TM Exclusive: जाति की दीवार— साउथ एशिया में दलितों के साथ स्वास्थ्य सेवाओं में भेदभाव उजागर करती स्टडी से समझेंगे भारत में जाति जनगणना क्यों है जरूरी!

यह स्टडी बताती है कि जातिगत भेदभाव एक सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट है। नेपाल में 1962 से जातिगत भेदभाव पर प्रतिबंध और भारत में सकारात्मक कार्रवाई नीतियों के बावजूद कार्यान्वयन में कमी है।
कई समुदाय दलितों को स्वास्थ्य जानकारी समझने में असमर्थ मानते हैं, जिसके कारण स्वास्थ्यकर्मी उन्हें महत्वपूर्ण जानकारी नहीं देते। कुछ जगहों पर बीमारियों को भूत-प्रेत से जोड़ा जाता है, जिससे दलित आधुनिक चिकित्सा के बजाय पारंपरिक उपचारों पर निर्भर रहते हैं।
कई समुदाय दलितों को स्वास्थ्य जानकारी समझने में असमर्थ मानते हैं, जिसके कारण स्वास्थ्यकर्मी उन्हें महत्वपूर्ण जानकारी नहीं देते। कुछ जगहों पर बीमारियों को भूत-प्रेत से जोड़ा जाता है, जिससे दलित आधुनिक चिकित्सा के बजाय पारंपरिक उपचारों पर निर्भर रहते हैं।AI से निर्मित चित्र
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नई दिल्ली- भारत में जल्द ही होने वाली जाति जनगणना की तैयारियों के बीच, एक स्टडी चर्चा करने योग्य है जो दक्षिण एशिया के स्वास्थ्य क्षेत्र में व्याप्त गहरे भेदभाव को उजागर करती है। शोधकर्ता रक्षा थापा, एडविन वैन टेइजलिंगन, प्रमोद राज रेग्मी और वैनेसा हेसलिप द्वारा किया गया यह अध्ययन 24 मई, 2021 को एशिया पैसिफिक जर्नल ऑफ पब्लिक हेल्थ में प्रकाशित हुआ। इसने भारत और नेपाल में दलित समुदायों , जिन्हें एतिहासिक तौर पर “अछूत” के रूप में जाना जाता था, के साथ होने वाले स्वास्थ्य सेवाओं में भेदभाव की गहरी पड़ताल की है।

नौ शोध पत्रों का विश्लेषण करने वाली इस स्टडी ने साबित किया कि सामाजिक-आर्थिक असमानताएं और जातिगत भेदभाव दलितों को स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित रखते हैं, जिससे उनका स्वास्थ्य और जीवन स्तर प्रभावित होता है।

यह स्टडी भारत में जाति जनगणना की प्रासंगिकता को और मजबूत करती है, जो इन असमानताओं को समझने और हल करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम हो सकती है।

कई समुदाय दलितों को स्वास्थ्य जानकारी समझने में असमर्थ मानते हैं, जिसके कारण स्वास्थ्यकर्मी उन्हें महत्वपूर्ण जानकारी नहीं देते। कुछ जगहों पर बीमारियों को भूत-प्रेत से जोड़ा जाता है, जिससे दलित आधुनिक चिकित्सा के बजाय पारंपरिक उपचारों पर निर्भर रहते हैं।
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जाति का बोझ

स्वास्थ्य सेवाओं में दलितों की अनदेखी जाति व्यवस्था, जो 3,000 साल पुरानी सामाजिक संरचना है, आज भी दक्षिण एशिया में सामाजिक, आर्थिक और स्वास्थ्य क्षेत्रों में असमानताओं का कारण बनी हुई है। भारत और नेपाल में कानूनों द्वारा इसे खत्म करने की कोशिशें की गई हैं, लेकिन यह स्टडी बताती है कि दलित समुदाय अभी भी स्वास्थ्य सेवाओं में भेदभाव का शिकार हैं।

2000 से 2019 के बीच भारत (सात अध्ययन) और नेपाल (दो अध्ययन) में किए गए नौ शोधों का विश्लेषण करने वाली इस स्टडी ने चार मुख्य थीम्स की पहचान की:

1. सामाजिक कलंक 2. गरीबी 3. सांस्कृतिक मान्यताएं 4. स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच।

ये थीम्स बताती हैं कि कैसे दलितों, खासकर महिलाओं को, सामाजिक और आर्थिक बाधाओं का सामना करना पड़ता है, जो उनके स्वास्थ्य को गंभीर रूप से प्रभावित करता है।

स्टडी के प्रमुख निष्कर्ष

सामाजिक-आर्थिक असमानताएं और स्वास्थ्य

स्टडी में पाया गया कि निम्न सामाजिक-आर्थिक स्थिति और कम जमीन का मालिकाना हक दलितों के खराब स्वास्थ्य परिणामों से सीधे जुड़ा है। दलितों को शिक्षा और अच्छी नौकरियों तक कम पहुंच मिलती है, जिसके कारण उनकी घरेलू आय कम रहती है। कम आय और सामाजिक भेदभाव के चलते दलितों को श्रम बाजार में समान अवसर नहीं मिलते, और वे अक्सर निम्न-स्तरीय नौकरियों तक सीमित रहते हैं।

दलित महिलाओं पर दोहरा भेदभाव

दलित महिलाएं न केवल अपनी निम्न जाति के कारण, बल्कि हिंदू समाज में महिलाओं की निचली स्थिति के कारण भी दोहरे भेदभाव का सामना करती हैं। इन महिलाओं को घरेलू हिंसा, गंभीर बीमारियों और स्थानीय स्तर से परे इलाज की कमी जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। उदाहरण के लिए, उच्च जाति की महिलाओं की तुलना में दलित महिलाएं प्रसवपूर्व देखभाल (एएनसी) सेवाओं का कम उपयोग करती हैं, जिससे मातृ और शिशु स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है। हालांकि, धनी दलित परिवारों में एएनसी सेवाओं का उपयोग कुछ हद तक बेहतर है, लेकिन निम्न जाति और गरीबी का संयोजन हमेशा खराब स्वास्थ्य परिणाम देता है।

सांस्कृतिक और सामाजिक बाधाएं

सांस्कृतिक मान्यताएं स्वास्थ्य असमानताओं को और गहरा करती हैं। कई समुदायों में दलितों को स्वास्थ्य जानकारी समझने में असमर्थ माना जाता है, जिसके कारण स्वास्थ्यकर्मी उन्हें महत्वपूर्ण जानकारी नहीं देते। कुछ जगहों पर बीमारियों को भूत-प्रेत से जोड़ा जाता है, जिसके कारण दलित आधुनिक चिकित्सा के बजाय पारंपरिक उपचारों पर निर्भर रहते हैं। इससे उनकी स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच और समझ सीमित हो जाती है।

स्वास्थ्य सेवाओं में भेदभाव

सभी नौ अध्ययनों ने पुष्टि की कि जाति स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच को प्रभावित करती है। उत्तर प्रदेश में पुरानी बीमारियों से ग्रस्त केवल 19% दलितों को इलाज मिल पाता है, क्योंकि उच्च लागत, लंबी यात्रा और अप्रशिक्षित स्वास्थ्यकर्मी उनकी राह में रोड़ा बनते हैं। नेपाल में भी, कमजोर स्वास्थ्य ढांचा और कुशल कर्मचारियों की कमी दलितों को असमान रूप से प्रभावित करती है। इसके अलावा, दलित स्वास्थ्यकर्मी, जैसे सहायक नर्स मिडवाइफ, को सहकर्मियों और मरीजों से अपमान का सामना करना पड़ता है, जो उनकी देखभाल प्रदान करने की क्षमता को कमजोर करता है।

कई समुदाय दलितों को स्वास्थ्य जानकारी समझने में असमर्थ मानते हैं, जिसके कारण स्वास्थ्यकर्मी उन्हें महत्वपूर्ण जानकारी नहीं देते। कुछ जगहों पर बीमारियों को भूत-प्रेत से जोड़ा जाता है, जिससे दलित आधुनिक चिकित्सा के बजाय पारंपरिक उपचारों पर निर्भर रहते हैं।
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गरीबी और सामाजिक कलंक

दलितों की दुविधा स्टडी में पाया गया कि गरीबी दलितों के लिए स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच में एक बड़ा अवरोध है। अधिकांश दलित गरीबी रेखा के नीचे रहते हैं और कम वेतन वाली नौकरियों, जैसे मजदूरी या टोकरी बुनाई, पर निर्भर हैं। उन्हें मुफ्त स्वास्थ्य सेवाओं या सरकारी योजनाओं की जानकारी नहीं होती, और जब वे इलाज के लिए जाते हैं, तो अक्सर गैर-लाइसेंस प्राप्त चिकित्सक उनसे मोटी फीस वसूलते हैं। चिकित्सा खर्चों के लिए कर्ज लेना आम बात है, जो उन्हें कर्ज के जाल में फंसाता है।

सामाजिक कलंक भी दलितों के स्वास्थ्य को प्रभावित करता है। उन्हें ऊपरी जातियों के घरों में प्रवेश करने, उनके साथ बैठने या भोजन-पानी साझा करने की अनुमति नहीं होती। यह भेदभाव न केवल सामाजिक जीवन में, बल्कि स्वास्थ्य सेवाओं में भी स्पष्ट है, जहां स्वास्थ्यकर्मी दलित मरीजों को छूने से बचते हैं। दलितों के बीच मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं को अक्सर भूत-प्रेत का साया माना जाता है, जिसके कारण वे आधुनिक चिकित्सा की बजाय झाड़-फूंक जैसे उपचारों की ओर मुड़ते हैं।

दलित महिलाएं भेदभाव की सबसे बड़ी शिकार

सबसे कमजोर दलित महिलाएं इस भेदभाव की सबसे बड़ी शिकार हैं। उनकी निम्न जाति और लिंग के कारण उन्हें कुपोषण, एनीमिया और मातृ मृत्यु जैसी समस्याओं का अधिक खतरा होता है। स्टडी में पाया गया कि लगभग 70% दलित महिलाएं निरक्षर हैं, जिसके कारण वे स्वास्थ्य प्रणालियों को समझने और उन तक पहुंचने में असमर्थ रहती हैं। पुरुषों पर आर्थिक निर्भरता, सीमित गतिशीलता और घरेलू हिंसा उनकी स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच को और कम करती है। उदाहरण के लिए, दलित महिलाएं अक्सर अकेले अस्पताल नहीं जा सकतीं, और उनके स्वास्थ्य संबंधी निर्णय परिवार के पुरुष लेते हैं।

नीतिगत कमियां और बदलाव की जरूरत: यह स्टडी बताती है कि जातिगत भेदभाव केवल सामाजिक मुद्दा नहीं, बल्कि एक सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट है। नेपाल में 1962 से जातिगत भेदभाव पर प्रतिबंध और भारत में सकारात्मक कार्रवाई नीतियों के बावजूद, कार्यान्वयन में कमी और सांस्कृतिक दृष्टिकोण असमानताओं को बनाए रखते हैं। लेखक तर्क देते हैं कि स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार के लिए केवल अस्पताल बनाना काफी नहीं है; सामाजिक-सांस्कृतिक कारकों, जैसे कलंक और लैंगिक असमानता, से निपटना होगा। स्व-सहायता समूह (एसजीएच) और एएनसी जैसे कार्यक्रमों ने कुछ मदद की है, लेकिन ये व्यापक सामाजिक परिवर्तन के बिना अपर्याप्त हैं।

वैश्विक नीति चर्चाओं, जैसे सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी), में जातिगत भेदभाव को अक्सर अनदेखा किया जाता है। एसडीजी के लक्ष्य, जैसे गरीबी उन्मूलन, अच्छा स्वास्थ्य, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, लैंगिक समानता और असमानता में कमी, तब तक पूरे नहीं हो सकते, जब तक जातिगत भेदभाव से निपटा नहीं जाता। लेखक विकेंद्रीकृत स्वास्थ्य प्रणालियों, स्थानीय पहुंच में सुधार और सामाजिक दृष्टिकोण बदलने के लिए कार्यक्रमों की मांग करते हैं।

कई समुदाय दलितों को स्वास्थ्य जानकारी समझने में असमर्थ मानते हैं, जिसके कारण स्वास्थ्यकर्मी उन्हें महत्वपूर्ण जानकारी नहीं देते। कुछ जगहों पर बीमारियों को भूत-प्रेत से जोड़ा जाता है, जिससे दलित आधुनिक चिकित्सा के बजाय पारंपरिक उपचारों पर निर्भर रहते हैं।
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