे हैं — जो कुल मतदाताओं का करीब 16 से 20 प्रतिशत हिस्सा हैं । इस वोट बैंक को साधने के लिए NDA और गठबंधन दोनों ही दल जातीय समीकरण के हिसाब से मैदान में हैं। पासवान, रविदास, मांझी जैसी जातियाँ दलित समीकरण की धुरी हैं। लेकिन बौद्ध समुदाय, जो खुद को संविधानवाद और समानता की विचारधारा से जोड़ता है, उसके मुद्दे किसी की प्राथमिकता में नहीं हैं।
विश्लेषकों का मानना है कि दलित वोट का आकर्षण दोनों पक्षों को भले हो, पर बौद्ध समुदाय की आवाज़ को उठाने से वे डरते हैं — क्योंकि यह “धर्म और राज्य” के जटिल समीकरण को चुनौती देता है।
यहीं पर राजनीति का दोहरा चरित्र सामने आता है। बाबा साहब अंबेडकर का नाम लेना आसान है, क्योंकि वह 'संविधान' और 'आरक्षण' के प्रतीक हैं, जो एक बड़ा वोट बैंक खींचता है। लेकिन बाबा साहब का असली दर्शन 'बौद्ध धम्म' में था, जो हिंदू धर्म की वर्ण-व्यवस्था पर सीधी चोट करता है।
बोध गया का मुद्दा सिर्फ एक मंदिर के प्रबंधन का नहीं है, यह उस 'अंबेडकरवादी' अस्मिता की पहचान का मुद्दा है। पार्टियाँ 'राजनीतिक अंबेडकर' को तो अपनाना चाहती हैं, लेकिन 'धार्मिक अंबेडकर' (जिन्होंने बौद्ध धम्म को चुना) के मुद्दों पर खामोश हो जाती हैं।
बिहार चुनाव 2025 में एक बार फिर 'संविधान' और 'सामाजिक न्याय' सबसे बड़े नारे बनेंगे। दलितों को लुभाने के लिए हर पार्टी एड़ी-चोटी का जोर लगा देगी। लेकिन बौद्ध समुदाय खामोशी से देख रहा है कि क्या कोई दल 'बाबा साहब का वोट' माँगने के साथ-साथ 'बाबा साहब के अनुयायियों' को उनका हक दिलाने की हिम्मत भी दिखाएगा? या इस बार भी महाबोधि मंदिर का मुद्दा चुनावी वादों के शोर में दबकर रह जाएगा?
महाबोधि मंदिर सिर्फ बिहार या बोधगया का विषय नहीं है — यह सवाल इस देश में धर्म पर बौद्धों के अधिकार, संविधान की आत्मा और सामाजिक न्याय की समझ से जुड़ा है। और जब महागठबंधन और भाजपा दोनों किसी न किसी रूप में अंबेडकर, दलित और संविधान की बात कर रहे हैं, तो यह सवाल और बड़ा हो जाता है कि:
जब 2300 साल पुराने बौद्ध धर्मस्थल पर आज भी बुद्ध के अनुयायी अपने ही मंदिर में "अतिथि" बने हुए हैं, तो क्या सत्ता की किसी भी ओर से उन्हें उनका हक कभी मिलेगा?
फिलहाल तस्वीर साफ है — बिहार की राजनीति में बौद्धों को बयानों से नहीं, राजनीतिक पार्टियों के सिर्फ मौन से जवाब मिल रहा है ।
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