गुजरात का विशद हड़मतिया बना देश का पहला गांव जहां कोई दलित अब हिन्दू नहीं

ढाई हजार की आबादी वाले गांव में सभी 75 दलित परिवारों के 500 लोगों ने बौद्ध धर्म अपनाया
गुजरात का विशद हड़मतिया बना देश का पहला गांव जहां कोई दलित अब हिन्दू नहीं

गुजरात। जूनागढ़ जिला मुख्यालय से करीब 22  किमी दूर, तालुका भेसन के विशद (विशाल) हड़मतिया गांव की कुछ दिनों पहले तक कोई खास पहचान नहीं थी। लेकिन 21 मई को यहाँ एक हुई एक अभूतपूर्व घटना के बाद इस ग्राम की चर्चा दूर-दूर तक होने लगी है। 

वर्षों से जातिगत भेदभाव का दंश झेल रहे इस गांव के सभी 75 दलित परिवारों ने एक साथ हिन्दू धर्म का परित्याग कर विधिवत दीक्षा ग्रहण कर बौद्ध धम्म को स्वीकार कर लिया। विशद हड़मतिया की पहचान अब भारत के ऐसे गांव के तौर पर हो गई है जहां सभी अनुसूचित जाति के लोग बौद्ध धर्मी कहलायेंगे।

बौद्ध धर्मावलंबियों ने बाबा साहब की 22 प्रतिज्ञाओं की पालना का संकल्प लिया है जिनमें सभी के साथ समता, समानता, करुणा और बंधुत्व का व्यवहार, जीवन में वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने, नशे और आडंबरों दूर रहकर जीवन यापन करने को प्रधानता दी गई है।

धम्म दीक्षा ग्रहण करने के बाद नव-बौद्ध लोगों के जीवन में हिन्दू रीति रिवाजों, पर्व त्योहारों, आस्थाओं और कर्म कांडों के लिए कोई भी स्थान नहीं रह गया है। इनकी बस्ती में भजन कीर्तन की बजाय अब बुद्ध वंदना के स्वर सुनाई देते हैं। 

गौरतलब है कि इस गांव की आबादी 2500 के लगभग है जिनमें अनुसूचित जाति के 75 परिवारों के 500 सदस्य हैं। कुछ जनजाति के लोग भी हैं जिनकी संख्या अपेक्षाकृत कम है। साक्षरता दर करीब 75 फीसदी है और अधिकांश लोग खेती बाड़ी और मजदूरी कर जीवन यापन करते हैं। मजदूरी के लिए अधिकांश लोग सुबह 8 बजे तक समीप के कस्बों शहरों के लिए निकल जाते हैं और शाम को 7 बजे तक घर लौटते हैं।  

सनातन धर्म ने अपमान दिया, बाबा साहब ने राह दिखाया

गांव में बौद्ध धर्म के प्रचार प्रसार का श्रेय 50 वर्षीय मनसुख भाई वाघेला को जाता है जो स्वयं 2013 से बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं। दसवीं की शिक्षा पूरी नहीं कर पाने का मलाल रखने वाले मनसुख भाई पेशे से मजदूर हैं लेकिन बाबा साहब की सभी सिखावनिया और गौतम बुद्ध का पंचशील ज्ञान इन्हें कंठस्थ है। 

बाबा साहब द्वारा शिक्षा को दिए महत्व का इनपर ये प्रभाव हुआ कि दिनरात कड़ी मेहनत मजदूरी करके मनसुख भाई ने अपने बच्चों को उनकी इच्छानुसार पढ़ाई करवाई जिससे आज उनकी बेटी आईटीआई से फैशन टेक्नोलॉजी पर कोर्स कर चुकी है। एक बेटा भी कालेज शिक्षा प्राप्त कर अपने पांव पर खड़ा हो गया है जबकि सबसे छोटा लड़का अभी स्कूल में है।

मनसुख वाघेला भंते आनंद के साथ
मनसुख वाघेला भंते आनंद के साथ

द मूकनायक से बातचीत में मनसुख भाई ने हड़मतिया गांव में जातिगत भेदभाव और उत्पीड़न के हालात बयां किये। "मेरे बचपन में जातिगत भेदभाव बहुत ज्यादा था जो अब काफी कम हुआ है लेकिन अभी भी हमारे लोगों को रोजमर्रा के जीवन में उच्च जाति के लोगों से तिरस्कार मिलता है। हम लोगों का मन्दिर जाना इनको गंवारा नहीं है, हमको ये सामाजिक मेलमिलाप के कार्यक्रमों में भी शामिल नहीं करते", मनसुख भाई कहते हैं। मनसुख वर्तमान में भारतीय बौद्ध महासभा के भेसान तालुका के अध्यक्ष हैं और उन्हीं के प्रयासों से गांव में लगातार बौद्ध धर्म के प्रचार प्रसार के कार्य होते रहे। 

"सनातन धर्म ने लोगों को भेदभाव और छुआछूत का पाठ पढ़ाया है, हम निचले जाति वालों को आज भी गांव में उच्च जाति के लोग हिकारत से देखते हैं। नाई हमारे लोगों के बाल नहीं काटते क्योंकि उनका मानना है ऐसा करने से अन्य जाति के लोग उनकी दुकान में बाल नहीं कटवाएंगे" गांव के बुजुर्ग 75 वर्षीय नारायण वाघेला द मूकनायक को बताते हैं। नारायण कहते हैं पहले समाज के लोग इनका विरोध नहीं करते थे लेकिन समय के साथ जागरूकता और शिक्षा का स्तर बढ़ने से दलित समाज भेदभाव के विरोध में आवाज उठाने लगा है। 

गरबा आयोजनों में नहीं करते शामिल

गांव की युवती सुनयना द मूकनायक से चर्चा में कहती हैं कि नवरात्रि में जब पूरे गुजरात में गरबे की धूम मची होती, तब उसके जैसी कई दलित बच्चियां हसरत भरी निगाहों से गांव के सामूहिक रास गरबा आयोजनों में सजी संवरी युवतियों को लोक गीतों पर थिरकते लहराते हुए मनमसोस कर देखती थी। सुनयना बताती हैं ,"हमें डांडिया रास आयोजनों में शामिल नहीं किया जाता था क्योंकि ये गांव कब उच्च कुल के लोगों के आयोजन होते हैं"। 

गांव के कुछ अन्य लोग बताते हैं कि एक दौर ऐसा भी था जब किसी दलित व्यक्ति से रुपये लेने पर दुकानदार पानी के छींटे मारकर नोट को शुद्ध करते थे। "अब मार्केट बाजारों में दुकानदार निचली जाति के लोगों से रुपये बेझिझक ले लेते है क्योंकि यह उनका व्यापार है। गांव के स्कूल में भेदभाव नहीं करते क्योंकि उन्हें कानून का भय है लेकिन फिर भी समावेशता का अभाव है जो बहुत तकलीफ़ देती है" ग्रामवासी गोविंद भाई कहते हैं। 

गांव में दलित परिवारों का मोहल्ला अलग है जिसमें अधिकांश घर तो पक्के हैं लेकिन तंग माली हालात के कारण मूलभूत सुविधाओं की कमी यहाँ दिखाई देती है। दो कमरों के मकानों में संयुक्त परिवार के 5-6 सदस्य औसतन हर घर में निवासरत हैं। रहवासियों का मानना है कमजोर आर्थिक हालात उतनी पीड़ा नहीं देती है मगर अपने ही गांव में लोगों की हेय दृष्टि दिल को भेद देती है।

सालों तक विशद हड़मतिया गांव के दलित परिवारों ने अपने गांव और बाहर के उच्च वर्ग के लोगों से अपमानित होने का दंश झेला। ऐसे में गुजरात में बौद्ध धर्म के बढ़ते प्रसार, स्वयं सैनिक दल, बौद्ध महासभा सहित कई अम्बेडकरवादी स्वैच्छिक संगठनों के प्रभाव आदि के कारण लोगों में चेतना का संचार होने लगा और इन्हें बाबा साहब और तथागत द्वारा बताए मार्ग से ही वर्षों के अपमान व तिरस्कार से उन्मोचित होने का मार्ग नजर आया। 

सभी ने करीब पांच- छह माह तक बौद्ध सिद्धांतों के अनुरूप जीवन ढालने का अभ्यास किया और 21 मई को भारतीय बौद्ध महासभा द्वारा आयोजित धम्म दीक्षा समारोह में बौद्ध धर्म को आत्मसात कर लिया। इस आयोजन में बौद्ध महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं बाबा साहब के पोते भीमराव यशवन्त राव अम्बेडकर सहित  प्रवीण निखाड़े, वीएच गायकवाड़ सहित कई पदाधिकारी शामिल थे।

सरकारी स्वीकृति में पेच

हड़मतिया गांव के दलित जनों द्वारा धर्मान्तरण के लिए जिला कलेक्टर को निर्धारित प्रक्रिया के तहत आवेदन किया गया लेकिन जानकारों ने बताया कि सक्षम अधिकारी द्वारा दस्तावेजों में कमियां बताते हुए उनकी पूर्ति करने को कहा गया है जिसके बाद ही सरकारी रिकॉर्ड में धर्म परिवर्तन का अंकन होगा। मनसुख वाघेला ने बताया कि बौद्ध धर्म अंगीकार करने पर कई लोग अपने हिन्दू नाम भी परिवर्तित कर देते हैं लेकिन यहां किसी भी ग्रामीण ने नाम नहीं बदले हैं क्योंकि आधार कार्ड सहित अन्य पहचान दस्तावेजों में नाम बदलने में लोगों को कई परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है। 

मुश्किल है कुछ भी नया अपनाना 

बचपन से जिन रीति रिवाजों और आस्थाओं ने भीतर घर कर लिया हो उन्हें रातोंरात छोड़ना मुश्किल होता है, विशेषकर महिलाओं के लिए जो स्वभाव से पुरूषों की तुलना में अधिक धार्मिक और कोमल ह्र्दयी मानी जाती हैं। गांव की जयश्री पत्नी जयंती भाई कहती हैं कि घर से देवी देवता के चित्र हटाने, पूजा पाठ, व्रत उपवास आदि छोड़ने, मृत्यु पर अस्थि विसर्जन आदि नहीं करने जैसे निर्णय मुश्किल होंगे लेकिन जो अपमान- वेदना हिन्दू धर्म में रहते हुए भेदभाव के रूप में झेले हैं, उनके आगे कोई मुश्किल बड़ी नहीं है। 

एक अन्य महिला अंजू वाघेला कहती हैं कि बौद्ध धर्म अपनाने के बाद समुदाय नशे की लत से मुक्त हो जाएगा, घरों में कलह समाप्त होंगे और महिलाओं को भी बराबरी का दर्जा मिलेगा जो गृहिणियों को भी सशक्त बनाएगा।

महाराष्ट्र के बाद गुजरात में सर्वाधिक बौद्ध धर्मावलंबी

विशद हड़मतिया में ग्रामीणों को धम्म दीक्षा दिलवाने वाले अमरावती (महाराष्ट्र) के भन्तेजी आनंद (बौद्ध भिक्षु ) विगत 10 माह से गुजरात के कई गांव कस्बों में बौद्ध धर्म का प्रचार प्रसार कर रहे हैं। भंते आनंद महाराष्ट्र में रेलवे में लोकोपायलट थे जिन्होंने 20 वर्षों की सरकारी सेवा छोड़कर बौद्ध धम्म के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। नौकरी छोड़े उन्हें 10 वर्ष पूर्ण हो चुके हैं । वे वंचित समुदाय को बौद्ध धर्म से जोड़कर उनके कल्याण को ही अपना जीवन का लक्ष्य मानते हैं। 

द मूकनायक से विशेष बातचीत में उन्होंने बताया कि महाराष्ट्र में बाबा साहब द्वारा बौद्ध धर्म 1956 में अंगीकार करने के बाद लाखों की संख्या में लोगों ने हिन्दू धर्म का परित्याग किया । महाराष्ट्र में 95 फीसदी दलित बौद्ध धर्म अपना चुके हैं और सशक्त बन चुके हैं। भंते आनंद कहते हैं कि बौद्ध धर्म अपनाने वालों के जीवन में करिश्माई परिवर्तन हुए हैं,  इनका जीवन स्तर, रहन सहन और शिक्षा का स्तर सुधरा है, दलित अत्याचारों के मामले कम हुए हैं, भेदभाव से विमुक्त हो गए हैं। वे कहते हैं कि बीते कुछ वर्षों में गुजरात में बौद्ध धर्मावलंबियों की संख्या तेजी से बढ़ी है क्योंकि प्रांत में दलित समुदाय जागरूक है। भंते आनंद ने कहा कि "इन्हें सिर्फ मार्गदर्शन की आवश्यकता है और विशद हड़मतिया में 100 फीसदी दलित परिवारों द्वारा धम्म दीक्षा ग्रहण करना तो ना केवल गुजरात बल्कि पूरे भारत में पहली और ऐतिहासिक घटना है। कई लोग प्रेरित हुये हैं,  पिछले दो दिनों से लगातार कई कस्बों और गांवों से निमंत्रण प्राप्त हो रहे हैं। आने वाले दिनों में राजकोट और अन्य जिलों में ऐसे और आयोजन की तैयारियां की जा रही हैं."

बाबा साहब की 22 प्रतिज्ञाएं

14 अक्टूबर 1956 को खुद बौद्ध धर्म ग्रहण करने के बाद, बाबा साहब ने सैकड़ों लोगों को त्रिशरण और पंचशील के पाठ के बाद ये 22 प्रतिज्ञाएँ दिलवाईं थीं जिसमें ब्रह्मा, विष्णु, महेश और दूसरे हिंदू देवी-देवताओं का नाम लेकर कहा गया कि वो न तो उनमें आस्था रखेंगे, न ही उनकी पूजा करेंगे. बुद्ध को विष्णु का अवतार न मानने की क़सम भी इस प्रतिज्ञा का हिस्सा थी. चोरी नहीं करना, नशे व्यसन से दूरी, समानता में विश्वास, बुद्ध के आष्टांगिक मार्ग पर चलने आदि संकल्प भी शामिल हैं।

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