"जाति जन्म से मिलती है, शादी से नहीं बदलती": दलित व्यक्ति से शादी करने वाली महिला आरोपी को SC/ST एक्ट में हिमाचल हाईकोर्ट का राहत से इनकार, जानें पूरा मामला

कोर्ट ने विशेष रूप से इस बात पर जोर दिया कि एक गैर-दलित व्यक्ति दलित समुदाय में विवाह के माध्यम से प्रवेश नहीं कर सकता। अगर ऐसा मान लिया जाए तो इससे समाज में जातिगत भेदभाव को बढ़ावा मिलेगा।
 ट्रायल कोर्ट ने उसे इस आधार पर बरी कर दिया था कि उसने दलित व्यक्ति से शादी कर ली है और इस तरह अब वह खुद दलित समुदाय की सदस्य है। हाईकोर्ट ने इस तर्क को पूरी तरह खारिज कर दिया।
ट्रायल कोर्ट ने उसे इस आधार पर बरी कर दिया था कि उसने दलित व्यक्ति से शादी कर ली है और इस तरह अब वह खुद दलित समुदाय की सदस्य है। हाईकोर्ट ने इस तर्क को पूरी तरह खारिज कर दिया।
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शिमला- हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण आदेश में स्पष्ट किया है कि जाति जन्म से निर्धारित होती है और शादी के बाद नहीं बदल सकती। यह आदेश एक ऐसे मामले में आया है जहां एक गैर-दलित महिला ने दलित व्यक्ति से शादी करने के बाद खुद को दलित समुदाय का सदस्य बताया था। कोर्ट ने इस तर्क को खारिज करते हुए एससी/एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत उसके खिलाफ चल रहे मामले को फिर से शुरू करने का आदेश दिया है।

मामले की शुरुआत तब हुई जब आरोपिता सरोजिनी पर दलित समुदाय के एक व्यक्ति के साथ आईपीसी की धारा 451, 323, 504, 506 और एससी/एसटी एक्ट की धारा 3(1)(s) के तहत मामला दर्ज किया गया था। ट्रायल कोर्ट ने उसे इस आधार पर बरी कर दिया था कि उसने दलित व्यक्ति से शादी कर ली है और इस तरह अब वह खुद दलित समुदाय की सदस्य है। हाईकोर्ट ने इस तर्क को पूरी तरह खारिज कर दिया।

जस्टिस राकेश कैंथला की पीठ ने अपने फैसले में स्पष्ट किया कि "जाति एक जन्मजात पहचान है जो जीवनभर नहीं बदलती"। कोर्ट ने कहा कि अगर शादी के बाद जाति बदलने की अनुमति दे दी जाए तो यह एससी/एसटी अधिनियम के मूल उद्देश्य को ही कमजोर कर देगा। कोर्ट ने इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के वालसम्मा पॉल केस (1996) का हवाला दिया।

जस्टिस कैंथला ने बॉम्बे हाई कोर्ट की टिप्पणी उद्धृत की: "अनुसूचित जाति में जन्मे व्यक्ति का दुख किसी अगड़ी जाति के व्यक्ति से विवाह करने से समाप्त नहीं हो जाता। जन्म के समय लगा यह लेबल वैवाहिक संबंधों के बावजूद बना रहता है।"

इसी प्रकार, भीमप्पा जांतकल बनाम कर्नाटक राज्य (2022) में कर्नाटक उच्च न्यायालय के फैसले का हवाला दिया गया, जिसमें कहा गया था कि "अनुसूचित जाति की महिला अगड़ी जाति के पुरुष से विवाह करने पर अपनी अनुसूचित जाति का दर्जा नहीं खोती, और उसके बच्चों की जातिगत पहचान बनी रहती है।"

इन सभी फैसलों में स्पष्ट किया गया था कि जाति जन्म से मिलती है और न तो शादी से और न ही किसी अन्य तरीके से बदल सकती है। कोर्ट ने विशेष रूप से इस बात पर जोर दिया कि एक गैर-दलित व्यक्ति दलित समुदाय में विवाह के माध्यम से प्रवेश नहीं कर सकता। अगर ऐसा मान लिया जाए तो इससे समाज में जातिगत भेदभाव को बढ़ावा मिलेगा।

हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के फैसले को रद्द करते हुए मामले को फिर से विचार के लिए भेज दिया है। कोर्ट ने निर्देश दिया है कि ट्रायल कोर्ट दोनों पक्षों को सुनने के बाद नए सिरे से आरोप तय करे। साथ ही दोनों पक्षों को 1 अगस्त को कोर्ट में पेश होने के निर्देश भी दिए हैं। इस फैसले को सामाजिक न्याय की दिशा में एक बड़ा कदम माना जा रहा है।

यह फैसला न केवल कानूनी दृष्टि से महत्वपूर्ण है बल्कि सामाजिक रूप से भी इसके दूरगामी परिणाम होंगे। इससे यह स्पष्ट हो गया है कि जाति की पहचान कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे व्यक्ति अपनी सुविधा के अनुसार बदल सके। कोर्ट ने साफ किया कि उसका यह फैसला केवल कानूनी स्थिति को स्पष्ट करने के लिए है और यह मामले की मेरिट पर कोई टिप्पणी नहीं है। अब ट्रायल कोर्ट में इस मामले की सुनवाई फिर से शुरू होगी।

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