बिहार में हर 4 दलित बच्चों में से 1 बीच में छोड़ रहे हैं स्कूल: अध्ययन

अक्टूबर से नवंबर, 2022 के बीच बिहार के दस जिलों के बीस ग्राम पंचायतों में कराया गया. इसमें पंचायतों के 400 दलित परिवारों के बीच फील्ड सर्वेक्षण किया गया. इस अध्ययन के निष्कर्षों के अनुसार लगभग छब्बीस प्रतिशत (26.02%) दलित बच्चों ने स्कूल की पढाई बीच में छोड़ दी.
बिहार में हर 4 दलित बच्चों में से 1 बीच में छोड़ रहे हैं स्कूल: अध्ययन

पटना: एक अध्ययन के अनुसार बिहार के दलित बच्चों के अधिकारों की बहुत चिंताजनक तस्वीर सामने आई है. 'राइट्स ऑफ़ दलित चिल्ड्रेन इन बिहार: अ स्टडी रिपोर्ट फ्रॉम टेन डिस्ट्रिक्ट' शीर्षक वाली यह रिपोर्ट बीते महीने 27 जुलाई को बिहार की राजधानी पटना में जारी की गई. बिहार में दशकों से दलित और इस समुदाय के बच्चों के साथ काम कर रहे प्रतिष्ठित एनजीओ बिहार दलित विकास समिति (बीडीवीएस) द्वारा यह अध्ययन कराया गया. बाल अधिकार विशेषज्ञ सुनील झा इस अध्ययन के शोधकर्ता और लेखक हैं.

यह अध्ययन अक्टूबर से नवंबर, 2022 के बीच बिहार के दस जिलों (दरभंगा, जमुई, खगड़िया, मधेपुरा, मुंगेर, मुजफ्फरपुर, नवादा, पटना, समस्तीपुर और शेखपुरा) के बीस ग्राम पंचायतों में कराया गया. इसमें इन पंचायतों के 400 दलित परिवारों के बीच फील्ड सर्वेक्षण किया गया. इस अध्ययन के निष्कर्षों के अनुसार लगभग छब्बीस प्रतिशत (26.02%) दलित बच्चों ने स्कूल की पढाई बीच में छोड़ दी.

यह अध्ययन साथ ही दलित बच्चों द्वारा पढ़ाई छोड़ने के कारणों की भी पड़ताल करता है. इन कारणों में शामिल हैं: अध्ययन में रुचि की कमी (39.3%), परिवार की खराब वित्तीय स्थिति (29.41%), शिक्षकों का भेदभावपूर्ण रवैया (11.8%), शिक्षकों द्वारा अपमानजनक व्यवहार (9.8%) और विवाह या गर्भावस्था (7.9%).

ऐसा नहीं है कि सभी अनुसूचित जातियों के बच्चे एकसमान रूप से स्कूल छोड़ने को मजबूर हो रहे हैं. दलित बच्चों में स्कूल ड्रॉप-आउट रेट सबसे अधिक मुसहर जाति (37.06%) के बच्चों में पाई गई. स्कूल ड्रॉप-आउट होने वालों में इसके बाद पासी जाति (31.03%) और अन्य संख्यात्मक रूप से छोटी जातियों (जैसे डोम, करोरी, नट, चौपाल, रजवार आदि) का स्थान है. इस मामले में सबसे अच्छी स्थिति दुसाध (6.85%) और उसके बाद धोबी (12.50%) और रविदास (17.78%) जातियों के बच्चों की पाई गई.

वहीं सर्वेक्षण में यह भी पाया गया कि पढ़ाई छोड़ने वालों में से 42.02% बच्चों ने काम करना शुरू कर दिया था और उनमें से अधिकांश (60.56%) अन्य जिलों/राज्यों में पलायन कर गए.

बिहार की कुल जनसंख्या (करीब 10.41 करोड़) में 15.91% दलित (अनुसूचित जातियां) हैं. जिन दस जिलों में यह अध्ययन किया गया है, उनमें दलित आबादी राज्य में दलितों की औसत आबादी से ज्यादा या इसके आस-पास है. ऐसे में यह माना जा सकता है कि इस अध्ययन के आंकड़े राज्य के दलित बच्चों के प्रतिनिधि आंकड़े हैं.

इस अध्ययन के उद्देश्य के बारे में बताते हुए बीडीवीएस के निदेशक फादर जोश करिक्कट्टिल कहते हैं, "यह सर्वविदित है कि दलित आबादी मानव विकास सूचकांक में निचले पायदान पर है लेकिन हम थोड़ा और गहराई से जानना चाहते थे कि परिवार और समाज से लेकर स्कूल स्तर तक दलित बच्चों के अधिकारों का किस तरह का और कितना उल्लंघन हो रहा है. ये बच्चे अपने अधिकारों से कितना वंचित हैं. इस अध्ययन का मकसद दलित बच्चों की स्थिति को समाज और प्रशासन के सामने लाना और उनको जागृत करना था ताकि इन अधिकारों को बेहतर ढंग से सुनिश्चित करने की दिशा में आगे बढ़ा जा सके."

दलित बच्चों के साथ भेदभाव और उनका बहिष्कार

सर्वेक्षण में शामिल उत्तरदाताओं से स्कूलों में दलित बच्चों के खिलाफ की जाने वाली भेदभावपूर्ण व्यवहारों के बारे में भी पूछा गया. इस संबंध में आधे से अधिक (52.4%) उत्तरदाताओं ने बताया कि केवल दलित बच्चों को स्कूल परिसर की सफाई के लिए कहा जाता है. वहीं करीब आधे (47.1%) ने कहा कि केवल दलित बच्चों को कक्षा में पीछे बैठने के लिए मजबूर किया जाता है. लगभग ग्यारह प्रतिशत (10.7%) उत्तरदाताओं ने शिकायत की कि उनके बच्चों को स्कूलों में उनके शिक्षकों द्वारा जाति-आधारित ताने दिए जाते हैं, जिनमें उनके रूप-रंग और पहनावे का मज़ाक उड़ाना शामिल है.

इस अध्ययन में दलित समुदाय के बच्चों और वयस्क सदस्यों के साथ फोकस समूह चर्चा (एफजीडी) भी की गई. साथ ही इन पंचायतों के उन सरकारी स्कूलों के शिक्षकों का गहन साक्षात्कार भी किया गया, जहां दलित बच्चे पढ़ने जाते हैं.

दलित बच्चों के साथ एफजीडी के दौरान, कुछ बच्चों ने बताया कि ओबीसी सहित लगभग सभी गैर-दलित जातियों से आने वाले उनके सहपाठी उनका बहिष्कार करते हैं. हरेक 5 में से 1 बच्चे (21.75%) ने बताया कि उनके सहपाठी दलित बच्चों द्वारा इस्तेमाल की गई थाली में खाना नहीं खाते हैं, उनके साथ या उनके पास नहीं बैठते हैं और उनके साथ नहीं खेलते भी हैं. अध्ययन के मुताबिक, दलित बच्चों में मुसहर जाति के बच्चों को भेदभाव की सबसे अधिक घटनाओं का सामना करना पड़ता है.

साथ ही इस सर्वेक्षण में शामिल 68% उत्तरदाताओं ने इस बात की भी पुष्टि की कि छात्रों को शारीरिक दंड दिया जाता है. अध्ययन के मुताबिक करीब तीन चौथाई (74.75%) दलित बच्चे अभी भी खुले में शौच करने के लिए मजबूर हैं जबकि स्वच्छ भारत मिशन (ग्रामीण) के आंकड़ों के अनुसार, बिहार सहित पूरे ग्रामीण भारत को कुछ साल पहले ही खुले में शौच से मुक्त घोषित कर दिया गया है.

दलित बच्चियों का यौन उत्पीड़न

घरेलू सर्वेक्षण के दौरान केवल कुछ ही उत्तरदाताओं ने बताया कि उनकी बेटियों या बेटों को यौन उत्पीड़न का सामना करना पड़ रहा है. लेकिन, बच्चों के साथ एफजीडी में, 45.68% लड़कियों ने यौन उत्पीड़न संबंधी अपने अनुभव साझा किए और बताया कि उन्हें स्कूल जाते या लौटते समय उत्पीड़न का सामना करना पड़ा. हालाँकि सर्वेक्षण में दलित लड़कों के उत्पीड़न के मामले सामने नहीं आए, लेकिन अध्ययन कहता है कि इसका मतलब यह नहीं है कि दलित लड़कों का यौन उत्पीड़न नहीं होता है.

सर्वेक्षण में पाया गया कि बच्चों और लड़कियों को नुकसान पहुंचाने वाली कुछ सामाजिक और सांस्कृतिक कुप्रथाएं अभी भी दलित समुदाय में प्रचलित हैं. अध्ययन के मुताबिक करीब आधे (47.75%) दलित परिवारों का मानना है कि सामाजिक अपमान से बचने के लिए लड़कियों की शादी कम उम्र में कर देनी चाहिए. साथ ही रिपोर्ट के अनुसार अधिकांश दलित परिवारों (76.25%) के लिए लड़की और महिलाओं का मासिक धर्म अभी भी एक वर्जित विषय है, 69.25% माँ और नवजात शिशु को एक सप्ताह तक बंद कमरे में अलग रखा जाता है और 51.75% बीमार बच्चे का पहले झाड़-फूंक द्वारा इलाज कराया जाता है.

इस अध्ययन के एक मात्र सकारात्मक तथ्य के रूप में दलित बच्चों के लिए भोजन की उपलब्धता और पोषण विविधता संतोषजनक पाई गई. रिपोर्ट के निष्कर्ष के मुताबिक 95.41% परिवार अपने बच्चों को प्रतिदिन में कम-से-कम तीन बार खिलाने में सक्षम थे और 97.3% ने कहा कि सर्वेक्षण से एक दिन पूर्व के उनके भोजन में हरी सब्जियां शामिल थीं.

दलितों में अशिक्षा और भूमिहीनता की चिंताजनक स्थिति

बच्चों के अधिकारों के उल्लंघन के अलावा यह रिपोर्ट दलितों में बड़े पैमाने पर व्याप्त अशिक्षा और भूमिहीनता की स्थिति को एक बार फिर से नए आंकड़ों के जरिए सामने लाता है. इस अध्ययन में दलित परिवारों में निरक्षरता का स्तर बहुत अधिक पाया गया. 62.47% माता-पिता ने बताया कि उन्होंने कभी पढ़ाई नहीं की. जो साक्षर थे, उनमें से लगभग 2% ने कहा कि वे सिर्फ हस्ताक्षर कर सकते हैं. रिपोर्ट के मुताबिक दलितों की बड़ी आबादी (79.9%) के पास किसी भी प्रकार की कृषि भूमि नहीं होने के कारण आधे (50%) दलित खेतिहर मजदूर हैं और खेतिहर मजदूर के रूप में भी उन्हें मौसमी रोजगार ही मिल पाता है. इस कारण वे खाद्य सुरक्षा के लिए बाजार और सरकारी योजनाओं पर भी निर्भर पाए गए.

रिपोर्ट के अनुसार बहुत चिंताजनक एक अन्य आंकड़ा भी सामने आया कि साक्षात्कार में शामिल 21.25% दलित परिवारों ने बताया कि उनके यहाँ शिशुओं की मृत्यु हुई है. बच्चों की सामाजिक पृष्ठभूमि के आधार पर पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर के एनएफएचएस IV (2015-16) के आंकड़ों के विश्लेषण के मुताबिक देश के सभी राज्यों में बिहार के दलित बच्चे में शिशु मृत्यु दर (आईएमआर) सबसे अधिक पाई गई थी. जानकारों के मानना है कि इस नए अध्ययन के आंकड़े इससे भी चिंताजनक तस्वीर को सामने रखते हैं. साथ ही सर्वेक्षण में शामिल 19.25% परिवारों ने बताया कि उनकी महिलाओं का गर्भपात हुआ जो यह बताता है कि दलित महिलाओं को अभी भी पर्याप्त प्रसवपूर्व जांच और देखभाल उपलब्ध नहीं है.

सर्वेक्षण में पाया गया कि दलित महिलाओं का एक छोटा सा हिस्सा (8.30%) अपने घर के बाहर स्थित छोटे दुकानों के जरिए स्नैक्स और दैनिक उपयोग की कम कीमत वाली चीजें बेचा करती हैं.

इस अध्ययन के शोधकर्ता और लेखक सुनील झा कहते हैं, "यह अध्ययन बहुआयामी दृष्टिकोण से बिहार में दलित बच्चों के अधिकारों के उल्लंघन की जांच-पड़ताल करता है. इस छोटे से अध्ययन में दलित बच्चों के अधिकारों के उल्लंघन को मात्र विभिन्न मुद्दों और समस्याओं के आईने में देखने के बजाय व्यापक और व्यवस्थित रूप से देखने की कोशिश की गई है."

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और पटना में रहते हैं)
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